लोकतंत्र के रास्ते आती तानाशाही: एक अदृश्य खतरा

लोकतंत्र, जिसे जनता की, जनता द्वारा, जनता के लिए शासन की सबसे पारदर्शी व्यवस्था माना जाता है, आज एक नए खतरे का सामना कर रही है-एक ऐसी तानाशाही जो खुले तौर पर नहीं, बल्कि लोकतंत्र के रास्ते चुपके-चुपके आ रही है। यह खतरा इसलिए और गंभीर है, क्योंकि यह लोगों की दोनों आँखें सही होने पर भी दिखाई नहीं दे रही है, पर इसका असर समाज के हर हिस्से पर पड़ रहा है।

Apr 9, 2025 - 10:45
Apr 16, 2025 - 09:17
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लोकतंत्र के रास्ते आती तानाशाही: एक अदृश्य खतरा
लोकतंत्र के रास्ते आती तानाशाही

लोकतंत्र, जिसे जनता की, जनता द्वारा, जनता के लिए शासन की सबसे पारदर्शी व्यवस्था माना जाता है, आज एक नए खतरे का सामना कर रही है-एक ऐसी तानाशाही जो खुले तौर पर नहीं, बल्कि लोकतंत्र के रास्ते चुपके-चुपके आ रही है। यह खतरा इसलिए और गंभीर है, क्योंकि यह लोगों की दोनों आँखें सही होने पर भी दिखाई नहीं दे रही है, पर इसका असर समाज के हर हिस्से पर पड़ रहा है।

लोकतंत्र की आत्मा स्वतंत्रता, समानता और जवाबदेही में निहित है, लेकिन जब ये मूल्य खोखले होने लगते हैं, तब लोकतंत्र केवल एक खोल बनकर रह जाता है। आज हम देख रहे हैं कि कई बार लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं संसद, मीडिया, पुलिस, विधि के निदेशों को धता बताकर या इनका अनुचित उपयोग करके लोकतंत्र को कमजोर किया जा रहा है। सत्ता का केंद्रीकरण, संस्थाओं का दुरुपयोग, और जनता की आवाज को दबाने की कोशिशें इस अदृश्य तानाशाही के लक्षण हैं।

उदाहरण के लिए, जब स्वतंत्र मीडिया को नियंत्रित किया जाता है या उसे सत्ता के पक्ष में झुकने के लिए मजबूर किया जाता है, तो जनता तक सत्य पहुँचने का रास्ता बंद हो जाता है। जब न्यायपालिका या चुनाव आयोग जैसे संस्थानों पर दबाव बनाया जाता है, तो लोकतंत्र का संतुलन बिगड़ता है। जब असहमति को देशद्रोह का नाम देकर कुचला जाता है, हत्या करवा दी जाती है, साजिश रच करके झूठे बनाए गए केसों में नाम जोड़कर जेल में डाल दिया जाता है तो लोकतंत्र की आत्मा घायल होती है। ये सब संकेत हैं कि तानाशाही, लोकतंत्र के कपड़े पहनकर, धीरे-धीरे हमारे बीच जगह बना रही है।

यह खतरा इसलिए और चिंताजनक है, क्योंकि यह जनता की सहमति से पनपता है। भय, विभाजन, और झूठे वादों के जरिए जनता को यह विश्वास दिलाया जाता है कि सत्ता का केंद्रीकरण उनके हित में है। लोकलुभावन नारे और भावनात्मक मुद्दे जनता का ध्यान बुनियादी समस्याओं से हटाकर सत्ता को और मजबूत करने का काम करते हैं।

तो क्या इसका कोई समाधान है? हाँ, है। लोकतंत्र को बचाने की जिम्मेदारी हर नागरिक की है। जागरूकता, शिक्षा, और संगठन के जरिए जनता को इस अदृश्य खतरे को पहचानना होगा। स्वतंत्र संस्थाओं को मजबूत करना, मीडिया की स्वायत्तता को बढ़ावा देना, और असहमति के लिए सुरक्षित स्थान बनाना जरूरी है। सबसे बढ़कर, हमें यह समझना होगा कि लोकतंत्र केवल वोट डालने तक सीमित नहीं है यह एक सतत प्रक्रिया है, जिसमें हर दिन हिस्सा लेना पड़ता है।

यह समय है सावधान होने का। लोकतंत्र के रास्ते आ रही तानाशाही को रोकने के लिए हमें आज ही कदम उठाने होंगे, वरना वह दिन दूर नहीं जब लोकतंत्र केवल नाम का रह जाएगा।



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सुशील कुमार पाण्डेय मैं, अपने देश का एक जिम्मेदार नागरिक बनने की यात्रा पर हूँ, यही मेरी पहचान है I