अजहर की रौशनी दिखाएगी राह
प्रताप सहगल

आप एक पेड़ की कल्पना कीजिए
उस पेड़ पर स्वयं नटराज ने
रंग, ताल, भाव और रस के पत्ते उगा दिए हों
अलग-अलग रंगों के पत्ते
प्यार और मनुहार की फुहारें सींचती हों वे पत्ते
बहुत लोगों को छाया देता हो वह पेड़
कुछ कोयलें, कुछ गिलहरियाँ
मधुर तानें और रंग-भरी चंचलता का कब्जा हो जिस पेड़ पर
जिस पेड़ की जड़ों में मनुष्यता हो
और हो अनुशासन-बद्ध एक प्यार भरा तना
विनम्रता और कठोरता का एक अदभुत संगम हो जिस पेड़ में
उस पेड़ का नाम अजहर आलम है।
अजहर आलम के बारे में बहुत बार सोचता हूँ। अब तो एक अरसा बीत गया है उस पेड़ को देखे हुए। भले ही जिस्मानी तौर पर अनुपस्थित हो गया है लेकिन मन में अब भी कहीं जमा हुआ है वह पेड़। अजहर आलम मेरे लिए मात्र एक संज्ञा नहींं, एक विशेषण भी नहींं बल्कि मनुष्यता का व्याकरण है। एक अच्छा रंगकर्मी होना, एक अच्छा साहित्यकार होना या एक अच्छा वैज्ञानिक होना बहुत लोगों के नसीब में होता है, लेकिन इस सबके साथ एक अच्छा मनुष्य होना सबके नसीब में नहीं होता।
मुझे हैरानी होती है कई बार, जब मैं अजहर आलम के बारे में सोचता हूँ। बहुत लंबा संबंध नहींं था मेरा अजहर से। लेकिन संबंध लंबा हो और हमेशा औपचारिक ही रहे तो उससे अच्छा है वह संबंध जिसकी अवधि भले ही छोटी हो, लेकिन उसमें औपचारिकता की सीमाएँ टूटी हों। ऊष्मा रहित लंबे संबंध से बेहतर है, ऊष्मा से भरा वह संबंध, जिसकी उम्र छोटी हो। मेरा और अजहर का संबंध अभी भी अपरिभाषित है, लेकिन वह ऐसा क्या है जो मुझे बार-बार उसके करीब ले जाता है। उसकी अनुपस्थिति में भी मैं उसकी उपस्थिति महसूस करता हूँ।
अजहर से मेरी मुलाकात सीधे नहीं हुई। पहले उसका नाम आए मेरे सामने। उसके रंगकर्म से थोड़ा-बहुत वाकिफ़ था, लिटिल थेस्पियन की रंगमयी उपस्थिति से भी थोड़ा-बहुत परिचित था, लेकिन इस व्यक्तित्व की गहराई और ऊँचाई के आएम मेरे सामने तब खुलने लगे, जब हम लोग सीधे संपर्क में आए।
अजहर से पहले मेरी मुलाकात उमा से हुई। उमा यानी उमा झुनझुनवाला। जब वह मिली, वो हमारे लिए उमा झुनझुनवाला ही थी, लेकिन पहली ही मुलाकात के बाद वह मेरे और शशि के लिए सिर्फ उमा हो गई। शशि को तो उसने पहले ही दिन से अम्मा कहना शुरू कर दिया, लेकिन मैं शुरू दिन से उसके लिए सर था और आज भी सर ही हूँ। कहा न, कुछ संबंधों को नाम देना बहुत कठिन होता है। उमा से हमारी पहली मुलाकात गुवाहाटी में हुई थी। यह एक आकस्मिक मुलाकात थी। फिल्म की किसी कहानी की तरह। लिफ्ट में मुलाकात और फिर उमा होटल के हमारे कमरे में ही चली आई। वह एक ऐसी शाम थी, जहाँ हमें पता चला कि उमा न केवल एक रंगकर्मी बल्कि एक अच्छी कवि भी हैं। कहानीकार भी है। उसी से हमें पता चला कि वह और अजहर पति-पत्नी हैं और मिलकर लिटिल थेस्पियन चला रहे हैं। अब तो तीन दशक होने वाले हैं, लेकिन अफसोस कि इस यात्रा में लिटिल थेस्पियन का एक मजबूत स्तंभ समय से पहले ही गिर गया। हा! कोविड।
