"न्याय में भगवान देखें, हममें नहीं": सुप्रीम कोर्ट ने वकील को दी अहम नसीहत

सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को एक सुनवाई के दौरान अहम टिप्पणी करते हुए कहा कि लोगों को ईश्वर को जजों में नहीं, बल्कि न्याय में देखना चाहिए। जस्टिस एम.एम. सुंदरेश ने एक भावुक वकील को संबोधित करते हुए कहा कि "हम तो सिर्फ सेवक हैं, कृपया ईश्वर को हम में न तलाशें, न्याय में तलाशें।" यह टिप्पणी तब आई जब वकील ने कहा कि वे न्यायाधीशों में भगवान को देखते हैं। अदालत ने भावनात्मकता से बचने की सलाह देते हुए न्यायपालिका की भूमिका को स्पष्ट किया। इससे पहले, पूर्व CJI डी.वाई. चंद्रचूड़ ने भी ऐसी प्रवृत्ति को खतरनाक बताया था, जहां जजों को देवता के रूप में देखा जाता है।

Jul 5, 2025 - 07:44
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"न्याय में भगवान देखें, हममें नहीं": सुप्रीम कोर्ट ने वकील को दी अहम नसीहत
सर्वोच्च न्यायालय

नई दिल्ली, सुप्रीम कोर्ट: सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को एक अहम सुनवाई के दौरान एक वकील की भावनात्मक प्रतिक्रिया पर गहरी और विवेकपूर्ण टिप्पणी करते हुए न्यायिक मर्यादा और मूल्यों को लेकर स्पष्ट संदेश दिया। न्यायमूर्ति एम.एम. सुंदरेश ने कहा कि जजों को भगवान के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि ईश्वर को न्याय में तलाशा जाना चाहिए। उन्होंने कहा, "ईश्वर को हममें मत तलाशिए, ईश्वर को न्याय में तलाशिए। हम तो बस एक सेवक हैं।"

यह टिप्पणी उस समय आई जब एक वकील ने अदालत में कहा कि वे न्यायाधीशों को भगवान की तरह देखते हैं। यह बयान तब दिया गया जब वह एक मामले में अपने मुवक्किल की ओर से पेश नोटिस में की गई टिप्पणी पर प्रतिक्रिया दे रहे थे, जिसमें आरोप लगाया गया था कि "वकीलों ने जजों को फिक्स कर लिया है।" वकील ने इस नोटिस को अवमाननापूर्णकरार दिया और न्यायालय के प्रति श्रद्धा प्रकट करते हुए भावुक हो उठे।

इस पर जस्टिस सुंदरेश और जस्टिस के. विनोद चंद्रन की पीठ ने स्थिति को गंभीरता से लेते हुए वकील से कहा, “कृपया भावुक न हों। जज होने के नाते इस तरह की बातें हमें प्रभावित नहीं करतीं।

पीठ ने दो टूक कहा कि न्यायपालिका का कार्य न्याय करना है, न कि ईश्वर तुल्य आचरण करना या वैसी छवि बनाना। यह समझ आवश्यक है कि न्यायाधीश समाज के सेवक हैं, और उनकी भूमिका न्याय सुनिश्चित करने की है।

पूर्व CJI चंद्रचूड़ की चेतावनी

यह पहली बार नहीं है जब न्यायपालिका ने जजों को 'भगवान' कहे जाने पर आपत्ति जताई हो। इससे पहले भारत के निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश (CJI) डी.वाई. चंद्रचूड़ ने भी ऐसी प्रवृत्तियों को लेकर गहरी चिंता जताई थी। कोलकाता में राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी के एक सम्मेलन को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था: 'जब हमें 'लॉर्डशिप', 'लेडीशिप' या 'माननीय' कहकर पुकारा जाता है, तो यह सोचने की जरूरत है कि इससे क्या संदेश जा रहा है। अगर हम यह मानने लगें कि अदालत न्याय का मंदिर है और हम उसमें देवता हैं, तो यह बहुत गंभीर खतरा है।' उन्होंने आगे कहा था कि एक न्यायाधीश का असली कर्तव्य जनहित की सेवा करना है। न्यायालय में न्याय का होना जरूरी है, न कि उसमें देवत्व की कल्पना।

समाज के लिए संदेश

इस पूरी घटनाक्रम का मूल संदेश बहुत स्पष्ट है, न्यायपालिका का उद्देश्य न्याय सुनिश्चित करना है, न कि पूज्य भाव के पात्र बनना। जब समाज न्यायाधीशों को भगवान की तरह देखने लगता है, तो न्याय का मानवीय और संवैधानिक स्वरूप कहीं न कहीं धुंधला पड़ जाता है। जज भी इंसान होते हैं, वे भी गलतियों से अछूते नहीं होते, लेकिन उनका काम कानून और संविधान के अनुरूप निष्पक्ष निर्णय देना है। सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी न केवल उस वकील के प्रति एक संतुलित और संवेदनशील प्रतिक्रिया थी, बल्कि समाज और न्यायिक प्रणाली के लिए एक गहरा संदेश भी था। यह स्पष्ट किया गया कि न्यायपालिका 'सेवा का माध्यम' है, न कि 'भक्ति का केंद्र'

इस प्रसंग से यह भी सीख मिलती है कि न्याय के प्रति श्रद्धा जरूरी है, लेकिन अंधश्रद्धा और व्यक्तिपूजा से बचना भी उतना ही जरूरी है।

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सुशील कुमार पाण्डेय मैं, अपने देश का एक जिम्मेदार नागरिक बनने की यात्रा पर हूँ, यही मेरी पहचान है I