अशांत बांग्लादेश: अंतरराष्ट्रीय दखल और अंदरुनी उथल-पुथल का घातक संगम

बांग्लादेश में पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना के इस्तीफ़े और अंतरिम सरकार के गठन के बाद से देश गहरी राजनीतिक अस्थिरता, आर्थिक मुश्किलों और चुनावी अनिश्चितताओं से जूझ रहा है। हाल में मोहम्मद यूनुस की अगुवाई वाली कार्यवाहक (अंतरिम) सरकार के इस्तीफ़े की अटकलें तेज़ रहीं, लेकिन अधिकारिक रूप से यह स्पष्ट हुआ कि यूनुस हटने वाले नहीं हैं, हालाँकि प्रशासनिक कमज़ोरी और विभिन्न दलों के दबाव के बीच कामकाज में अड़चनें बनी हुई हैं। मुख्य विपक्षी दलों, खासकर बीएनपी और जमात-ए-इस्लामी, सरकार से बातचीत और सुधारों की मांग पर अड़ी हुई हैं, लेकिन राजनीतिक ध्रुवीकरण और तनाव ने समाधान की राह को कठिन बना दिया है। राष्ट्रीय चुनाव 2025 के अंत या 2026 की शुरुआत में होने की उम्मीद है, जो राजनीतिक सुधारों और विपक्षी भागीदारी पर निर्भर करेगा।

Jul 17, 2025 - 14:45
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अशांत बांग्लादेश: अंतरराष्ट्रीय दखल और अंदरुनी उथल-पुथल का घातक संगम
अशांत बांग्लादेश (PTI/Reuters)

एक लोकतंत्र की दरकती नींव

बांग्लादेश, जो कभी अपनी आर्थिक प्रगति और निर्यात-प्रधान विकास मॉडल के कारण दक्षिण एशिया में एक संभावनाशील राष्ट्र के रूप में देखा जाता था, आज राजनीतिक अस्थिरता, सत्तावाद और नागरिक अशांति की आग में झुलस रहा है। जुलाई 2025 में राजधानी ढाका और गोपालगंज जैसे क्षेत्रों में हुए छात्र प्रदर्शनों और पुलिस कार्रवाई में कई नागरिकों की मौत, दर्जनों घायल, और सैकड़ों गिरफ्तारियों की घटनाएँ न केवल एक देश के अंदरूनी संकट का संकेत हैं, बल्कि यह एक ऐसे भू-राजनीतिक संगम की ओर इशारा करती हैं, जहाँ स्थानीय असंतोष और वैश्विक हितों का टकराव चल रहा है।

अंदरुनी अस्थिरता के बीज: एक युवा आंदोलन का आक्रोश

1. आरक्षण नीति और प्रशासनिक भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनाक्रोश

बांग्लादेश में सरकारी नौकरियों में आरक्षण-प्रणाली को लेकर वर्षों से असंतोष रहा है। 2025 के मध्य में यह आंदोलन एक छात्र केंद्रित जनविद्रोह का रूप ले चुका है, जिसमें देशभर के युवा भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और राजनीतिक दमन के खिलाफ सड़कों पर उतर आए। विरोध प्रदर्शन केवल आरक्षण तक सीमित नहीं रहे—यह आंदोलन धीरे-धीरे लोकतंत्र की गुणवत्ता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, और प्रशासनिक जवाबदेही के सवालों को लेकर भी उग्र होता गया।

2. सरकारी प्रतिक्रिया: दमनात्मक रणनीति

प्रधानमंत्री शेख हसीना की सरकार ने आंदोलनों को नियंत्रण में लाने के लिए कर्फ्यू, इंटरनेट बंदी, और बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियाँ जैसे उपाय अपनाए। स्वतंत्र मीडिया और मानवाधिकार संगठनों ने आरोप लगाए कि आंदोलनकारियों के साथ अत्यधिक बल प्रयोग, न्यायिक प्रक्रिया का उल्लंघन, और राजनीतिक विरोधियों को निशाना बनाना आम हो गया है।

विपक्षी राजनीति और समाजिक ध्रुवीकरण

1. BNP और जमात-ए-इस्लामी की भूमिका

मुख्य विपक्षी दल BNP (Bangladesh Nationalist Party) और प्रतिबंधित जमात-ए-इस्लामी पर सरकार द्वारा यह आरोप लगाए गए कि वे इन प्रदर्शनों को राजनीतिक लाभ के लिए उकसा रहे हैं। जबकि BNP इन आरोपों से इनकार करता है, परंतु यह स्पष्ट है कि राजनीतिक असहमति और सत्ता की केंद्रित होती प्रवृत्ति ने विपक्ष को हाशिये पर धकेल दिया है। इससे राजनीतिक संतुलन और लोकतांत्रिक प्रक्रिया कमजोर पड़ी है।

2. धर्म और उग्रवाद का नया समीकरण

ध्यान देने योग्य है कि इस्लामी कट्टरपंथी गुट और कुछ विदेशी वित्तपोषित एनजीओ इस अशांति में अपने हित साधने के प्रयासों में लगे हैं। इसका संकेत हालिया गोपालगंज हमलों में कट्टरपंथी नारों और हिंसा की प्रकृति से मिला है।

अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप: समर्थन या सामरिक स्वार्थ?

