‘डेटा इरेज़’ बहाना और देरी: UP सूचना आयोग ने रवि शंकर की शिकायत निस्तारित की, क्या पारदर्शिता कमजोर हो रही है?

आदेश में आयोग ने रिकॉर्ड-लॉस व विलंब का हवाला देकर दंडात्मक कार्रवाई से परहेज़ किया; विशेषज्ञ कहते हैं, तकनीकी सत्यापन और संस्थागत सुधार की आवश्यकता है। पढ़ें विस्तृत विश्लेषण।

Nov 17, 2025 - 03:08
 0
‘डेटा इरेज़’ बहाना और देरी: UP सूचना आयोग ने रवि शंकर की शिकायत निस्तारित की, क्या पारदर्शिता कमजोर हो रही है?
भ्रष्ट सूचना आयुक्त राकेश कुमार

प्रयागराज के रवि शंकर द्वारा माँगे गए दस्तावेज 1.5–2 साल में उपलब्ध हुए; आयोग ने रिकॉर्ड-लॉस और विलंब को आधार बनाकर कोई दंडात्मक कार्रवाई नहीं की। विशेषज्ञों का कहना, यह निर्णय RTI की आत्मा को कमजोर करने वाला सिद्ध हो सकता है।

लखनऊ, 14 नवंबर 2025। रवि शंकर बनाम जनसूचनाधिकारी (एस 10/सी/0100/2024) में राज्य सूचना आयोग ने प्रशासनिक रिकॉर्ड के ग़लत रख-रखाव और ई-मेल लॉग/कैम्प कार्यालय कंप्यूटर से सूचना न मिलने पर शिकायत खारिज कर दी। आदेश यह मानता है कि सूचना यथासंभव प्रदान कर दी गई तथा PIO ने 'विद्वेषपूर्ण' तौर पर सूचना रोकने का लक्ष्य नहीं रखा। परन्तु आयोग ने विभागीय रिकॉर्ड-प्रबंधन और देरी के कारण नागरिक-हक की संभावित हानि पर निर्णायक रूप से प्रश्न नहीं उठाए, जो पारदर्शिता और जवाबदेही की बढ़ती चिंताओं को जन्म देता है। उत्तर प्रदेश राज्य सूचना आयोग के समक्ष दर्ज एस 10/सी/0100/2024 में आवेदक रवि शंकर द्वारा जिलाधिकारी प्रयागराज से माँगी गई छह सूचनाओं के सम्बन्ध में आयोग ने 21.06.2025 को उपलब्ध करायी गई सूचनाओं तथा प्रस्तुत दलीलों का परीक्षण कर के शिकायत को अंतिम रूप से निस्तारित किया। सुनवाई आयोग के समक्ष 25.09.2025 को ऑनलाइन आयोजित हुई।

 मामले के तथ्य (सार):

आवेदक ने दिनांक 09.09.2023 को छह बिंदुओं पर सूचनाएँ माँगी (अर्थदण्ड वसूली आदेश से सम्बन्धित पत्रावली, आयोग के नोटिस पर की गई कार्यवाही, ई-मेल रिमाइंडर और 01.01.2021 से वर्तमान तक नामांकित जनसूचना अधिकारियों की सूची आदि)। जनसूचनाधिकारी ने दिनांक 21.06.2025 को सूचनाएं उपलब्ध कराईं, यानी आवेदन के लगभग 1.75 वर्ष बाद। जनसूचनाधिकारी का अभिकथन कहता है कि कुछ ई-मेल/रिमाइंडर मेल लॉग प्राप्त नहीं हुए क्योंकि कंप्यूटर का डेटा एनआईसी से अपडेट/इरेज़ होने के कारण ग़ायब था। साथ ही कहा गया कि पुराने सहायक कर्मचारियों के रिकॉर्ड-रखने में अपूर्णता पायी गई; उन सहायक कर्मचारियों को बाद में हटाया गया/सेवानिवृत्त हुआ। आयोग ने माना कि जनसूचनाधिकारी ने यथा-सम्भव सूचना उपलब्ध कराई, सूचना देने में ‘विद्वेषपूर्ण इंकार’ सिद्ध नहीं होता, अतः धारा-20 के तहत कार्यवाही का औचित्य नहीं होता; शिकायत निस्तारित की गई। आयोग ने यह भी उल्लेख किया कि आवेदक के विरुद्ध ‘अत्यन्त आक्रामक सूचना आवेदक’ होने का तथ्य मौजूद है और आवेदक के कई मामलों की लंबितता संकेतित की गई।

कठोर प्रश्न और विश्लेषण:

रिकॉर्ड-लॉस को ‘प्राकृतिक’ मान लेना कितनी दूर तक न्यायसंगत है?

आदेश में यह तथ्य मान लिया गया कि कैम्प-ऑफिस के कम्प्यूटर का डेटा एनआईसी के कारण अपडेट/इरेज़ हो गया, पर आयोग ने यह निर्धारित नहीं किया कि:

क्या विभाग ने बैक-अप नीति और रजिस्टर-कीपिंग मानक अपनाये थे?

नोटिस मिलने पर संबंधित ई-मेल-लॉग/एमटीए-हिस्ट्री रिकवर करने का औपचारिक प्रयास किया गया या किसी तकनीकी ऑडिट का आदेश हुआ? इन बुनियादी बिंदुओं की अनदेखी रिकॉर्ड-लॉस को प्रशासनिक असफलता से बचाने का मार्ग दे सकती है। पारदर्शिता की दृष्टि से ऐसे मामलों में तकनीकी ऑडिट और संस्थागत सुधार की माँग होना चाहिए था न कि केवल ‘डाटा इरेज़’ को स्वीकार कर लिया जाना।

विलंब और शिकायत-दर्ज करने का समय: किसे दोषी माना गया?

