UP सूचना आयोग ने RTI शिकायत विलंब और रिकॉर्ड गुम होने के आधार पर खारिज की | क्या पारदर्शिता कमजोर हो रही है?
प्रयागराज के रवि शंकर मामले में आयोग का आदेश RTI की मूल भावना पर नया सवाल खड़ा करता है। पढ़ें कठोर विश्लेषण।
RTI आवेदन का उत्तर तीन वर्ष बाद दिया गया; आयोग ने PIO की लापरवाही मानने से इनकार किया। विशेषज्ञों का कहना, इस तरह के आदेश पारदर्शिता के पूरे ढांचे को खोखला कर रहे हैं।
लखनऊ, 14 नवंबर 2025। प्रयागराज के नागरिक रवि शंकर द्वारा दायर आरटीआई शिकायत (एस 10/सी/0015/2024) में उत्तर प्रदेश राज्य सूचना आयोग ने शिकायतकर्ता को कभी समय पर सूचना न मिलने के बावजूद कोई कार्रवाई न करते हुए शिकायत को ‘विलंब’ और ‘रिकॉर्ड मिसप्लेस’ होने के आधार पर निस्तारित कर दिया। आदेश में कहा गया कि कोविड-19 के कारण पत्र खो गया होगा और PIO ने “विद्वेषपूर्ण तरीके से सूचना रोकी नहीं”, इसलिए दंड उचित नहीं। नागरिक समाज इसे RTI कानून की आत्मा पर गहरी चोट मान रहा है। सूचना का अधिकार कानून जिसे जनता ने पारदर्शिता और जवाबदेही का सबसे मजबूत हथियार समझा था, वह धीरे-धीरे प्रशासनिक प्रक्रियाओं और आयोगीय तर्कों के जाल में फंसकर कमजोर होता दिख रहा है। एस 10/सी/0015/2024: रवि शंकर बनाम जनसूचनाधिकारी, जिलाधिकारी प्रयागराज इसका ताजा उदाहरण है।
मूल तथ्य: सूचना मिली ही नहीं और जब मिली, कानूनन अवधि से दो वर्ष बाद मिली
RTI आवेदन 04 जनवरी 2022 को दिया गया। कानून के अनुसार, अंतिम तारीख 04 फरवरी 2022 थी। परंतु सूचना दी गई 21 जून 2023 को यानी लगभग 1.5 वर्ष बाद। न तो समय सीमा का पालन हुआ, न प्रथम अपील पर राहत मिली। इसके बाद नागरिक ने आयोग में शिकायत की।
आयोग ने शिकायत को दंडात्मक कार्रवाई के बजाय ‘विलंब’ बताकर खारिज किया
आयोग का कहना था कि शिकायत मार्च 2024 में दायर हुई, यानी दो वर्ष बाद।
और यह विलंब कार्यवाही में बाधा है। लेकिन आलोचक कहते हैं, RTI के धारा 18 में कोई समय सीमा निर्धारित ही नहीं है। समय-सीमा का आविष्कारित आधार बनाकर शिकायत खारिज करना स्वयं में RTI की मूल आत्मा के खिलाफ है।
सबसे विवादित आधार: ‘पत्र कोविड में मिसप्लेस हो गया होगा’
PIO की ओर से दिया गया तर्क:
- 2019 का रजिस्टर्ड पत्र रिकॉर्ड में नहीं है
- कोविड-19 (2020) के दौरान कार्य बाधित हुए
- इसलिए पत्र “संभवतः” खो गया
RTI विशेषज्ञ इसे बेहद चिंताजनक मानते हैं:
“यदि सरकारी विभाग ‘संभवतः खो गया’ कहकर जवाबदेही से मुक्त हो सकता है, तो RTI पूरी तरह निष्प्रभावी हो जाएगी।”
डाक विभाग ट्रैकिंग दिखाता है कि पत्र 06.02.2019 को प्राप्त हुआ था। लेकिन आयोग ने इस तथ्य पर किसी संस्थागत कठोरता से प्रश्न नहीं उठाया।
आवक रजिस्टर की जगह 'अन्य रजिस्टर' उपलब्ध कराया गया, आयोग ने इसे भी गंभीरता नहीं दी
शिकायतकर्ता का आरोप है कि:
- मांगे गए ‘आवक रजिस्टर’ की जगह दूसरी श्रेणी का रजिस्टर दिया गया
- उसमें किसी भी स्पीड/रजिस्टर्ड डाक नंबर का उल्लेख नहीं था
- यह गंभीर रिकॉर्ड मिसमैनेजमेंट है
लेकिन आयोग ने इसे केवल ‘त्रुटि’ मानकर आगे बढ़ गया।
आयोग की टिप्पणी: “आवेदक अत्यंत आक्रामक सूचना मांगने वाला है”
यह टिप्पणी सबसे अधिक आलोचना का केंद्र बनी है। जन सूचना अधिकार एक मौलिक लोकतांत्रिक अधिकार है, न कि “आक्रामकता” का अपराध।
विशेषज्ञों का कहना:
“नागरिक जितनी चाहे उतनी RTI दाखिल कर सकता है। यह आयोग का काम है न कि राय देना कि कोई ‘आक्रामक आवेदक’ है।”
यह टिप्पणी RTI संस्कृति के मनोवैज्ञानिक दमन के रूप में देखी जा रही है।
बड़े प्रश्न उठ खड़े होते हैं
❓ 1. “पत्र गुम हो गया” — क्या यह भविष्य के सभी RTI मामलों के लिए एक बचाव बन जाएगा?
यदि हां, तो फिर आरटीआई कानून का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा।
❓ 2. 2019 से 2025 तक रिकॉर्ड प्रबंधन की विफलता का दायित्व किसका है?
आवेदक का, या विभाग का?
❓ 3. क्या शिकायतकर्ता को दोषी ठहराना संस्थागत जवाबदेही को कमजोर करता है?
❓ 4. PIO की स्वीकार की गई लापरवाही (“अपर्याप्त जानकारी”, “अभिलेख का गलत रख-रखाव”) पर भी दंड क्यों नहीं?
❓ 5. क्या आयोग पारदर्शिता के बजाय विभागीय सुविधा को प्राथमिकता दे रहा है?
नागरिक समाज की प्रतिक्रिया
RTI अधिकार आंदोलन से जुड़े लोग इसे चिंताजनक मानते हैं-
- विलंब को बहाना बनाना
- मिसप्लेस रिकॉर्ड को स्वीकार करना
- PIO पर कोई दंड न लगाना
- आवेदक को ही दोषी ठहराना
ये सारे तत्व सूचना के अधिकार को कमजोर करने वाली प्रवृत्ति को दर्शाते हैं।
एक विशेषज्ञ ने कहा, “यह निर्णय प्रशासनिक लापरवाही को वैध करता है और नागरिक के अधिकार को गौण बना देता है। यह आरटीआई की पूरी आत्मा के उलट है।”
यह मामला RTI कानून पर गंभीर प्रश्नचिह्न लगाता है-
- यदि रिकॉर्ड खो जाए, तो नागरिक जिम्मेदार नहीं
- PIO की गलती पर कार्रवाई अपेक्षित
- शिकायत में देरी के आधार पर अधिकार समाप्त नहीं किए जा सकते
- आयोग की टिप्पणी नागरिक अधिकारों पर दबाव का संकेत देती है
यह निर्णय पारदर्शिता की जगह सुविधा-प्रधान प्रशासन को बढ़ावा देता दिखता है और सूचना आयोग की भूमिका को लेकर नई बहस खड़ी करता है।
What's Your Reaction?