नोवोटेल होटल के इसी कमरे में शशि पहली ही मुलाकात में उमा के लिए अम्मा हो गई और उमा झुनझुनवाला हमारे लिए सिर्फ उमा। उमा के माध्यम से ही हमारा संपर्क अजहर से हुआ। उमा की एक किताब आई थी 'एक औरत की डायरी'। तमाम डायरियों से अलग है यह डायरी। इस डायरी की भूमिका लिखने का अवसर मुझे मिला। मैं स्वयं को प्रिवेलैज्ड मानता हूँ कि प्रकाशन से पहले ही इस ऑफ-बीट डायरी को मैंने पढ़ा। इसी डायरी का लोकार्पण समारोह था कोलकाता में। उमा ने हमें आमंत्रित किया तो न करने का कोई कारण ही नहीं था हमारे पास।
हम लोग कोलकाता हवाई अड्डे पर उतरे ही थे कि मेरा मोबाइल बजने लगा- 'सर मैं अजहर बोल रहा हूँ' बहुत ही नरम और स्नेह-सिक्त आवाज मुझे सुनाई दी। 'कहाँ हैं आप?' मैंने पूछा। उन्होंने गेट नंबर बताया। हम उसी गेट से बाहर निकले। इससे पहले हम लोग कभी मिले ही नहीं थे तो एक-दूसरे को पहचानने का कोई प्रश्न ही नहीं था। इस बार मैंने फोन मिलाया। मुझे दूर से ही एक नौजवान अपना फोन उठाता दिखाई दिया। मैंने हाथ हिलाया, उसने भी हाथ हिलाया। हम लोग जोश भरे अंदाज से मिले। एक सुंदर सा नौजवान मेरे सामने था। उसने हमारे हाथ से सामान की ट्राली पकड़ ली और एक जगह ले जाकर खड़ा करके कहाँ-'आप यहीं रुकिए, मैं गाड़ी लेकर आता हूँ'।
गाड़ी कोलकाता की सड़कों पर तेज दौड़ रही थी। दिल्ली के मुकाबले ट्रैफिक बहुत कम था। मैंने ही बात शुरू की- 'यहाँ तो साँस आ रही है, दिल्ली में तो ट्रैफिक का बुरा हाल है।'
''हाँ, आने में कोई दिक्कत तो नहीं हुई।'' अजहर हाँ या हूँ बहुत धीरे बोलता था। मुझे लगा कि वह बात करने में थोड़ा झिझक रहा है। तब हमने उमा की बातें, ममता बनर्जी और राजनीति की बातें, कुछ रंगकर्म की बातें शुरू कीं। अजहर अभी भी कम बोल रहा था। मुझे लगा कि वह ड्राइव कर रहा है, इसलिए कम बोल रहा है, लेकिन कोलकाता में दो दिन रहने के बाद पता चला कि वह कम ही बोलता है। उसके मुकाबले उमा कहीं ज्यादा बोलती हैं। यानी पहली मुलाकात में जिस तरह से उमा के और हमारे बीच औपचारिकता कुछ ही क्षणों में ढह गई थी, ठीक उसके विपरीत होटल पहुँचने तक के लगभग डेढ़ घंटे के सफर में भी हमारी औपचारिकता बनी रही। मन ही मन सोच रहा था कि इस आदमी के संकोच के तोड़ने के लिए आज शाम को ही बैठना पड़ेगा। और वही हुआ। पुस्तक पर तो कार्यक्रम अगले दिन था। शाम को अजहर और उमा दोनों होटल के कमरे में आ गए।
मैंने अजहर से पूछा- ''ले लेतो हो न'' उसकी आँखों और होठों पर मुस्कुराहट एक साथ तैर गई तो उसने 'हाँ' ऐसे की कि हाँ लेता तो नहीं, लेकिन ले भी ले लेता हूँ। वह लगातार उमा की ओर देख रहा था। संभवत: वह उमा की स्वीकृति चाहता था। उमा ने भी पहले हाई ब्लड प्रैशर का बहाना बनाकर बात टालने की नाटक की चर्चा भी बहुत सुनी थी। उसका मानना था कि क्योंकि उसने इस नाटक का कोई भी मंचन नहीं देखा, इसलिए वह इसे बिलकुल अलग तरह से करेगा। वह बोलता जितना कम था, उसकी आँखें उतना ही ज्यादा बोलती थीं। शाम को हम लोग फिर होटल के कमरे में बैठे। अगली सुबह हमारी लौटवाँ फ्लाईट थी। रात को मेरी तबीयत कुछ खराब हो गई। सोचा कि जाना मुल्तवी कर देते हैं। सुबह-सुबह उमा और