अपीलकर्ता का पक्ष | RTI में नागरिक की पीड़ा और आयोग की मनमानी | Jago TV Investigative Report
रवि शंकर जैसे अपीलकर्ताओं की आँखों से देखें RTI आयोग का असली चेहरा, जहाँ पारदर्शिता नहीं, सत्ता की ठसक दिखती है। Jago TV की खोजी रिपोर्ट…
रवि शंकर जैसे नागरिकों की आवाज़, जिन्हें सूचना आयोग के गलियारों में अपराधी की तरह देखा गया।
उत्तर प्रदेश राज्य सूचना आयोग में चल रहे मामलों ने एक गंभीर प्रश्न खड़ा किया है, क्या अब RTI के तहत सवाल पूछना अवांछनीय गतिविधि बन गया है? अपीलकर्ता रवि शंकर जैसे लोग, जो पारदर्शिता के लिए वर्षों से संघर्ष कर रहे हैं, अब आयोग की कार्यवाही में अपमान और मनमानी के प्रतीक बन गए हैं। उनकी शिकायत और यह रिपोर्ट दोनों इस बात के साक्ष्य हैं कि पारदर्शिता का मंदिर अब सत्ता का किला बन चुका है।
अपीलकर्ता, एक नागरिक, न कि अपराधी
रवि शंकर, तीन वर्षों से अपने एक साधारण RTI आवेदन का जवाब पाने की प्रतीक्षा में हैं। उनका सवाल प्रशासन से था, ‘किसने और क्यों सूचना छिपाई?’ पर जो मिला, वह जवाब नहीं, अपमान था। प्रयागराज से लेकर लखनऊ तक की यात्रा में उन्होंने सूचना आयोग के दरवाज़े बार-बार खटखटाए, धारा 18 के तहत शिकायत दर्ज की, और हर बार उन्हें ‘आयोग की प्रक्रिया’ का हवाला देकर टाल दिया गया। पर 25 अप्रैल 2025 को उन्हें उम्मीद जगी, क्योंकि सुनवाई का नोटिस मिला। लेकिन जो हुआ, वह कानून की भाषा में नहीं लिखा जा सकता, वह लोकतंत्र के अपमान का दृश्य था।
जब आयोग ने कानून नहीं, ‘मनमानी’ पढ़ी
अपीलकर्ता के केस में ‘जन सूचना अधिकारी’ अपर जिलाधिकारी (वित्त एवं राजस्व) थे। पर सुनवाई में अपर नगर मजिस्ट्रेट (प्रथम) को अवैध रूप से PIO घोषित कर दिया गया, और आयोग ने उसकी कूटरचित रिपोर्ट को ही ‘सत्य’ मान लिया। रवि शंकर बताते हैं, “मैंने जब कहा कि यह अधिकारी इस केस का PIO ही नहीं है, तो सूचना आयुक्त राकेश कुमार ने कहा, “अब हमें बताने की ज़रूरत नहीं कि कौन अधिकारी कौन है।’” यह वाक्य कानूनी नहीं, अहंकार की भाषा है। RTI अधिनियम में धारा 5 स्पष्ट कहती है कि PIO की नियुक्ति वैधानिक रूप से परिभाषित होती है, लेकिन यहाँ ‘सुविधानुसार’ नया PIO बना दिया गया, ताकि जवाबों की गड़बड़ी ढँकी रह सके।
अपमान का क्षण, जब सूचना माँगना ‘दुराग्रह’ कहा गया
रवि शंकर कहते हैं, “आयुक्त ने मुझे कहा कि आप बार-बार आवेदन देकर सिस्टम को परेशान कर रहे हैं।” यह वही रवैया है जो लोकतंत्र में नागरिक बनाम सत्ता की रेखा खींचता है। RTI का जन्म इसी ‘परेशानी’ से हुआ था कि जनता सत्ता को जवाबदेह बनाए। पर यहाँ आयोग ही सत्ता का रक्षक बन बैठा। रवि शंकर की आवाज़ काँपती है, “मुझे लगा, जैसे मैं कोई अपराधी हूँ जो गलती से अदालत में घुस आया।” यह बयान किसी भी लोकतांत्रिक समाज के लिए शर्मनाक है।
