भ्रष्ट सूचना आयुक्त राकेश कुमार: सिस्टम थक गया या जवाबदेही मर गई?

उत्तर प्रदेश सूचना आयोग में भ्रष्टाचार का खुलासा। आयुक्त राकेश कुमार पर आरोप कि उन्होंने अपीलकर्ता को अपमानित किया और RTI अधिनियम की धज्जियाँ उड़ाईं। जानिए पूरा सच....

Nov 2, 2025 - 20:37
Nov 3, 2025 - 06:56
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भ्रष्ट सूचना आयुक्त राकेश कुमार: सिस्टम थक गया या जवाबदेही मर गई?
भ्रष्ट सूचना आयुक्त राकेश कुमार

भ्रष्ट सूचना आयुक्त राकेश कुमार बोले- सिस्टम थक गया, सवाल मत पूछो

लखनऊ: प्रयागराज के एक सूचना अधिकार (RTI) प्रकरण में सूचना आयुक्त राकेश कुमार के हालिया आदेश को लेकर गंभीर प्रश्न उठे हैं। अपीलार्थी रवि शंकर ने आरोप लगाया है कि उनकी अपील पर सुनवाई के बावजूद आयोग ने न तो जनसूचना अधिकारी पर कोई कार्रवाई की और न ही माँगी गई जानकारी उपलब्ध कराई। आयोग ने अपने आदेश (दिनांक 17 अक्टूबर 2025) में यह कहते हुए अपील निस्तारित कर दी कि अपीलकर्ता द्वारा अत्यधिक संख्या में आवेदन प्रस्तुत करने से सिस्टम पर भार पड़ा है। इस निर्णय को RTI कानून की मूल भावना ‘पारदर्शिता और जवाबदेही’ के प्रतिकूल बताया जा रहा है।

लोकतंत्र में एक दरार

भारत का सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 उस समय लोकतंत्र की सबसे बड़ी जीत मानी गई थी। यह वह कानून था जिसने पहली बार नागरिक को सरकार की आंखों में झांकने का अधिकार दिया, यह अधिकार कि कोई भी नागरिक किसी भी सरकारी कार्यालय से यह पूछ सके कि “आपने मेरे नाम पर क्या किया, क्यों किया और कैसे किया?”

लेकिन उत्तर प्रदेश में यह अधिकार अब धीरे-धीरे एक औपचारिक कागज का टुकड़ा बनता जा रहा है। और इस पतन का सबसे बड़ा उदाहरण हैं, सूचना आयुक्त राकेश कुमार, जिनका ताजा आदेश लोकतंत्र की नींव पर सवाल उठा रहा है।

मामले की जड़: प्रयागराज से उठी चिंगारी

प्रयागराज के निवासी रवि शंकर पिछले कई वर्षों से RTI के माध्यम से सरकारी जवाबदेही की लड़ाई लड़ रहे हैं। 19 अक्तूबर 2023 को उन्होंने एक सूचना आवेदन (संख्या DMOPR/R/2023/60270) दायर किया।

उनका प्रश्न सीधा था, क्यों उनके पहले की शिकायतों और सूचना अनुरोधों पर कार्रवाई नहीं की गई? क्यों अपर नगर मजिस्ट्रेट (प्रथम), कलेक्ट्रेट प्रयागराज, पूर्व आदेशों की अवहेलना कर रहे हैं?