अजहर दोनों आ गए, क्योंकि उन्हें हमें एयरपोर्ट छोड़ने जाना था। जब उन्हें मेरी तबियत का पता चला तो दोनों ने ही प्यार भरी झिड़की दी कि हमने रात को ही उन्हें फोन क्यों नहीं किया। सचमुच मेरी हालत 'टू बी आर नाट टू बी' वाली हो रही थी। अजहर ने पहले डॉक्टर के पास ले जाना चाहा। सोचने लगा कि इतनी सुबह कौन सा डॉक्टर उपलब्ध होगा। मैं, टू बी आर नाट टू बी के झूले में झूल रहा था। अजहर के चेहरे पर तैरती परेशानी भी देख रहा था। मैंने अंतत: टू बी के पक्ष में फैसला किया और अपनी समझ से दवा लेकर चल निकला।
एयरपोर्ट पहुँचकर व्हील-चेयर की व्यवस्था के लिए इधर उमा, उधर अजहर और तीसरी ओर शशि भाग रहे थे। व्यवस्था हुई और हम दोनों ने उन दोनों से विदा ली। उन दोनों के चेहरों पर परेशानी के बादल अभी भी तैर रहे थे। वो सफर कैसा कटा। इसकी भी एक कहानी, लेकिन वह कहानी यहाँ नहीं, कहीं और। दूसरी बार एक दिन उमा का फोन आए कि अजहर दिल्ली में है और वह श्रीराम सेंटर की रिपर्टरी के साथ नाटक 'मीर जाफ़र' के निर्देशन में जुटा हुआ है। मुझे गुस्सा भी आए और नाराज़गी भी हुई कि दिल्ली में होने के बावजूद अजहर मुझसे मिलने नहीं आए। मैंने उसे खूब डाँटने के लिए फोन किया। लेकिन, फोन पर भी उसका मुस्कुराता हुआ चेहरा मेरे सामने आ गया और मैंने उसे प्यार से झिड़क दिया। जब उमा को इस बात का पता चला तो उसकी प्रतिक्रिया थी-''अच्छा किया मैंने उसे कहकर भेजा था कि सर और अम्मा से बात कर लेना, उनसे मिलकर आना।'' अजहर का यह संकोच ही उसके प्रति मन में स्नेह जगा देता था। अभी भी लिखते हुए उसका मुस्कुराता हुआ चेहरा मेरे सामने घूम रहा है। पूछ रहा है कि क्या लिख पाओगे कि मेरे मन में क्या-क्या था। क्या-क्या करना था मुझे। जानता हूँ कि अजहर की प्रतिभा के विभिन्न आएमों की संभावनाएँ अभी भी पूरी तरह से खुली नहीं थीं। वह बीच राह में ही कहीं गायब हो गया। अजहर प्यारे, ऐसे भी कोई गायब होता है क्या?
इस बार दिल्ली में अजहर अकेला था। सुबह से शाम तक रिहर्सल में मसरूफ़। उसी से पता चला कि आजकल रिपर्टरी के मुखिया के रूप में अयाज ख़ान की नियुक्ति हुई है। यह जानकर बहुत अच्छा लगा और अयाज पर थोड़ा रंज हुआ कि उसने भी बताया नहीं। अगली शाम अजहर हमारे घर आए। इधर वह मीर जाफ़र की तैयारी में जुटा था लेकिन उन दिनों वह रूहें नाटक की तैयारी भी कर रहा था। अपने बारे में थोड़ा और खुला। आज उमा भी नहीं थी टोकने के लिए और उसने अपने मन से जी भरकर हमारे साथ रसरंजन किया। हमने या तो थियेटर और नाटकों की बातें कीं या फिर घर-परिवार की।
कोविड के बढ़ने की खबरें आने लगी थीं और अन्य सभी गतिविधियों के साथ-साथ थियेटर की गतिविधियों पर भी कोविड के बादल मँडराने लगे थे। एक अनिश्चितता का माहौल बना हुआ था। मेरे मन में उत्साह सा था कि मुझे पहली बार अजहर द्वारा एक निर्देशित नाटक देखने का अवसर मिलेगा। कोविड का दुष्चक्र बहुत तेजी से घूम रहा था। अंतत: मीर जाफ़र की पहली प्रस्तुति को भी ग्रहण लग गया। ऐसा ग्रहण, जो आज तक भी लगा हुआ है। यह हाल तो सभी का हो