एक भारत, श्रेष्ठ भारत के पुरस्कर्ता: डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का बलिदान और उसकी ऐतिहासिक प्रासंगिकता
23 जून 1953 को डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का बलिदान भारतीय इतिहास की एक निर्णायक घटना है। कश्मीर की पृथकता के विरोध में उनका संघर्ष, 'एक राष्ट्र, एक संविधान' की माँग, और रहस्यमयी मृत्यु ने भारत को नई वैचारिक दिशा दी। यह संपादकीय उनके जीवन, विचार और बलिदान की ऐतिहासिक, राजनीतिक और वैचारिक महत्ता पर केंद्रित है।

एक भारत की पुकार: डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बलिदान का ऐतिहासिक मूल्यांकन
23 जून 1953, यह तिथि भारत के राजनीतिक इतिहास में केवल एक घटना नहीं, बल्कि राष्ट्र की एकता, अखंडता और आत्मबलिदान की अद्भुत गाथा का प्रतीक है। इस दिन जम्मू-कश्मीर की धरती पर डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने रहस्यमय परिस्थितियों में अपना जीवन न्योछावर किया। वे न केवल स्वतंत्र भारत के पहले उद्योग मंत्री थे, बल्कि एक सिद्धांतवादी, दूरद्रष्टा और राष्ट्रवादी चिंतक भी थे जिनके विचार आज भी भारत की संप्रभुता और एकता के लिए मार्गदर्शक सिद्ध होते हैं।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जन्म 6 जुलाई 1901 को कलकत्ता (अब कोलकाता) में हुआ। उनके पिता सर आशुतोष मुखर्जी एक ख्यातिप्राप्त शिक्षाविद् और विचारक थे। डॉ. मुखर्जी ने अल्पायु में ही उच्च शिक्षा प्राप्त की और 33 वर्ष की आयु में कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति बने। वे एक कुशल अधिवक्ता और शिक्षाशास्त्री होने के साथ-साथ देश की राजनीति में गंभीर दखल रखने वाले नेता भी थे।
विभाजन के बाद जब भारत पुनर्निर्माण की राह पर अग्रसर था, तब उन्होंने नेहरू मंत्रिमंडल में उद्योग मंत्री के रूप में कार्य किया। परंतु, जब वे महसूस करने लगे कि पंडित नेहरू की नीतियाँ राष्ट्रहित के अनुरूप नहीं हैं, विशेषकर कश्मीर के संदर्भ में, तो उन्होंने 1950 में मंत्रिपद से इस्तीफा दे दिया।
जम्मू-कश्मीर का मुद्दा: संघर्ष की शुरुआत
जम्मू-कश्मीर भारत का एक अभिन्न अंग था, किंतु तत्कालीन परिस्थितियों में वहाँ का प्रशासन अनुच्छेद 370 के अंतर्गत एक अलग संविधान, अलग झंडा और 'भारत से परमिट लेकर ही प्रवेश' की शर्तों पर कार्य कर रहा था। डॉ. मुखर्जी को यह स्वीकार नहीं था। उन्होंने सार्वजनिक रूप से नारा दिया—"एक देश में दो निशान, दो प्रधान, और दो विधान नहीं चलेंगे!" यह न केवल एक नारा था, बल्कि भारत की आत्मा की पुकार थी।
1953 में, जब उन्होंने कश्मीर में बिना परमिट प्रवेश करने का निर्णय लिया, तो उन्हें जम्मू में गिरफ्तार कर लिया गया। इसके बाद 23 जून 1953 को जेल में उनकी रहस्यमय मृत्यु हुई। उनकी मौत आज भी कई सवाल खड़े करती है- क्या यह एक चिकित्सकीय लापरवाही थी? क्या यह सोची-समझी राजनीतिक साजिश थी? आज भी इस पर जाँच की माँग समय-समय पर उठती रही है।
बलिदान का प्रभाव और विरासत
डॉ. मुखर्जी के बलिदान ने देश को झकझोर कर रख दिया। जम्मू-कश्मीर की पृथकता को लेकर देशभर में आंदोलन खड़ा हुआ। उनकी प्रेरणा से ही 1951 में उन्होंने भारतीय जनसंघ की स्थापना की, जो आगे चलकर भारतीय जनता पार्टी के रूप में विकसित हुआ। भाजपा आज जिस वैचारिक आधार पर कार्य करती है - राष्ट्रवाद, सांस्कृतिक गौरव, और अखंड भारत की नींव डॉ. मुखर्जी ने ही रखी थी।
उनके बलिदान के कुछ ही वर्षों में 'परमिट प्रणाली' समाप्त कर दी गई। धीरे-धीरे जम्मू-कश्मीर की पूर्ण एकता की दिशा में देश आगे बढ़ता गया, culminating ultimately in 2019, when Article 370 was effectively abrogated-एक ऐसा निर्णय जो डॉ. मुखर्जी के सपनों को साकार करता प्रतीत हुआ।
आज की प्रासंगिकता
आज जब भारत 21वीं सदी में वैश्विक महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है, तो डॉ. मुखर्जी की सोच और संघर्ष हमें स्मरण कराते हैं कि सशक्त भारत की नींव किसी राजनीतिक सुविधा पर नहीं, बल्कि नीतिगत स्पष्टता और राष्ट्रनिष्ठा पर टिकती है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक और कच्छ से अरुणाचल तक भारत की भौगोलिक एकता केवल नक्शों से नहीं, विचारों की अखंडता से संभव होती है। डॉ. मुखर्जी का जीवन इस विचार का जीता-जागता प्रमाण है।
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने सत्ता के लिए नहीं, सिद्धांतों के लिए राजनीति की। उनके बलिदान से राष्ट्र को आत्मगौरव, विचारधारा की दृढ़ता, और एकता की प्रेरणा मिली। 23 जून न केवल उनके बलिदान की तिथि है, बल्कि हर राष्ट्रभक्त भारतीय के लिए यह आत्मचिंतन का दिन भी है - क्या हम उनके सपनों का भारत बना पाए हैं?
भारत के इतिहास में ऐसे युगपुरुष विरले ही जन्म लेते हैं जो विचार से आंदोलन बनते हैं और अपने जीवन से युग की दिशा बदलते हैं। डॉ. मुखर्जी उन्हीं में से एक थे।
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