लेकिन, इस सीधाई का जवाब ‘चुप्पी’ में मिला। अधिकारी ने सूचना न तो निर्धारित समय सीमा में दी, न बिंदुवार। इसके बाद रवि शंकर ने राज्य सूचना आयोग, उत्तर प्रदेश में अपील संख्या S10/A/0008/2024 दाखिल की।

जब आयुक्त ने कहा, ‘सिस्टम थक गया’

अपील पर 25 सितंबर 2025 को सुनवाई हुई। अपीलकर्ता रवि शंकर ने आयोग से अनुरोध किया कि यदि जनसूचना अधिकारी साक्ष्य सहित उत्तर नहीं देते, तो उन पर RTI अधिनियम की धारा 20(1) व 20(2) के तहत दंड लगाया जाए।

लेकिन 17 अक्तूबर 2025 को सूचना आयुक्त राकेश कुमार ने आदेश पारित करते हुए अपील को यह कहकर निस्तारित कर दिया किअपीलकर्ता द्वारा अत्यधिक संख्या में आवेदन प्रस्तुत किए जाने से सिस्टम पर भार पड़ा है।”

इस एक पंक्ति ने पूरे आरटीआई तंत्र की आत्मा को झकझोर दिया। क्या नागरिकों का अधिकार 'सवाल पूछना' अब सिस्टम के लिए बोझ बन गया है?

आरोप और अपीलकर्ता का पक्ष

रवि शंकर का आरोप है कि यह आदेश न केवल उनके साथ अन्याय है बल्कि यह पूरे RTI सिस्टम की ‘हत्या’ है। उनके शब्दों में,मैंने केवल चार बिंदुओं की सूचना माँगी थी। आयुक्त राकेश कुमार ने मेरी बात सुने बिना मुझे अपमानित किया और कहा कि मैं सिस्टम पर भार हूँ। क्या अब नागरिकों को सवाल पूछने का भी अधिकार नहीं रहा?”

रवि शंकर का कहना है कि राकेश कुमार सुनवाई के दौरान अक्सर अपीलकर्ताओं को ‘डाँटते’ हैं, ‘धमकाते’ हैं, और सरकारी अधिकारियों के प्रति स्पष्ट पक्षपात दिखाते हैं।

RTI कानून की दृष्टि से यह मामला क्यों गंभीर है?

सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005, केवल एक प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं बल्कि नागरिक अधिकार का संवैधानिक विस्तार है। इस कानून की तीन मुख्य धाराएं इस मामले में सीधे लागू होती हैं:

1. धारा 7(1) जनसूचना अधिकारी को 30 दिनों के भीतर सूचना देना अनिवार्य है।

2. धारा 18(1)(ङ) यदि सूचना अधूरी, भ्रामक या तथ्यहीन दी जाती है, तो शिकायत दर्ज की जा सकती है।

3. धारा 20(1) व 20(2) यदि अधिकारी जानबूझकर सूचना रोकता है, तो उस पर आर्थिक दंड (₹25,000 तक) और अनुशासनात्मक कार्रवाई संभव है।

लेकिन राकेश कुमार के आदेश में इन सभी प्रावधानों को दरकिनार किया गया। न जनसूचना अधिकारी पर दंड, न सूचना उपलब्ध कराने का निर्देश, सिर्फ ‘सिस्टम थक गया’ का बहाना।

राकेश कुमार की भूमिका पर पुराने विवाद

यह पहली बार नहीं है जब राकेश कुमार की कार्यशैली पर सवाल उठे हों। आयोग के अंदरूनी सूत्रों और पूर्व अपीलकर्ताओं के अनुसार, राकेश कुमार का पूरा कार्यकाल 'सिस्टमिक डिफेंसिज्म' का प्रतीक रहा है, यानी सरकारी अधिकारियों की रक्षा और नागरिकों की आवाज़ को कमजोर करना।

कई बार वे अपीलों को यह कहकर खारिज कर चुके हैं कि “अत्यधिक आवेदन सिस्टम पर भार डालते हैं।”

कई अपीलकर्ताओं ने उनके खिलाफ 'लानत पत्र' तक भेजे हैं, परंतु विभागीय स्तर पर कोई कार्रवाई नहीं हुई।

सूत्र बताते हैं कि राकेश कुमार पहले अपने ही विभाग में सचिव/मुख्य सूचना अधिकारी रह चुके हैं, जिससे उनका नौकरशाही तंत्र से गहरा रिश्ता है। शायद यही कारण है कि वे सरकारी अधिकारियों के प्रति अत्यधिक सहानुभूति रखते हैं, और अपीलकर्ताओं को ‘संदेह की दृष्टि’ से देखते हैं।

