तस्वीर नहीं, व्यवस्था बदलनी है निलंबन नहीं, इंसानियत बहाल करो
श्योपुर के तिरंगापुरा स्कूल में बच्चों को अख़बार पर खाना परोसने की घटना ने मिड-डे मील व्यवस्था की गहरी सचाई उजागर कर दी है। निलंबन नहीं, पारदर्शी निगरानी और जवाबदेही ही समाधान है। पढिए एक असरदार व विचारोत्तेजक संपादकीय।
तस्वीर नहीं, व्यवस्था बदलनी है - निलंबन नहीं, इंसानियत बहाल करो
श्योपुर जिले के विजयपुर विकासखंड के तिरंगापुरा मिडिल स्कूल से निकला एक वीडियो पूरे देश की आंखों में चुभता हुआ सवाल बनकर खड़ा है। धूप में जमीन पर बैठाए गए मासूम बच्चे, उनके सामने बिछे रद्दी अख़बार, जिन पर रोटी और थोड़ी-सी दाल-सब्ज़ी रख दी गई। अख़बार पर छपी ‘विकास’ की चमकदार सुर्खियाँ बच्चों की सूखी उंगलियों से टकराकर जैसे मज़ाक उड़ाती हैं विकास की रफ़्तार दोगुनी, भूख का दर्द चौगुना।
विडंबना यह नहीं कि ऐसा हुआ; असली विडंबना यह है कि ऐसा कितने समय से हुआ और किसी को पता तक नहीं चला। वीडियो आने के कुछ घंटों में निलंबन, जांच, निर्देश सबकुछ बिजली की गति से हुआ। यह तत्परता इसलिए नहीं थी कि बच्चों की गरिमा आहत हुई, बल्कि इसलिए कि कैमरा चालू था। डर इंसानियत का नहीं, वायरल होने का था।
यह घटना कोई अपवाद नहीं। ‘मिड-डे मील घोटाला’ की एक सरल खोज पूरे देश का काला इतिहास खोल देती है कीड़ों से भरी दाल, सड़ी सब्ज़ी, घुन वाला आटा, दुर्गंध उठाता चावल, और कहीं-कहीं तो अधपेटे बच्चों की मजबूरी पर खड़ी पूरी भ्रष्ट व्यवस्था। सिस्टम बार-बार वही अपराध करता है, और जनता हर बार एक वीडियो का इंतज़ार करती है ताकि नींद खुले।
पर सवाल है, क्या व्यवस्था वीडियो से बदलेगी?
क्या हर गाँव को न्याय के लिए एक पत्रकार चाहिए?
क्या हर स्कूल के सच को जगाने के लिए एक वायरल क्लिप जरूरी है?
समाधान केवल निलंबन नहीं। निलंबन महज एक पर्दा है, जो शर्म को छिपाता है, जवाबदेही को नहीं। चेहरे बदल दिए जाते हैं, पर तंत्र बदलता नहीं। जब तक निगरानी स्थायी, पारदर्शी और जनता के हाथ में नहीं होगी, ऐसे दृश्य फिर सामने आएँगे, और फिर वही औपचारिक कार्रवाई होगी।
नए ढाँचे की जरूरत
हर स्कूल में सीसीटीवी, जिसकी लाइव फ़ीड अभिभावक देख सकें। हर 15 दिन पर स्वतंत्र ऑडिट, जिसकी रिपोर्ट सार्वजनिक हो। अभिभावकों को बिना सूचना निरीक्षण का अधिकार। हर दिन परोसे गए भोजन की जीपीएस-टाइमस्टैम्प सहित फोटो अपलोड। स्थानीय समुदाय आधारित ‘मिड-डे मील निगरानी समिति’ का गठन। यह सिर्फ़ भोजन की समस्या नहीं है। यह बच्चों की गरिमा, आत्मसम्मान और भविष्य की लड़ाई है। रद्दी अख़बार पर परोसा गया खाना उनके पेट से पहले उनके स्वाभिमान को चोट पहुँचाता है। यह उन्हें बताता है, “तुम दूसरी श्रेणी के हो।” यह असमानता की शिक्षा है, जो किसी पाठ्यपुस्तक में नहीं, उनकी थाली में लिखी जा रही है।
सच्चा बदलाव कैमरे के डर से नहीं, विवेक की जागृति से शुरू होता है
आज एक वीडियो ने सिस्टम को हिला दिया, लेकिन असली बदलाव वह है जो कैमरे बंद होने के बाद भी कायम रहे। जब आने वाले वर्षों में कोई बच्चा बड़ा होकर पूछेगा, “जब हमें अख़बार पर खाना परोसा जा रहा था, तब आप कहाँ थे?” तो उस दिन राष्ट्र को जवाब देना होगा, “हमने तस्वीर नहीं, व्यवस्था बदली थी। हमने ऐसा सिस्टम बनाया था, जहाँ सच को वीडियो की जरूरत नहीं पड़ती।”
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