वीर सावरकर जयंती: राष्ट्रवाद, सामाजिक नवजागरण और विचारशीलता का प्रेरक पर्व
वीर सावरकर जयंती पर उनके क्रांतिकारी, सामाजिक, सांस्कृतिक और वैचारिक योगदान को रेखांकित करना जरूरी है। सावरकर का जीवन और विचार आज भी भारत के लिए प्रेरणा और दिशा का स्रोत है।

28 मई भारतीय इतिहास में एक ऐसे व्यक्तित्व की जयंती के रूप में दर्ज है, जिसने अपने विचार, साहस और कर्म से स्वतंत्रता आंदोलन को नई दिशा दी, वह हैं वीर विनायक दामोदर सावरकर। उनका जीवन बहुआयामी था। वे क्रांतिकारी, विचारक, समाज सुधारक, कवि, लेखक, इतिहासकार, ओजस्वी वक्ता और दूरदर्शी राजनेता थे। उनके समर्थक उन्हें ‘वीर सावरकर’ के नाम से संबोधित करते हैं, तो आलोचक भी उनकी वैचारिक दृढ़ता और निर्भीकता के कायल हैं।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
वीर सावरकर का जन्म 28 मई 1883 को महाराष्ट्र के नासिक जिले के भागुर गाँव में एक चितपावन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम दामोदर सावरकर और माता का नाम यशोदा सावरकर था। बाल्यकाल से ही उनमें नेतृत्व और विद्रोह की भावना थी। मात्र 16 वर्ष की आयु में उन्होंने 'मित्र मेला' नामक संगठन की स्थापना की, जिसे बाद में 'अभिनव भारत' नाम दिया गया। यह संगठन ब्रिटिश शासन के विरुद्ध क्रांतिकारी गतिविधियों का केंद्र बना।
पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज से स्नातक करने के बाद वे कानून की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड गए। वहां उन्होंने 'फ्री इंडिया सोसाइटी' की स्थापना की और भारतीय छात्रों को स्वतंत्रता संग्राम के लिए प्रेरित किया। इसी दौरान उन्होंने 'द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस' जैसी ऐतिहासिक पुस्तक भी लिखी, जो 1857 के विद्रोह की क्रांतिकारी व्याख्या थी।
क्रांतिकारी जीवन और सेल्युलर जेल
सावरकर के क्रांतिकारी विचारों और ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ उनकी गतिविधियों के चलते उन्हें गिरफ्तार किया गया और कुख्यात अंडमान की सेल्युलर जेल में दो-दो आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। जेल में उन्होंने अमानवीय यातनाएँ झेली, लेकिन उनका संकल्प नहीं टूटा। वहां भी उन्होंने साथी बंदियों में राष्ट्रवाद की चेतना जगाई और अनेक कविताएँ, लेख तथा विचार लिखे।
समाज सुधारक और विचारक
सावरकर केवल क्रांतिकारी ही नहीं, बल्कि गहरे विचारक और समाज सुधारक भी थे। उन्होंने अस्पृश्यता, जातिवाद, छुआछूत जैसी सामाजिक कुरीतियों का विरोध किया और पतितपावन मंदिर जैसे समरसता के प्रतीक स्थापित किए। उनका मानना था कि राष्ट्रनिर्माण केवल राजनीतिक स्वतंत्रता से नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता और सांस्कृतिक नवजागरण से भी संभव है।
हिंदुत्व और राष्ट्रवाद
सावरकर ने 'हिंदुत्व' की अवधारणा को परिभाषित किया, जिसमें उन्होंने भारतभूमि पर जन्मे सभी समुदायों के प्रति समरसता और राष्ट्रीयता का भाव रखा। उनके अनुसार, हिंदुत्व केवल धार्मिक विचार नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और राष्ट्रीय पहचान का प्रतीक है। वे कहते थे, “सभी राजनीति का हिंदूकरण करें और हिंदू धर्म का सैन्यीकरण करें।” उनका राष्ट्रवाद समावेशी था, जिसमें न्याय और समरसता का आग्रह था।
राजनीतिक जीवन और स्वतंत्रता के बाद
सावरकर 1937 से 1943 तक हिंदू महासभा के अध्यक्ष रहे और संगठन को नई दिशा दी। स्वतंत्रता के बाद भी वे राष्ट्रीय सुरक्षा, सीमाओं की रक्षा और सामाजिक एकता के पक्षधर रहे। उन्होंने कहा था कि राज्य की सीमाएँ केवल नक्शों से नहीं, बल्कि देश के युवाओं के शौर्य और बलिदान से तय होती हैं।
साहित्यिक योगदान
सावरकर ने 'हिंदुत्व', 'हिंदू-पद-पादशाही', 'द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस', 'हिंदुत्व दर्शन' जैसी कई महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखीं। उनकी रचनाएँ आज भी राष्ट्रवाद, सामाजिक सुधार और सांस्कृतिक चेतना के प्रेरक स्रोत हैं।
अंतिम समय और विरासत
26 फरवरी 1966 को मुंबई में उनका निधन हुआ। उन्होंने मृत्यु से पूर्व प्रायोपवेशन (मृत्युपर्यंत उपवास) का निर्णय लिया था, जो उनके आत्मसंयम और विचारशीलता का परिचायक है। आज भी सावरकर के विचार, उनका साहस और उनका राष्ट्रवाद भारतीय समाज के लिए प्रेरणा हैं।
वीर सावरकर का जीवन हमें सिखाता है कि राष्ट्रनिर्माण केवल राजनीतिक स्वतंत्रता से नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक नवजागरण से भी होता है। उनकी जयंती पर हमें संकल्प लेना चाहिए कि उनके विचारों को व्यवहार में उतारकर भारत को समरस, सशक्त और आत्मनिर्भर राष्ट्र बनाएँ ।
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