जब आयोग ‘पारदर्शिता आयोग’ से ‘पक्षपात आयोग’ बन जाए

राकेश कुमार का आदेश इस बात का प्रतीक है कि राज्य सूचना आयोग अब जनहित के बजाय शासनहित की रक्षा करने लगा है।

‘सिस्टम पर भार’ जैसे तर्क आरटीआई अधिनियम में कहीं नहीं हैं। यह महज एक प्रशासनिक बहाना है ताकि सूचना देने से बचा जा सके।

जागो टीवी की जाँच में पता चला कि कई मामलों में आयोग ने सूचना उपलब्ध कराने के निर्देश के बाद भी अंतिम आदेश में वही अपील ‘निस्तारित’ कर दी, यानी बिना कोई सूचना दिलवाए, मामला समाप्त।

कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि यह न केवल धारा 19(8) के उल्लंघन के समान है, बल्कि यह नागरिक अधिकारों की खुली अवहेलना है।

सूचना आयुक्त की मनमानी: ‘नियमावली का हथियार’

सूत्रों के अनुसार, राकेश कुमार लगातार उत्तर प्रदेश सूचना का अधिकार नियमावली, 2015 और 2019 का हवाला देकर अपीलों को खारिज करते हैं। पर असल में ये नियमावली सूचना अधिनियम के ऊपर नहीं हैं, ये केवल प्रशासनिक दिशा-निर्देश हैं।

फिर भी, राकेश कुमार इन्हें 'कानूनी ढाल' बनाकर नागरिकों को सूचना से वंचित करते हैं।

कानूनी भाषा में यह ‘अधिनियम की अवहेलना’ है, लेकिन आयोग के भीतर यह एक सामान्य प्रथा बन चुकी है।

अपीलकर्ता का अनुभव: “सुनवाई नहीं, फटकार मिली”

अपीलार्थी रवि शंकर 25 सितंबर की सुनवाई में सूचना आयुक्त राकेश कुमार बताते हैं कि पिछले तीन वर्षों से सूचना आयोग में धारा-18 अंतर्गत लंबित शिकायत में जनसूचना अधिकारी अपर जिलाधिकारी (वित्त एवं राजस्व) ही थे। और इस द्वितीय अपील में दिनांक 25 अप्रैल 2025 एवं इससे पूर्व भी नोटिसें इन्हीं के नाम जारी की जाती रही हैं। बावजूद इसके, राज्य सूचना आयुक्त राकेश कुमार और उपस्थित प्रतिनिधि के बीच मिलीभगत से दिनांक 26 जून 2025 को अवैध रूप से अपर नगर मजिस्ट्रेट (प्रथम) जो ‘कूटरचित जवाब देने में माहिर’ है और इसी के माध्यम से असंवैधानिक रूप से एक फर्जी पत्र लेकर अपील का निस्तारण कर दिया गया। उन्होंने कहा कि यह पूरा कृत्य विधि-विरुद्ध था, जिसका उद्देश्य केवल अपीलकर्ता को अपमानित करना और मामले को जबरन समाप्त करना था।

आगे अपीलार्थी रवि शंकर कहते हैं कि सूचना आयुक्त राकेश कुमार अवैध रूप से जनसूचना अधिकारी (PIO) अपर जिलाधिकारी (वित्त एवं राजस्व) के स्थान पर अपर नगर मजिस्ट्रेट (प्रथम) द्वारा जवाब देने के विरुद्ध मेरे आपत्ति पर भी कोई कार्यवाही नहीं करते हैं। 

जब सूचना देने से डरने लगे अधिकारी

सूचना आयुक्तों की ऐसी प्रवृत्ति का एक और दुष्परिणाम यह है कि जनसूचना अधिकारी अब और अधिक लापरवाह हो गए हैं।

