RTI की आत्मा पर चोट? UP सूचना आयोग ने देरी का बहाना बनाकर शिकायत की खारिज

RTI विशेषज्ञों का कहना है कि आयोग का निर्णय जवाबदेही से बचने का मॉडल बन सकता है। पढ़ें विस्तृत विश्लेषण..

Nov 16, 2025 - 09:11
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RTI की आत्मा पर चोट? UP सूचना आयोग ने देरी का बहाना बनाकर शिकायत की खारिज
उत्तर प्रदेश सूचना आयुक्त राकेश कुमार

लखनऊ, 14 नवंबर 2025 प्रयागराज के नागरिक रवि शंकर द्वारा दायर RTI शिकायत को उत्तर प्रदेश राज्य सूचना आयोग ने लगभग दो वर्ष की देरी का कारण बताते हुए खारिज कर दिया। जबकि कानून में कोई समय सीमा निर्धारित नहीं। आदेश में आयोग ने यह भी कहा कि आवेदन के समय PIO की पहचान ‘दुश्वार’ है। नागरिक अधिकार समूहों का कहना है कि यह आदेश एक मिसाल बन सकता है जिसके जरिये जनसूचनाधिकारी किसी भी मामले में जवाबदेही से बच निकलेंगे। सूचना के अधिकार (RTI) की भावना समय पर पारदर्शिता, जवाबदेही और नागरिक को सशक्त प्रशासन को झटका पहुँचाने वाला फैसला उत्तर प्रदेश राज्य सूचना आयोग ने दिया है। एस 10/सी/0016/2024 में आयोग ने अपीलकर्ता रवि शंकर को माँगी गई सूचना न मिलने के बावजूद कोई दंडात्मक कार्रवाई न करते हुए शिकायत को ‘विलंब’ के आधार पर निस्तारित कर दिया।

मामले का मूल: सूचना कभी मिली ही नहीं

16 अप्रैल 2022 के RTI आवेदन में शिकायतकर्ता ने कई महत्वपूर्ण बिंदुओं पर सूचना माँगी थी-

  • जांच अधिकारी के नाम
  • शिकायत प्रार्थना-पत्रों की प्रति
  • ईमेल से भेजे गए वीडियो साक्ष्य
  • निरीक्षण व जांच अभिलेख

इनमें से एक भी सूचना उपलब्ध नहीं कराई गई।

इसके बावजूद आयोग के आदेश में सूचना न देने पर प्रशासन की कोई जवाबदेही तय नहीं की गई।

सबसे विवादित तथ्य: समय सीमा का बहाना

आयोग ने कहा कि शिकायत 1 वर्ष 11 माह बाद दाखिल की गई, यह अत्यधिक विलंब है।” लेकिन RTI कानून (धारा 18) में कोई समय सीमा निर्धारित ही नहीं है। यह वही तर्क है जिसे लेकर देश-भर के आरटीआई विशेषज्ञ लगातार चेताते रहे हैं, समय सीमा का बहाना बनाकर सूचना आयोग RTI को कमजोर कर रहा है।” जब अधिकार कानून खुद किसी सीमा का उल्लेख नहीं करता, तो आयोग द्वारा ‘स्वनिर्मित मानक’ लागू कर देना एक गंभीर नीतिगत प्रश्न खड़ा करता है।

दूसरा विवादित आधार: ‘तत्समय PIO का पता नहीं’

आदेश में कहा गया, “सूचना आवेदन के समय PIO की पहचान दुरूह है, इसलिए धारा 20 की कार्यवाही नहीं की जा सकती।”

लेकिन यह प्रश्न उठता है:

1.   PIO की नियुक्ति और कार्यभार का रिकॉर्ड किसके पास होता है?

हर सरकारी कार्यालय के पास आदेश, रजिस्टर, योगदान आख्या, चार्ज रिलीव सब उपलब्ध होता है।

2. यदि PIO बदलता रहा, तो जवाबदेही किसकी?

RTI कानून कहता है: जिस दिन आवेदन पहुँचा, उस दिन जो भी PIO था, वही जिम्मेदार है।

3. क्या यह मॉडल भविष्य में भी जवाबदेही से बचने का रास्ता बनेगा?

यह आदेश एक खतरनाक प्रैक्टिस को वैधता दे सकता है-रिकॉर्ड में अस्पष्टता रखो, PIO बदल दो, और शिकायत खारिज करा लो।” नागरिक समाज इसे RTI प्रणाली की असल आत्मा के खिलाफ मान रहा है।

अपीलकर्ता की स्थिति: दोहरी सज़ा जैसी

रवि शंकर को—

1.     सूचना नहीं मिली,

2.     समय पर शिकायत न करने का ठप्पा लगाया गया,

3.     PIO की जवाबदेही तक नहीं तय हुई,

4.     और अंत में कहा गया कि शिकायत में कोई कार्यवाही अपेक्षित नहीं।”

यह स्थिति आवेदक के संवैधानिक अधिकार पर नकारात्मक प्रभाव डालती है और एक नागरिक को यह संदेश देती है कि सूचना नहीं भी मिले तो भी आयोग में न्याय मिलना अनिश्चित है।”

कानूनी विशेषज्ञों की प्रतिक्रिया

सूचना अधिकार मंच के वरिष्ठ सदस्यों के अनुसार-

  • RTI की धारा 18 में समय सीमा न होना आयोग को शिकायत अस्वीकार करने का अधिकार नहीं देता।
  • PIO की पहचान अस्पष्ट होना कार्यालय की प्रशासनिक विफलता है, न कि आवेदक की गलती।
  • ऐसे आदेश जवाबदेही को खत्म कर देते हैं और सरकारी अफसरों को संरक्षित करते हैं।

एक विशेषज्ञ ने कहा, “यह निर्णय आरटीआई के मकसद पारदर्शिता और जवाबदेही दोनों पर चोट करता है।”

महत्वपूर्ण सवाल जो यह आदेश खड़ा करता है

क्या अब नागरिक को यह भी साबित करना होगा कि कौन PIO था?

जबकि यह दायित्व सरकार का है।

क्या समय सीमा का बहाना देकर आयोग भविष्य में भी ऐसी शिकायतें टाल देगा?

यदि सूचना कभी मिले ही नहीं, तो फिर कानून का उपयोग कैसे सफल माना जाएगा?

क्या आयोग का यह रुख आवेदकों को हतोत्साहित करने का कारण बनेगा?

ये सवाल केवल एक केस के नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश की RTI व्यवस्था की विश्वसनीयता से जुड़े हैं।

निर्णय में कई गंभीर संस्थागत चिंताएँ हैं-

  • सूचना न देने वाले विभाग पर कोई जिम्मेदारी नहीं
  • विलंब का आधार, जबकि कानून में सीमा ही नहीं
  • PIO पहचान को प्रशासनिक रिकॉर्ड होते हुए भी “दुरूह” बताना
  • नागरिक को अधिकार से वंचित कर दिया जाना

यह पूरा प्रकरण यह संदेश देता है कि RTI व्यवस्था अपनी ही मूल भावना पारदर्शिता, जवाबदेही और नागरिक सशक्तिकरण के खिलाफ खड़ी हो रही है।

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सुशील कुमार पाण्डेय मैं, अपने देश का एक जिम्मेदार नागरिक बनने की यात्रा पर हूँ, यही मेरी पहचान है I