सुप्रीम कोर्ट का सख्त रुख: हाईकोर्ट आदेश अपलोड में देरी पर जांच के आदेश, अजय मैनी को अंतरिम राहत
सुप्रीम कोर्ट ने Ajay Maini बनाम State of Haryana (SLP (Crl.) Diary No. 45855/2025) मामले में पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट के आदेश अपलोड में असामान्य देरी पर गंभीर टिप्पणियाँ की हैं। अदालत ने पाया कि 31 जुलाई 2025 का आदेश 20 अगस्त तक वेबसाइट पर अपलोड नहीं हुआ और इस दौरान तकनीकी एवं प्रशासनिक स्तर पर लापरवाही बरती गई। कोर्ट ने इसे 'न्यायिक प्रक्रिया की पारदर्शिता पर प्रश्नचिह्न' मानते हुए हाईकोर्ट सचिवालय से पूरी जांच कराने और NIC रिकॉर्ड जब्त करने का निर्देश दिया। साथ ही, याचिकाकर्ता को जांच में सहयोग करने की शर्त पर गिरफ्तारी से अंतरिम राहत प्रदान की गई।

मामला FIR No.155/2025 से जुड़ा है, जो 06 मई 2025 को थाना डबुआ, फरीदाबाद (हरियाणा) में दर्ज हुई थी। याचिकाकर्ता अजय मैनी ने anticipatory bail (पूर्वग्रहण जमानत) की अर्जी पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट में दी थी। परंतु हाईकोर्ट ने 31 जुलाई 2025 को इसे खारिज कर दिया।
समस्या तब खड़ी हुई जब इस आदेश की कॉपी 20 अगस्त 2025 तक हाईकोर्ट की वेबसाइट पर अपलोड नहीं हुई। इसके चलते याचिकाकर्ता सुप्रीम कोर्ट पहुँचे और SLP दायर की।
सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही
मामला 20 अगस्त 2025 को सुप्रीम कोर्ट की बेंच न्यायमूर्ति जे.के. महेश्वरी और न्यायमूर्ति विजय बिश्नोई के समक्ष आया।
कोर्ट ने पाया कि आदेश की प्रतिलिपि उपलब्ध नहीं है और वेबसाइट पर भी नहीं डाली गई है। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने सीधे पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल से रिपोर्ट तलब की।
रिपोर्ट से निम्नलिखित तथ्य सामने आए-
1. 31 जुलाई 2025 का आदेश 20 अगस्त तक अपलोड नहीं हुआ।
2. रजिस्ट्रार जनरल ने केवल 22 अगस्त को जज के सचिव से स्पष्टीकरण माँगा।
3. सचिव ने जवाब दिया कि माननीय न्यायाधीश स्वास्थ्य कारणों (सर्जरी) से 1 अगस्त से 20 अगस्त तक अवकाश पर थे।
4. आदेश वास्तव में 31 जुलाई को पारित नहीं हुआ था, बल्कि बाद में टाइप और अपलोड किया गया।
5. यह तथ्य सचिव के उत्तर में स्पष्ट रूप से दर्ज नहीं किया गया।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियाँ
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को बेहद गंभीर माना और कई सख्त निर्देश दिए
हाईकोर्ट सचिव का स्टेनो बुक जब्त करने का आदेश।
आदेश कब टाइप हुआ और कब कंप्यूटर पर सही किया गया, इसका पता लगाने के लिए NIC (National Informatics Centre) से रिपोर्ट लेने का निर्देश।
पूरी प्रक्रिया पर डिस्क्रीट इंक्वायरी (गोपनीय जांच) कराने और शपथपत्र पर रिपोर्ट दाखिल करने का आदेश।
कोर्ट ने स्पष्ट कहा कि आदेश वास्तविक रूप से 31 जुलाई को पारित नहीं हुआ था और यह न्यायिक पारदर्शिता के खिलाफ है।
याचिकाकर्ता को अंतरिम राहत
सुप्रीम कोर्ट ने अजय मैनी को यह राहत दी कि "जाँच में सहयोग की शर्त पर उनके विरुद्ध कोई भी दमनात्मक/ coercive कदम न उठाया जाए।"
अर्थात, जब तक अगली सुनवाई नहीं होती, पुलिस उन्हें FIR No.155/2025 में गिरफ्तार नहीं कर सकती।
कानूनी महत्व
यह आदेश कई दृष्टियों से अहम है—
1. न्यायिक पारदर्शिता: आदेश अपलोड में देरी या हेरफेर न्यायपालिका की विश्वसनीयता को प्रभावित करता है।
2. प्रशासनिक जवाबदेही: सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट सचिव और रजिस्ट्रार की भूमिका पर प्रश्न उठाया।
3. टेक्नोलॉजी की निगरानी: NIC की डिजिटल रिकॉर्डिंग को साक्ष्य के रूप में मान्यता दी गई।
4. न्यायिक अनुशासन: सुप्रीम कोर्ट ने संकेत दिया कि न्यायाधीश की अनुपस्थिति के बावजूद आदेश की प्रक्रिया पारदर्शी होनी चाहिए।
संभावित प्रभाव
यह मामला भविष्य में 'Order Uploading Mechanism' पर बड़े सुधार का कारण बन सकता है।
हाईकोर्ट और लोअर कोर्ट्स को आदेश अपलोड करने की समय-सीमा पर कड़ा नियम बनाना पड़ सकता है।
न्यायाधीशों के सचिवालय पर अधिक जवाबदेही सुनिश्चित होगी।
वकीलों और पक्षकारों को आदेश की समय पर उपलब्धता से न्याय प्रक्रिया में पारदर्शिता बढ़ेगी।
सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश केवल एक व्यक्ति की जमानत याचिका से जुड़ा मामला नहीं है, बल्कि यह भारतीय न्यायपालिका में पारदर्शिता और जवाबदेही से जुड़े बड़े प्रश्न को सामने लाता है। अजय मैनी को राहत मिलने के साथ-साथ, यह मामला उच्च न्यायालयों और अधीनस्थ न्यायालयों में आदेश अपलोडिंग की प्रक्रिया में व्यापक सुधार का मार्ग प्रशस्त कर सकता है।
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