वे जानते हैं कि आयोग में जाकर भी अपीलकर्ता को न्याय नहीं मिलेगा, तो वे सूचना देने की जहमत नहीं उठाते।

यानी राकेश कुमार जैसे आयुक्त भ्रष्ट तंत्र के लिए सुरक्षा कवच बन गए हैं।

RTI का पतन: सिस्टमिक लक्षण

1. आयोगों में सुनवाई की संख्या घट रही है।

2. अपीलें लंबित हैं, पर आदेश औपचारिक हैं।

3. अधिकतर अपीलें ‘निस्तारित’ शब्द में दफन हो रही हैं।

4. अधिकारी जवाबदेह नहीं, नागरिक हताश।

यह वही भारत है जहाँ 2005 में कहा गया था, “Information is Power”.

आज 2025 में नागरिक पूछ रहा है, “क्या सूचना माँगना गुनाह है?”

जवाबदेही से भागता उत्तर प्रदेश का राज्य सूचना आयोग

राकेश कुमार का मामला किसी एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि उस मानसिकता का प्रतिनिधित्व करता है जो ‘सिस्टम को बचाने’ के नाम पर लोकतंत्र को कमजोर कर रही है।

जब एक सूचना आयुक्त स्वयं कहता है कि ‘सिस्टम थक गया’, तो यह स्वीकारोक्ति है कि सिस्टम जवाबदेही से भाग रहा है।

यह बयान दरअसल एक नैतिक दिवालियापन की गवाही है, एक ऐसा आयोग, जो नागरिकों की आवाज़ बनने के बजाय सत्ता का मुखपत्र बन चुका है।

अब जवाब कौन देगा?

अब सवाल है

क्या राज्यपाल, जो आयोग की नियुक्ति प्रक्रिया के संरक्षक हैं, इस पर ध्यान देंगे?

क्या मुख्यमंत्री कार्यालय ऐसी शिकायतों पर कार्रवाई करेगा?

क्या लोकायुक्त या सतर्कता विभाग इन ‘संविधानिक पतन’ की जाँच करेगा?

जनता जानना चाहती है कि

क्या राकेश कुमार जैसे अधिकारी RTI की आत्मा को मारकर भी ‘सेवा’ कहलाएँगे?

या यह देश अब चुपचाप देखता रहेगा कि सूचना का अधिकार धीरे-धीरे दफनाया जा रहा है?

न्यायिक विशेषज्ञों की राय

इलाहाबाद हाईकोर्ट के अधिवक्ता विष्णुकांत तिवारी का कहना है,यदि कोई आयुक्त नागरिक को ‘सिस्टम पर बोझ’ कहे, तो यह उनके संवैधानिक कर्तव्य का उल्लंघन है। आयोग को चाहिए कि वह न केवल आदेश वापस ले, बल्कि उस आयुक्त की जवाबदेही तय करे।”

राकेश कुमार का यह आदेश केवल एक अपील का निस्तारण नहीं, बल्कि नागरिक अधिकारों का शोषण है।

RTI का उद्देश्य ‘भ्रष्टाचार रोकना’ था, लेकिन उत्तर प्रदेश में यह ‘भ्रष्टाचार को वैध ठहराने’ का साधन बन गया है।

अगर ऐसे आयुक्तों पर अंकुश नहीं लगाया गया, तो आने वाले वर्षों में RTI सिर्फ फाइलों में बची एक स्मृति बन जाएगी।

आज सबसे बड़ा प्रश्न यही है, क्या राकेश कुमार जैसे आयुक्त लोकतंत्र के प्रहरी हैं, या उसी व्यवस्था के ठेकेदार जो जवाबदेही से डरती है?”

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सुशील कुमार पाण्डेय मैं, अपने देश का एक जिम्मेदार नागरिक बनने की यात्रा पर हूँ, यही मेरी पहचान है I