RTI संस्थानों का पतन | जब पारदर्शिता का कानून सत्ता का कवच बन गया | Jago TV Investigative Report
RTI आयोग अब जनता के नहीं, सत्ता के रक्षक बन गए हैं। उत्तर प्रदेश से लेकर केंद्र तक, RTI संस्थानों के पतन और पारदर्शिता की गिरती साख पर Jago TV की गहन इन्वेस्टिगेटिव रिपोर्ट।
सूचना आयोग अब जनता के मंच नहीं, सत्ता के प्रोटोकॉल बन चुके हैं, जहाँ जवाबदेही की जगह ‘निपटान’ और पारदर्शिता की जगह ‘प्रक्रिया’ ने कब्ज़ा कर लिया है।
सूचना का अधिकार अधिनियम (RTI Act, 2005) भारतीय लोकतंत्र की आत्मा माना गया था, वह कानून जिसने पहली बार आम नागरिक को यह ताकत दी कि वह सरकार से सवाल पूछ सके।
जिस कानून ने जनता को बोलना सिखाया, उसी की जुबान काट दी गई
जब 2005 में RTI कानून आया था, तब यह भारत के लोकतांत्रिक इतिहास की सबसे बड़ी उपलब्धि कही गई। अन्ना हजारे, अरुणा राय, अरविंद केजरीवाल जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इसे जनशक्ति का औजार बताया। लेकिन आज, वही कानून नौकरशाही के फाइल-कमरों में दम तोड़ रहा है। देशभर के सूचना आयोग 'सूचना देने के बजाय सूचना बचाने' के तरीके खोज रहे हैं। और सबसे बड़ा सवाल यह है, क्या RTI अब भी जनता का अधिकार है या सत्ता का सुरक्षा कवच बन चुका है?
RTI की आत्मा जवाबदेही, पारदर्शिता और नागरिक सशक्तिकरण
RTI अधिनियम की नींव तीन स्तंभों पर टिकी थी:
1. पारदर्शिता (Transparency)
2. जवाबदेही (Accountability)
3. भागीदारी (Participation)
इसका मकसद था कि नागरिक सरकार से सीधे सूचना मांग सके और प्रशासन जवाबदेह हो। लेकिन अब, सूचना आयोगों ने इन तीनों सिद्धांतों को प्रशासनिक औपचारिकता बना दिया है।
आयोगों का नया चेहरा, ‘निपटान केंद्र’, न्यायिक मंच नहीं
देश के अधिकांश राज्य सूचना आयोग अब “सूचना निस्तारण केंद्र” बन चुके हैं, जहाँ उद्देश्य मामलों का समाधान नहीं, संख्या दिखाना है।
उत्तर प्रदेश का उदाहरण ‘RTI आयोग या प्रशासनिक शाखा?’
उत्तर प्रदेश राज्य सूचना आयोग का हाल इस पतन की मिसाल है।
नियुक्तियाँ, पारदर्शिता के प्रहरी कैसे सत्ता के प्रतिनिधि बने
ज्यादातर राज्य सूचना आयुक्त सेवानिवृत्त नौकरशाह, न्यायाधीश या लोकायुक्त अधिकारी हैं।
सत्ता और आयोग की साझेदारी, सूचना पर मौन समझौता
सत्ता और आयोग के बीच अब एक मौन समझौता चल रहा है, “आप सूचना नहीं मांगो, हम दिखावा करते रहेंगे।” साल 2023 में केंद्रीय सूचना आयोग के पास लगभग 2.8 लाख लंबित मामले थे। राज्य आयोगों में यह संख्या 6 लाख से अधिक थी। यह सिर्फ देरी नहीं, लोकतंत्र की धीमी हत्या है। आयोग अब ‘प्रशासन के सलाहकार’ बन गए हैं, जो कहते हैं, “सूचना दो” नहीं, बल्कि “फाइल बंद करो।”
नीति-स्तर पर गिरावट, RTI Amendment Act, 2019 की चोट
2019 में RTI अधिनियम में किए गए संशोधन ने आयोगों की स्वतंत्रता पर सबसे बड़ा प्रहार किया।
RTI वॉरियर्स पर प्रहार डर, धमकी और हत्या तक
देश में 80 से अधिक RTI एक्टिविस्टों की हत्या हो चुकी है।
अपीलकर्ता बनाम आयोग, सुनवाई की नई संस्कृति
पहले सुनवाई का अर्थ था ‘दोनों पक्षों की बात सुनी जाए।‘ अब यह एकतरफा प्रक्रिया बन चुकी है, जहाँ अपीलकर्ता ‘प्रतीक’ मात्र है, और प्रशासन ‘प्रवक्ता’।
नीतिगत सुधार की ज़रूरत, पारदर्शिता की पुनर्स्थापना
अब समय है कि RTI की आत्मा को पुनर्जीवित करने के लिए ठोस सुधार किए जाएँ:
1. आयोगों की संविधानिक स्वतंत्रता सुनिश्चित की जाए।
2. सभी आदेश ऑनलाइन सार्वजनिक और ट्रेसबल हों।
3. आयोगों में नागरिक प्रतिनिधि और सामाजिक कार्यकर्ता शामिल हों।
4. RTI कार्यकर्ताओं की सुरक्षा नीति बनाई जाए।
5. आयोगों के निर्णयों पर लोक लेखा समिति की निगरानी हो।
यह केवल संस्थागत सुधार नहीं, लोकतंत्र की आत्मा की पुनर्स्थापना है।
RTI मरी नहीं है, लेकिन उसकी साँसें सत्ता के कब्ज़े में हैं
RTI संस्थान अब भी ज़िंदा हैं, पर केवल नाम मात्र से।
लोकतंत्र तभी जीवित रहेगा जब जनता सिर्फ वोट नहीं, सूचना माँगने का साहस भी रखे और संस्थान जवाब देने का नैतिक बल।
What's Your Reaction?
