RTI संस्थानों का पतन | जब पारदर्शिता का कानून सत्ता का कवच बन गया | Jago TV Investigative Report

RTI आयोग अब जनता के नहीं, सत्ता के रक्षक बन गए हैं। उत्तर प्रदेश से लेकर केंद्र तक, RTI संस्थानों के पतन और पारदर्शिता की गिरती साख पर Jago TV की गहन इन्वेस्टिगेटिव रिपोर्ट।

Nov 9, 2025 - 09:52
Nov 9, 2025 - 09:56
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RTI संस्थानों का पतन | जब पारदर्शिता का कानून सत्ता का कवच बन गया | Jago TV Investigative Report
भ्रष्ट सूचना आयुक्त माननीय राकेश कुमार

सूचना आयोग अब जनता के मंच नहीं, सत्ता के प्रोटोकॉल बन चुके हैं, जहाँ जवाबदेही की जगह ‘निपटान’ और पारदर्शिता की जगह ‘प्रक्रिया’ ने कब्ज़ा कर लिया है।

सूचना का अधिकार अधिनियम (RTI Act, 2005) भारतीय लोकतंत्र की आत्मा माना गया था, वह कानून जिसने पहली बार आम नागरिक को यह ताकत दी कि वह सरकार से सवाल पूछ सके। पर बीते एक दशक में, और ख़ासकर हाल के वर्षों में, RTI संस्थान खुद सत्ता-तंत्र की परछाईं में समा गए हैं। राज्य सूचना आयोगों से लेकर केंद्रीय आयोग तक, हर स्तर पर “सूचना रोकने की प्रवृत्ति” और “संस्थागत संरक्षण” बढ़ा है। यह रिपोर्ट बताती है कि कैसे आयोग अब जनसत्ता नहीं, नौकरशाही का विस्तार बन गए हैं।

जिस कानून ने जनता को बोलना सिखाया, उसी की जुबान काट दी गई

जब 2005 में RTI कानून आया था, तब यह भारत के लोकतांत्रिक इतिहास की सबसे बड़ी उपलब्धि कही गई। अन्ना हजारे, अरुणा राय, अरविंद केजरीवाल जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इसे जनशक्ति का औजार बताया। लेकिन आज, वही कानून नौकरशाही के फाइल-कमरों में दम तोड़ रहा है। देशभर के सूचना आयोग 'सूचना देने के बजाय सूचना बचाने' के तरीके खोज रहे हैं। और सबसे बड़ा सवाल यह है, क्या RTI अब भी जनता का अधिकार है या सत्ता का सुरक्षा कवच बन चुका है?

RTI की आत्मा जवाबदेही, पारदर्शिता और नागरिक सशक्तिकरण

RTI अधिनियम की नींव तीन स्तंभों पर टिकी थी:

1. पारदर्शिता (Transparency)

2. जवाबदेही (Accountability)

3. भागीदारी (Participation)

इसका मकसद था कि नागरिक सरकार से सीधे सूचना मांग सके और प्रशासन जवाबदेह हो। लेकिन अब, सूचना आयोगों ने इन तीनों सिद्धांतों को प्रशासनिक औपचारिकता बना दिया है।

आयोगों का नया चेहरा, ‘निपटान केंद्र’, न्यायिक मंच नहीं

देश के अधिकांश राज्य सूचना आयोग अब “सूचना निस्तारण केंद्र” बन चुके हैं, जहाँ उद्देश्य मामलों का समाधान नहीं, संख्या दिखाना है। RTI मामलों में जवाबदारी तय करने की जगह फाइल बंद करने की प्रवृत्ति हावी है। आयोग के आदेशों में “सूचना उपलब्ध कराई जा चुकी है” या “संतोषजनक उत्तर” जैसे वाक्य रटे हुए नज़र आते हैं - भले ही सूचना अधूरी, गलत, या कूटरचित क्यों न हो। सुनवाई का मंच जहाँ जनता की आवाज़ गूँजनी चाहिए थी, वहाँ आज अधिकारीयों की आत्ममुग्धता सुनाई देती है।

उत्तर प्रदेश का उदाहरण ‘RTI आयोग या प्रशासनिक शाखा?

उत्तर प्रदेश राज्य सूचना आयोग का हाल इस पतन की मिसाल है। कई अपीलकर्ताओं ने शिकायत की कि आयोग अब प्रशासनिक अधिकारियों के पक्ष में फैसले देने की आदत में आ चुका है। प्रयागराज निवासी रविशंकर की अपील इसका उदाहरण है- जहाँ तीन साल से लंबित धारा 18 की शिकायत में अपर जिलाधिकारी (वित्त एवं राजस्व) के स्थान पर अवैध रूप से अपर नगर मजिस्ट्रेट (प्रथम) से जवाब दिलवाया गया। फिर भी, आयोग ने न तो इसे असंवैधानिक माना, न कोई कार्यवाही की। बल्कि अपीलकर्ता को अपमानित करने की नौबत लाई गई। यह वह दौर है जब आयोग खुद ‘जन सूचना अधिकारी’ तय कर देता है,  कानून की व्याख्या अपने हित में, जनता की नहीं।