रहा है। अजहर कोई अपवाद नहीं था, लेकिन अजहर के निर्देशकीय कौशल को देखने का मौका मेरे हाथ से जाता रहा। इस बीच उमा भी दिल्ली आ गई थी। उन्हें कोलकाता लौटना था। उमा और अजहर इस बार दोनों साथ ही थे, हमारे घर आए। खूब चर्चाएँ, ढेर सारी बातें, कुछ कविताएँ। उमा और अजहर ने कुछ सुनाने को कहाँ तो जाने कैसे मेरे मन में आए कि एक पुराना गीत सुनाता हूँ। हम लोग छत पर आ गए। रात स्याह थी। मौसम सुहावना था। मैंने अपने एक पुराने गीत का मुखड़ा सुनाया ''दुनिया ने ठुकराया मुझको, नहीं बताया किसी से मैंने। मगर तुम्हारी इक ठोकर ने मेरे अधरों को खोला है'' अजहर रिकार्ड कर रहा था। अंतरा भी सुनाया और फिर गप्पें लगाने लगे थे। काश! फिर कभी आ सकती ऐसी ही कोई शाम। अब नहीं होगा ऐसा कभी नहींं।
अगली बार अजहर से हमारी मुलाकात फिर दिल्ली में ही हुई। इस बार उसे अपने नए नाटक 'रूहें' के लिए नेमिचंद्र जैन सम्मान मिला था। उससे एक शाम पहले अजहर हमारे साथ हमारे घर पर ही था। उसने अपना नया नाटक 'चाक' सुनाया। एकदम नया विषय। मुझे नाटक बहुत अच्छा लगा, लेकिन वह अभी उसपर और काम करना चाहता था। वह जानता था कि मंचन की तैयारी करते हुए उसमें कुछ तब्दीलियाँ जरूर होंगी। इस नाटक पर मैंने अलग से कुछ लिखा भी है जो इस नाटक की भूमिका के रूप में प्रकाशित है। अगली शाम उसे सम्मान मिला। रूहें नाटक का अभिनयात्मक मंचन भी हुआ। नाटक ने प्रभावित किया, लेकिन अजहर का कहना था कि आप हमारा मंचन देखिएगा। वह भी मैं नहीं देख सका।
मार्च, 2020 में उमा ने पश्चिम बंग हिंदी अकादमी की ओर से एक बड़ा आऐजन किया। यह एक जोखिम भरा काम था। कोविड की दूसरी लहर बढ़ने लगी थी। कोलकाता में ही हम लोग गए। दो दिन का सेमिनार। बहुत कामयाब सेमिनार था। उमा सारी चिंताओं को अपने में समेटे काम किए जा रही थी। अजहर का सहयोग पार्श्व से था। तीन दिन का नाट्य-समारोह। इसी में मेरे नाटक 'अन्वेषक' की प्रस्तुति भी हुई। श्रीराम सेंटर रिपर्टरी ने अयाज ख़ान के निर्देशन में यह प्रस्तुति की थी। मैं भी पहली बार यह प्रस्तुति देख रहा था। अयाज ने ही इससे पहले ग्वालियर में इसी नाटक का मंचन किया था। मुझे लग रहा था कि वह मंचन इस मंचन से बेहतर था। अजहर खामोश था। वह अन्वेषक का आलेख मेरे मुख से ही सुन चुका था। कुछ दृश्यों के बारे में वह अपनी राय भी दे रहा था। लेकिन उस नाटक की अगली कोई प्रस्तुति तो उसके बाद अभी तक नहीं हो सकी। दिल्ली छोड़ने से पहले मैंने अपने नए नाटक 'बुल्लेशाह' का आलेख अजहर और उमा के लिए मेल कर दिया था। अजहर वह नाटक पढ़ भी चुका था। उसने जब मुझसे मंचन के बारे में पूछा तो मैंने बताया कि दिल्ली में रवि तनेजा, सतीश आनंद तथा अन्य कुछ निर्देशक भी इसका मंचन करना चाहते हैं। वह छूटते ही अधिकार और गर्व से बोला था ''कोलकाता में तो मैं ही करूँगा, आप देखिएगा हमारी प्रोडक्शन।'' बताओ अजहर अब कहाँ देखूँ तुम्हारी वह प्रोडक्शन। मैं जान रहा था कि उसके ज़हन में 'बुल्लेशाह' कल्पित हो चुका है। बस समय की बात है।