फाइल का सच बनाम व्यक्ति का सच
आयोग के आदेशों में लिखा गया, “प्रस्तुत अधिकारी द्वारा दिए गए उत्तर से आयोग संतुष्ट है।” पर असलियत यह है कि उस उत्तर में दिनांक, हस्ताक्षर और कार्यालयीय सत्यापन ही नहीं थे। यह कूटरचित (fabricated) दस्तावेज था, और इसे आयोग ने बिना जाँच स्वीकार कर लिया। रवि शंकर ने जब विरोध दर्ज किया, तो कार्यवाही स्थगित नहीं की गई, बल्कि ‘निस्तारित’ घोषित कर दी गई। यह प्रशासनिक नहीं, नैतिक अपराध है, जहाँ एक नागरिक का तीन साल पुराना संघर्ष, एक झूठे जवाब की फाइल में दफन कर दिया गया।
आयोग का चेहरा, पारदर्शिता या प्रताड़ना?
सूचना आयोग, जो नागरिकों के लिए आशा का अंतिम दरवाज़ा था, अब ‘दफ्तरी अपमान’ का प्रतीक बनता जा रहा है। रवि शंकर का मामला इसका सटीक उदाहरण है, जहाँ आयोग न तो कानून की रक्षा कर पाया, न ही नागरिक की गरिमा की। जिन आयुक्त को संविधान की शपथ दिलाई गई, वे अब अपने आदेशों में कानून की आत्मा के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। यह आयोग नहीं, एक न्याय-विहीन प्रयोगशाला बन गया है, जहाँ हर अपीलकर्ता ‘टेस्ट केस’ बन चुका है।
रवि शंकर की आवाज़, सिस्टम के खिलाफ एक इंसान की कहानी
“मैंने न कोई अपराध किया, न किसी से लाभ चाहा। बस यह जानना चाहता था कि क्यों सूचना छिपाई जा रही है। पर अब मुझे एहसास है कि सूचना नहीं, सत्ता ही छिपाई जाती है।” यह बयान सिर्फ रवि शंकर का नहीं, बल्कि हर उस नागरिक का है जो आज RTI दफ्तरों में न्याय नहीं, ठंडे आदेश लेकर लौटता है। उनकी लड़ाई व्यक्तिगत नहीं, संवैधानिक चेतना की लड़ाई है, जिसे राकेश कुमार जैसे आयुक्त अपने आदेशों से खोखला कर रहे हैं।
अब सवाल यह नहीं कि सूचना क्यों नहीं दी गई
सवाल यह है कि आयोग किसके लिए काम कर रहा है? क्या आयोग का काम कानून का अनुपालन सुनिश्चित करना है, या विभागों के लिए 'सेफ ज़ोन' तैयार करना? रवि शंकर के केस में आयोग ने हर बार अधिकारी के पक्ष में ढाल बनकर काम किया। इससे यह स्पष्ट है कि आयोग अब 'जन के लिए नहीं, जनविरोध में' कार्यरत है।
‘अपीलकर्ता का पक्ष’ बताता है कि RTI अब सिस्टम का सामना नहीं, सहन कर रही है। जहाँ पहले पारदर्शिता की उम्मीद थी, अब वहाँ अपमान का डर है। राकेश कुमार जैसे आयुक्तों के आदेश RTI की आत्मा को नहीं, नागरिक के आत्मसम्मान को भी कुचल रहे हैं। और जब अपीलकर्ता रवि शंकर जैसे लोग भी यह कहने लगें कि “अब RTI से जवाब नहीं, जवाबदेही माँगनी होगी,” तो समझ लीजिए, लोकतंत्र की रोशनी पर सिस्टम का साया पड़ चुका है।
What's Your Reaction?
