टाइपो पर एक महीना कैद: सुप्रीम कोर्ट की UP को फटकार, 5 लाख मुआवज़ा
जबरन धर्मांतरण कानून के एक आरोपी अफ़ताब की रिहाई एक मामूली टाइपिंग त्रुटि के कारण 28 दिन तक रोकी गई। सुप्रीम कोर्ट ने अप्रैल 2025 में जमानत दे दी थी, पर आदेश में Section 5(i) की जगह केवल Section 5 लिखा होने से जेल प्रशासन ने रिहाई रोक दी। जून 2025 में शीर्ष अदालत ने देरी पर कड़ी नाराज़गी जताते हुए यूपी सरकार को ₹5 लाख का अंतरिम मुआवज़ा देने और न्यायिक जिम्मेदारी तय करने का निर्देश दिया। 17 नवंबर को सुनवाई के दौरान जस्टिस जे.बी. पारडीवाला और जस्टिस के.वी. विश्वनाथन की बेंच ने जाँच रिपोर्ट पर भी असंतोष जताया।
नई दिल्ली, नवंबर 2025। उच्चतम न्यायालय में लंबित Aftab vs. State of Uttar Pradesh मामले में 17 नवंबर को एक महत्वपूर्ण सुनवाई हुई, जिसमें जमानत आदेश के क्रियान्वयन में देरी तथा जाँच रिपोर्ट की गुणवत्ता पर सुप्रीम कोर्ट ने अपनी कड़ी नाराज़गी दर्ज की।
मामला तब उठा जब बार एंड बेंच की रिपोर्ट के अनुसार, अफ़ताब जो उत्तर प्रदेश के Prohibition of Unlawful Conversion of Religion Act के तहत आरोपित थे, को 29 अप्रैल 2025 को सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिल गई थी। आदेश में Section 5(i) का उल्लेख होना चाहिए था, लेकिन कोर्ट के आदेश में गलती से केवल Section 5 लिख दिया गया। इसी छोटी सी त्रुटि को आधार बनाते हुए जेल अधिकारियों ने अफ़ताब की रिहाई पर रोक लगा दी और वह 27 मई 2025 तक जेल में ही बंद रहा।
जून 2025 में, सुप्रीम कोर्ट ने इस अनुचित और असंवैधानिक देरी पर कड़ा रुख अपनाया। अदालत ने इसे व्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार (Article 21) का गंभीर उल्लंघन बताते हुए उत्तर प्रदेश सरकार को ₹5 लाख का अंतरिम मुआवज़ा तुरंत देने का आदेश दिया। साथ ही, गाजियाबाद के जिला एवं सत्र न्यायाधीश को मामले की निगरानी और त्वरित कार्रवाई सुनिश्चित करने को कहा गया।
17 नवंबर की सुनवाई: जाँच रिपोर्ट पर सुप्रीम कोर्ट की नाराज़गी
मामला जब 17 नवंबर 2025 को जस्टिस जे.बी. पारडीवाला और जस्टिस के.वी. विश्वनाथन की दो-न्यायाधीशीय पीठ के समक्ष आया, तो कोर्ट ने राज्य सरकार की प्रस्तुत जाँच रिपोर्ट को अपर्याप्त, सतही और प्रक्रिया-विहीन बताते हुए कड़ी टिप्पणी की।
बेंच ने टिप्पणी की कि-
- “ऐसे मामलों में राज्य की जवाबदेही सर्वोपरि है। एक आदेश की टाइपिंग त्रुटि किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता छीनने का आधार नहीं बन सकती।”
- जेल प्रशासन और जिला प्रशासन द्वारा ‘अनावश्यक कठोरता’ के संकेत मिलने पर कोर्ट ने पूछा कि जिम्मेदार अधिकारियों पर क्या कार्रवाई प्रस्तावित है।
- अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि ऐसे मामलों में कानूनी कमियों को दूर करने की प्राथमिक जिम्मेदारी राज्य की होती है, न कि अभियुक्त की।
अदालत ने यूपी सरकार से विस्तृत जवाब और सुधारात्मक कदमों की रिपोर्ट कठोर समयसीमा के भीतर प्रस्तुत करने का निर्देश दिया।
मामले का व्यापक महत्व
यह मामला न्याय तंत्र की प्रक्रियात्मक संवेदनशीलता और नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा से जुड़ा एक महत्वपूर्ण उदाहरण बन गया है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा केवल टाइपो-आधारित रुकावट पर 5 लाख मुआवज़े का आदेश देना दर्शाता है कि अदालतें liberty jurisprudence पर शून्य-सहिष्णुता का रुख अपना रही हैं।
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