नियुक्तियाँ, पारदर्शिता के प्रहरी कैसे सत्ता के प्रतिनिधि बने

ज्यादातर राज्य सूचना आयुक्त सेवानिवृत्त नौकरशाह, न्यायाधीश या लोकायुक्त अधिकारी हैं। राकेश कुमार (UP), भास्करन (केरल), संजय कुमार (दिल्ली) जैसे कई नाम इस श्रेणी में आते हैं। समस्या यह नहीं कि वे अनुभवी हैं समस्या यह है कि वे उसी सिस्टम का हिस्सा रहे हैं, जिसके खिलाफ अब उन्हें निर्णय देने हैं। जब कोई सेवानिवृत्त अधिकारी आयोग की कुर्सी पर बैठता है, तो वह पारदर्शिता की नहीं, संस्थागत निष्ठा की रक्षा करता है। यानी, RTI आयोग अब ‘रिटायरमेंट क्लब’ बन चुके हैं, जहाँ सत्यनिष्ठा की जगह सिस्टम-लॉयल्टी चलती है।

सत्ता और आयोग की साझेदारी, सूचना पर मौन समझौता

सत्ता और आयोग के बीच अब एक मौन समझौता चल रहा है, “आप सूचना नहीं मांगो, हम दिखावा करते रहेंगे।” साल 2023 में केंद्रीय सूचना आयोग के पास लगभग 2.8 लाख लंबित मामले थे। राज्य आयोगों में यह संख्या 6 लाख से अधिक थी। यह सिर्फ देरी नहीं, लोकतंत्र की धीमी हत्या है। आयोग अब ‘प्रशासन के सलाहकार’ बन गए हैं,  जो कहते हैं, “सूचना दो” नहीं, बल्कि “फाइल बंद करो।”

नीति-स्तर पर गिरावट, RTI Amendment Act, 2019 की चोट

2019 में RTI अधिनियम में किए गए संशोधन ने आयोगों की स्वतंत्रता पर सबसे बड़ा प्रहार किया। पहले जहाँ सूचना आयुक्तों का कार्यकाल और वेतन संसद द्वारा तय था, अब सरकार अपनी मर्जी से तय करती है - यानी जो सत्ता को रास आएगा, वही पारदर्शिता की परिभाषा गढ़ेगा। यह संशोधन आयोगों को ‘सत्ता के नियंत्रण’ में डाल चुका है। अब कोई आयुक्त सरकार की नाराज़गी मोल नहीं लेना चाहता।

RTI वॉरियर्स पर प्रहार डर, धमकी और हत्या तक

देश में 80 से अधिक RTI एक्टिविस्टों की हत्या हो चुकी है। हजारों पर हमले हुए हैं। लेकिन आयोग ने शायद ही कभी इन पर स्वतः संज्ञान लिया हो। RTI अब नागरिक सुरक्षा का नहीं, नागरिक ख़तरे का कानून बन गया है। जहाँ पहले सूचना मांगना लोकतांत्रिक साहस था, अब यह सत्ता के खिलाफ अपराध बन चुका है।

अपीलकर्ता बनाम आयोग, सुनवाई की नई संस्कृति

पहले सुनवाई का अर्थ था ‘दोनों पक्षों की बात सुनी जाए।‘ अब यह एकतरफा प्रक्रिया बन चुकी है, जहाँ अपीलकर्ता ‘प्रतीक’ मात्र है, और प्रशासन ‘प्रवक्ता’। कई आयोगों में सुनवाई ऑनलाइन या ईमेल-आधारित कर दी गई है, ताकि नागरिक की उपस्थिति ही अप्रासंगिक हो जाए। सूचना आयोग अब लोक मंच नहीं, फ़ाइल मंच हैं।

नीतिगत सुधार की ज़रूरत, पारदर्शिता की पुनर्स्थापना

अब समय है कि RTI की आत्मा को पुनर्जीवित करने के लिए ठोस सुधार किए जाएँ:

1. आयोगों की संविधानिक स्वतंत्रता सुनिश्चित की जाए।

2. सभी आदेश ऑनलाइन सार्वजनिक और ट्रेसबल हों।

3. आयोगों में नागरिक प्रतिनिधि और सामाजिक कार्यकर्ता शामिल हों।

4. RTI कार्यकर्ताओं की सुरक्षा नीति बनाई जाए।

5. आयोगों के निर्णयों पर लोक लेखा समिति की निगरानी हो।

यह केवल संस्थागत सुधार नहीं, लोकतंत्र की आत्मा की पुनर्स्थापना है।

RTI मरी नहीं है, लेकिन उसकी साँसें सत्ता के कब्ज़े में हैं

RTI संस्थान अब भी ज़िंदा हैं, पर केवल नाम मात्र से। उनकी फाइलों में जनता की आवाज़ नहीं, सिस्टम की स्वीकृति गूंजती है। हर आदेश, हर सुनवाई अब पारदर्शिता नहीं, औपचारिकता का दस्तावेज़ है।

लोकतंत्र तभी जीवित रहेगा जब जनता सिर्फ वोट नहीं, सूचना माँगने का साहस भी रखे और संस्थान जवाब देने का नैतिक बल।

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सुशील कुमार पाण्डेय मैं, अपने देश का एक जिम्मेदार नागरिक बनने की यात्रा पर हूँ, यही मेरी पहचान है I