1. पश्चिमी शक्तियाँ: मानवाधिकार बनाम भू-राजनीति

अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोपीय संघ ने बांग्लादेश सरकार पर मानवाधिकार हनन, चुनावों की पारदर्शिता की कमी और दमनकारी रवैये को लेकर खुली आलोचना की है। अमेरिका ने 2023 में ही Rapid Action Battalion (RAB) और अन्य विशेष इकाइयों पर प्रतिबंध लगाए थे। हालिया घटनाओं के बाद उन्होंने नई वीज़ा पाबंदियाँ, सहायता में कटौती और राजनयिक दबाव की रणनीति अपनाई है।

2. भारत और चीन: सुरक्षा और प्रभाव की होड़

भारत, जो बांग्लादेश के साथ साझा सीमाओं, आर्थिक संबंधों और आतंरिक सुरक्षा के कारण अत्यंत संवेदनशील है, इस संकट को बेहद करीबी नजर से देख रहा है। भारत की प्राथमिक चिंता इस्लामी कट्टरपंथ, रिफ्यूजी संकट, और पश्चिम बंगाल में प्रभाव से जुड़ी हुई है। वहीं, चीन ने अमेरिका पर आरोप लगाया कि वह बांग्लादेश को ‘दूसरा श्रीलंका’ बनाने की दिशा में धकेल रहा है ताकि बेल्ट ऐंड रोड परियोजनाओं को बाधित किया जा सके।

भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा और क्षेत्रीय अस्थिरता

बांग्लादेश एक रणनीतिक ट्रांजिट हब, बे ऑफ बंगाल की समुद्री राजनीति, और दक्षिण एशियाई आपूर्ति श्रृंखलाओं के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण है। ऐसे में वहां की अस्थिरता का प्रभाव केवल सीमित नहीं है:

भारत की पूर्वोत्तर सुरक्षा और चटगाँव पोर्ट तक पहुंच जैसे मुद्दे सीधे तौर पर प्रभावित हो सकते हैं।

चीन का निवेश और BRI के तहत कनेक्टिविटी परियोजनाएं बाधित हो सकती हैं।

अमेरिका, बांग्लादेश को इंडो-पैसिफिक रणनीति के तहत भारत-मध्यस्थ गठजोड़ में शामिल करना चाहता है।

यूरोपीय व्यापारिक हित, जो गारमेंट सेक्टर पर आधारित हैं, लंबे अस्थिरता में प्रभावित होंगे।

लोकतंत्र, अल्पसंख्यक और मानवाधिकार: सबसे बड़ी कीमत

1. लोकतंत्र का क्षरण

बांग्लादेश में मुक्त और निष्पक्ष चुनावों पर लगातार प्रश्नचिह्न लगते आए हैं। सत्तावादी नीतियाँ, न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर आक्षेप, और अभिव्यक्ति पर रोक, लोकतांत्रिक मूल्यों को कमजोर कर रही हैं।

2. अल्पसंख्यकों की स्थिति

हिंदू, बौद्ध, और ईसाई समुदाय के कई प्रतिनिधियों ने हाल की घटनाओं में अपनी असुरक्षा की भावना व्यक्त की है। अशांति के बीच साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाएँ, मंदिरों पर हमले, और जबरन धर्मांतरण की शिकायतें अंतरराष्ट्रीय मंच पर चिंता का विषय बनी हैं।

संभावनाओं की राह: समाधान और संतुलन की आवश्यकता

1. आंतरिक संवाद और समावेशी राजनीति

बांग्लादेश को सर्वप्रथम राष्ट्रीय संवाद की ओर लौटना होगा जहाँ सत्ता और विपक्ष, नागरिक समाज और युवा वर्ग के बीच एक विश्वास आधारित बातचीत हो। आरक्षण और रोजगार जैसे ज्वलंत मुद्दों पर संवैधानिक समीक्षा और पारदर्शी नीति निर्धारण जरूरी है।

2. बाहरी हस्तक्षेप से बचाव, पर सहयोग की स्वीकार्यता

जब तक देश आंतरिक रूप से राजनीतिक संस्थाओं को मज़बूत नहीं करता, तब तक बाहरी ताकतों की दखल बनी रहेगी। बांग्लादेश को चाहिए कि वह किसी एक गुट की तरफ झुकाव से बचते हुए बहुध्रुवीय कूटनीति अपनाए, जिससे वह सामरिक संतुलन और आर्थिक स्वतंत्रता दोनों को साध सके।

3. लोकतांत्रिक संस्थानों का पुनर्निर्माण

न्यायपालिका, चुनाव आयोग, मीडिया और विश्वविद्यालयों को स्वतंत्र और जवाबदेह बनाना ही दीर्घकालिक शांति की कुंजी है।

एक राष्ट्र का संकट, एक क्षेत्र की चुनौती

बांग्लादेश की मौजूदा उथल-पुथल महज़ उसकी आंतरिक राजनीति का परिणाम नहीं है, बल्कि यह उस वैश्विक-क्षेत्रीय प्रतिस्पर्धा का दुष्परिणाम है जिसमें एक राष्ट्र की संप्रभुता और जनता के अधिकार दोनों दांव पर लगे हैं। आज जरूरत है एक ऐसे संतुलित दृष्टिकोण की जो न केवल स्थानीय युवाओं की आकांक्षाओं को समझे, बल्कि अंतरराष्ट्रीय एजेंडों के दबाव को पहचानते हुए स्वतंत्रता, मानवाधिकार और लोकतंत्र के मूल्यों की पुनःस्थापना कर सके।

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सुशील कुमार पाण्डेय मैं, अपने देश का एक जिम्मेदार नागरिक बनने की यात्रा पर हूँ, यही मेरी पहचान है I