उत्तर प्रदेश में खाकी का आतंक और भारतीय पुलिस व्यवस्था की विडंबना
जौनपुर, उत्तर प्रदेश के वायरल वीडियो में एसएचओ विनोद मिश्रा द्वारा एक व्यक्ति की बेल्ट से पिटाई की घटना पुलिस की जबरन वसूली और दुर्व्यवहार को उजागर करती है। यह भारतीय पुलिस व्यवस्था की गहरी समस्याओं को दर्शाता है, यह आंकड़ा आतंकवादी हमलों में होने वाली मौतों (2005-2016 में 707) से भी अधिक है, जो पुलिस को आतंक का प्रतीक बनाता है। और जो संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है। हिरासत में मौतों के लिए जवाबदेही की कमी, सुस्त कानूनी कार्रवाई, और यातना विरोधी कानून का अभाव इस समस्या को बढ़ाता है।

उत्तर प्रदेश के जौनपुर से वायरल हुआ एक वीडियो भारतीय पुलिस व्यवस्था की गहरी खामियों को उजागर करता है। मुंगराबादशाहपुर पुलिस स्टेशन के अंदर एसएचओ विनोद मिश्रा को एक व्यक्ति की बेल्ट से पिटाई करते देखा गया, कथित तौर पर इसलिए क्योंकि उसने दी गई रिश्वत की रकम वापस माँगी थी। यह घटना न केवल पुलिस द्वारा जबरन वसूली और दुर्व्यवहार की प्रणालीगत समस्या को सामने लाती है, बल्कि यह भी सवाल उठाती है कि क्या 'खाकी' वर्दी, जो कभी ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में प्राधिकार का प्रतीक बनी थी, आज आम नागरिकों के लिए डर का पर्याय बन चुकी है?
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के 2023 के आँकड़े बताते हैं कि 2017 से 2022 के बीच भारत में हिरासत में 1,192 मौतें हुईं, जिनमें से 20% मामले अकेले उत्तर प्रदेश से हैं। यह आँकड़ा पुलिस की अनियंत्रित शक्ति और जवाबदेही की कमी को स्पष्ट करता है। दूसरी ओर, आतंकवादी हमलों में होने वाली मौतों की तुलना करें तो 2016 में भारत सरकार द्वारा जारी आँकड़ों के अनुसार, 2005 से 2016 तक आतंकवादी हमलों में 707 लोगों की जान गई और 3,200 से अधिक घायल हुए। यह विडंबना ही है कि जहाँ आतंकवाद जैसी बाहरी चुनौती से निपटने के लिए पुलिस को मजबूत किया गया, वहीं हिरासत में होने वाली मौतों का आँकड़ा आतंकवादी हमलों से होने वाली मौतों को पार करता जा रहा है। यह सवाल उठता है कि क्या पुलिस, जो नागरिकों की रक्षा के लिए बनी है, अब खुद एक आतंक का रूप ले चुकी है?
संविधान का अनुच्छेद 21 हर नागरिक को जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार देता है, लेकिन जौनपुर की घटना जैसे मामले इस गारंटी का खुला उल्लंघन हैं। खाकी वर्दी, जो 19वीं सदी के अंत में ब्रिटिश राज के दौरान अपनी व्यावहारिकता और सामरिक उपयोगिता के कारण अपनाई गई, आज डर और दमन का प्रतीक बन गई है। Quora जैसे मंचों पर इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर चर्चा होती है, लेकिन यह भी सत्य है कि आजादी के बाद भी इस वर्दी का प्रतीकवाद सकारात्मक दिशा में नहीं बदला।
यह स्थिति तब और चिंताजनक हो जाती है, जब हम देखते हैं कि हिरासत में मौतों के लिए जिम्मेदार पुलिसकर्मियों पर कार्रवाई न के बराबर होती है। एनसीआरबी के अनुसार, 2001 से 2020 के बीच 1,800 से अधिक लोग पुलिस हिरासत में मारे गए, लेकिन केवल 26 पुलिसकर्मियों को सजा हुई। भारत ने 1997 में संयुक्त राष्ट्र के यातना विरोधी सम्मेलन पर हस्ताक्षर किए, लेकिन इसे अभी तक मंजूरी नहीं दी गई है। यातना रोकथाम विधेयक, 2022, जो हिरासत में यातना को रोकने और दोषी अधिकारियों को दंडित करने का प्रावधान करता है, अभी तक कानून नहीं बन सका।
जौनपुर की घटना और इस तरह के अन्य मामले यह माँग करते हैं कि पुलिस सुधारों को तत्काल प्रभाव से लागू किया जाए। पुलिसकर्मियों के लिए सख्त जवाबदेही, पारदर्शी जाँच प्रणाली, और यातना के खिलाफ कठोर कानूनों की जरूरत है। साथ ही, पुलिस प्रशिक्षण में मानवाधिकारों पर जोर दिया जाना चाहिए, ताकि खाकी वर्दी फिर से सुरक्षा और विश्वास का प्रतीक बन सके, न कि आतंक का।
जब तक ये सुधार नहीं होंगे, तब तक हिरासत में होने वाली मौतें और आतंकवादी हमलों में होने वाली मौतों के बीच का यह भयावह तुलनात्मक आँकड़ा हमें सोचने पर मजबूर करता रहेगा क्या हमारा असली दुश्मन बाहर है, या वह हमारी अपनी व्यवस्था के भीतर ही पनप रहा है? समय है कि हम इस सवाल का जवाब खोजें और एक ऐसी पुलिस व्यवस्था बनाएँ जो वास्तव में 'सेवा, सुरक्षा और मैत्री' के आदर्शों पर खरी उतरे।
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