उस समय पश्चिम बंगाल विधानसभा के चुनाव होने वाले थे। खूब गहमागहमी थी। रैलियों में कोविड नियमों एवं बंधनों की खूब धज्जियाँ उड़ाई जा रही थीं। उसकी चर्चा फिर कभी। हम लोग सकुशल लौट आए। उसके बाद मार्च में ही लिटिल थेस्पियन का भी एक थियेटर समारोह हुआ। शायद यही कारण बना या कुछ और, कहना मुश्किल है। पता चला उमा और अजहर दोनों कोविड के शिकार हो गए। उनके बच्चे आदिल और गुंजन भी इस महामारी की चपेट में आ गए थे। दिल्ली से ही बात होती थी। हम भी इधर यही सब भुगत रहे थे। हमारा संवाद होता रहा। बच्चे जल्दी ही इस बीमारी से बाहर आ गए। उमा और अजहर दोनों की तबीयत दिनोंदिन बिगड़ रही थी। यह ऐसा समय था जब कोई किसी के लिए सिवाय फोन पर हालचाल पूछने के और कुछ भी नहींं कर सकता था। उमा ने हिम्मत की, वह बच निकली। अजहर अभी भी अस्पताल में था। फोन पर लगातार बात होती रहती थी। उसकी खाँसी लगातार बढ़ रही थी। कोविड का वायरस उसके फेफड़ों में दाखिल हो चुका था, लड़ाई जारी थी। कोलकाता में अजहर और उमा के पास लिटिल थेस्पियन का एक बड़ा परिवार था, अब भी है। वे सभी लड़के-लड़कियाँ उमा और अजहर के साथ खड़े थे। हमारा नैतिक समर्थन भी लगातार मिल रहा था लेकिन एक दिन! अचानक फेसबुक पर एक छोटी सी पोस्ट 'अजहर नहीं रहे' ने दिल दहला दिया। मेरे बहुत से दोस्त छूटे। अजहर के इस तरह से चले जाने का दुख घनीभूत होकर मन पर कब्जा मारकर बैठ गया। अजहर के साथ गुजारे हुए कई पल याद आने लगे।
मुझे याद है पिछली बार जब हम लौटने वाले थे तो उसी दिन सुबह-सुबह अजहर गाड़ी लेकर हमारे होटल आ गया था। मैं, शशि और अजहर। मेरा मन था वे स्टुडियो देखने का, जिनसे फिल्म इंडस्ट्री की शुरुआत हुई थी। लोकप्रिय नाटकों के वे आज भी केंद्र हैं। पहले हम लोग मिनर्वा स्टुडियो गए। देखा, जाना और बहुत सारी जानकारी हासिल हुई। उसके बाद स्टार स्टुडियो और वहाँ पर रखा हुआ वह प्रोजेक्टर, जिसपर स्पूल चढ़ा-चढ़ाकर फिल्में दिखाई जाती थीं। वह दौर हमारा देखा हुआ है। अजहर एक मासूम बच्चे की तरह से हमें बहुत सारी जानकारियाँ देते हुए हमारे फोटो खींच रहा था। कितना सुखद लगता है उस क्षणों को सहेजना और कितना दुख देती है यह बात कि अब ऐसा क्षण पुन: नहीं लौटेगा। कम से कम अजहर के साथ तो बिलकुल नहीं। अजहर का कोई स्थानापन्न हो सकता है, इसकी भी कोई गुंजाइश मुझे दिखाई नहीं दिखती।
अजहर के काम का मूल्याँक्न होना अभी शेष है। अजहर के लगभग सभी मौलिक, रूपांतरित एवं अनूदित नाटक प्रकाशित होकर सामने आ चुके हैं। उसपर केंद्रित एक पुस्तक भी जल्दी ही आने की संभावना है। उसकी निर्देशकीय दृष्टि, उसका लेखकीय कौशल, उसकी अभिनय-क्षमता और रंगकर्म की गहरी समझ का रेखांकन होना अभी शेष है। शेष है यह देखना कि कोलकाता के माध्यम से उसने उर्दू और हिंदी रंगमंच के जो नए वातायन खोले, उनमें से हवाएँ कहाँ-कहाँ से आ रही हैं। जब भी कोलकाता के हिंदी एवं उर्दू रंगमंच का इतिहास लिखा जाएगा, वह अजहर और उमा के ज़िक्र के बिना और उनके काम को रेखांकित किए बिना अधूरा ही माना जाएगा।
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