आयोग ने आवेदक के देरी से शिकायत दायर करने (07 माह बाद) को नकारात्मक माना, जबकि:  प्राथमिक सूचना ही समय पर नहीं दी गई, आवेदक को प्रथम अपील/शिकायत का विकल्प तत्काल उपलब्ध था। दूसरी ओर, विभागीय रिकॉर्ड-त्रुटि और लंबित मामलों के कारण आवेदक को तर्कसंगत देरी का औचित्य भी हो सकता है। कानूनी तर्क के लिहाज़ से, धारा-18 में कोई नियत अवधि न होने पर भी आयोग को तथ्य-आधारित विवेचना कर देरी के औचित्य (जैसे कि सूचनाओं की उपलब्धता का असमर्थन) पर अधिक संवेदनशील होना चाहिए था।

PIO पर जवाबदेही का सवाल

आयोग ने स्वीकार किया कि विहित अवधि में सूचना उपलब्ध नहीं करायी गई, फिर भी निष्कर्ष निकाला कि सूचनाएँ ‘सारवान रूप से संतोषजनक प्रतीत’ होती हैं और ‘विद्वेष’ सिद्ध नहीं होता। पर यह दो अलग प्रश्न हैं:

क्या सूचना समय पर उपलब्ध करायी गई? (नहीं)

क्या विभाग ने रिकॉर्ड-रखाव में उचित व्यवस्था की? (स्पष्ट रूप से नहीं)

इन दोनों का अर्थ यह नहीं है कि केवल ‘विद्वेष नहीं था’ कोई दायित्व नहीं। दंडात्मक कार्रवाई ही नहीं, बल्कि अनुशासनात्मक/प्रणालीगत सुधार के निर्देश भी अपेक्षित थे, जिनका उल्लेख आदेश में नहीं मिलता।

आयोग का भाषा-छंद: ‘आक्रामक आवेदक’ क्या यह न्यायिक निष्पक्षता के अनुकूल है?

आदेश बार-बार आवेदक की ‘अत्यन्त आक्रामक’ प्रकृति का जिक्र करता है। यह आलोचनात्मक टिप्पणी पत्रकारिता और प्रशासनिक समीक्षा में स्वीकार्य है, पर आयोग की औपचारिक टिप्पणी का असर यह हो सकता है कि आवेदक-अधिकार के प्रयोग को मनोवैज्ञानिक रूप से दबाया जाए। RTI एक मौलिक लोकतांत्रिक साधन है, आवेदक की सक्रियता को नकारात्मक रूप में पेश करना स्वतंत्र साधन के प्रयोग पर भय पैदा कर सकता है।

नीतिगत निहितार्थ (Policy Implications):

यदि ‘डेटा-इरेज़’ या ‘एनआईसी-अपडेट’ जैसे तकनीकी बहाने स्वीकार कर लिए जाएँ, तो सरकारी रिकॉर्ड-नियंत्रण में ढील का वातावरण बन सकता है।

आयोगों को ऐसे मामलों में तकनीकी सत्यापन (server logs, mail headers, NIC audits) माँगना चाहिए और संस्थागत सुधार के निर्देश देना चाहिए। केवल ‘सूचना बाद में दी गई’ बताकर केस बंद करना समस्या का स्थायी निवारण नहीं है।

RTI के उद्देश्य पारदर्शिता, जवाबदेही और लोक-सेवा के कार्य-प्रणाली में सुधार को ध्यान में रखते हुए आयोग को न केवल व्यक्तिगत दोष ढूंढना चाहिए बल्कि प्रक्रियागत सुधार के निर्देश भी जारी करने चाहिए।

एस 10/सी/0100/2024 का आदेश प्रशासनिक रिकॉर्ड-क्षय और देरी के मामलों में आयोग के रवैये पर गंभीर प्रश्न उठाता है। जहाँ आयोग ने ‘विद्वेष की अनुपस्थिति’ और ‘सूचनाएँ यथा-सम्भव प्रदान कर दी गयीं’ कहकर कार्रवाई नहीं की, वही निर्णय व्यापक दृष्टि से RTI-संरचना की जवाबदेही और रिकॉर्ड-प्रबंधन की कमजोरी को अनदेखा करता है। ऐसे आदेश पारदर्शिता की भावना को कमजोर कर सकते हैं और भविष्य में विभागों के लिए असंवेदना तथा ढुलमुल रिकॉर्ड-प्रथाओं को बढ़ावा दे सकते हैं।

नागरिक-अधिकार समूहों और नीति-विशेषज्ञों के लिए यह स्पष्ट चेतावनी है आयोगों को तकनीकी सत्यापन, संस्थागत सुधार के निर्देश और प्रणालीगत जवाबदेही को प्राथमिकता देनी चाहिए; केवल ‘दोष सिद्ध न होना’ ही पर्याप्त नहीं।

 

What's Your Reaction?

like

dislike

love

funny

angry

sad

wow

सुशील कुमार पाण्डेय मैं, अपने देश का एक जिम्मेदार नागरिक बनने की यात्रा पर हूँ, यही मेरी पहचान है I