सरकारी सेवाओं में हिंदी

डॉ. अमरनाथ

Dec 15, 2021 - 18:17
Mar 31, 2025 - 15:18
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सरकारी सेवाओं में हिंदी

पिछले साल का यूपीएससी का परिणाम ऐतिहासिक और अभूतपूर्व था। हिंदी माध्यम वाले सफल अभ्यर्थियों की संख्या सिर्फ तीन प्रतिशत रह गई। 97 प्रतिशत अभ्यर्थी अंग्रेजी माध्यम वाले सफल हुए। हिंदी माध्यम वाले अभ्यर्थियों की आत्महत्याओं की खबरें अब आमतौर पर आती रहती हैं। लोग इन खबरों पर ध्यान नहीं देते। मैंने समस्या की तह में जाने की कोशिश की तो सिर घूम गया।

देश में अराजपत्रित कर्मचारियों के चयन के लिए कर्मचारी चयन आऐग (स्टाफ सलेक्शन कमीशन) सबसे बड़ा संगठन है। इस संगठन की परीक्षाओं से हिंदी को पूरी तरह बाहर का रास्ता दिखाया जा चुका है। मैंने उसकी वेबसाइट पर जाकर देखाअध्ययन किया तो सकते में आ गया। कंबाइंड ग्रेजुएट लेबल की परीक्षा जो तीन सोपानों में आऐजित होती हैउसके प्रत्येक सोपान में क्रमश: इंग्लिश कंप्रीहेंशनइंग्लिश लैंग्वेज एण्ड कंप्रीहेंशन तथा डेस्क्रिप्टिव पेपर इन इंग्लिश ऑर हिंदी है। प्रश्न यह है कि जब आरंभिक दो सोपानों में इंग्लिश लैंग्वेज एण्ड कंप्रीहेंशन अनिवार्य है तो तीसरे सोपान में भला हिंदी का विकल्प कोई क्यों और कैसे चुन सकता हैजाहिर है यहाँ हिंदी का उल्लेख केवल नाम के लिए है।

कंबाइंड हायर सेकेंडरी लेबल की परीक्षा में इंग्लिश लैंग्वेज का प्रश्नपत्र है किन्तु हिंदी का कुछ भी नहींं है। स्टेनोग्राफर्स ( ग्रेड 'सीएण्ड 'डी' ) के लिए 200 अंकों की परीक्षा में इंग्लिश लैंग्वेज एण्ड कंप्रीहेंशन 100 अंकों का है किन्तु हिंदी को पूरी तरह हटा लिया गया है। जूनियर इंजीनियर्स की परीक्षा में हिंदी का नामोनिशान नहींं है। सब इंस्पेक्टर्स ( दिल्ली पुलिससी.आर.पी.एफ तथा सीआईएसएफ) की परीक्षा दो भाग में होती है। इसके पहले भाग में 50 अंकों का इंग्लिश कंप्रीहेंशन तो है ही,दूसरे भाग में भी 200 अंकों का सिर्फ इंग्लिश लैंग्वेज एण्ड कंप्रीहेंशन है। विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में मल्टी टास्किंग (नान टेक्निकल) स्टाफ के लिए भी दो भागों में बँटी परीक्षा के पहले भाग में जनरल इंग्लिश है और दूसरे भाग में शार्ट एस्से एण्ड इंग्लिश लेटर राइटिंग है। आएगा ने मान लिया है कि हिंदी में कुछ भी लिखने की कभी जरूरत नहीं पड़ेगी। इसीलिए हिंदी के किसी स्तर के ज्ञान की परीक्षा का कोई प्रावधान नहींं है। यह सब देखने के बाद कहाँ जा सकता हैं कि देश की अराजपत्रित सरकारी नौकरियों के लिए अब हर स्तर पर सिर्फ अंग्रेजी को स्थापित कर दिया गया है और हिंदी को पूरी तरह बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है।

राजपत्रित अधिकारियों के चयन के लिए संघ लोक सेवा आऐग तथा विभिन्न राज्यों के लोक सेवा आऐग हैं। संघ लोक सेवा आऐग का गठन अंग्रेजों ने 1926 में किया था। अंग्रेजों के जमाने में यहाँ परीक्षाओं का माध्यम सिर्फ अंग्रेजी थीं। आजादी के बाद 1950 में इस परीक्षा के लिए सिर्फ तीन हजार प्रतिभागियों ने हिस्सा लिया था और 1970 में यह संख्या बढ़कर ग्यारह हजार हुई थी। 1979 में कोठारी समिति के सुझाव लागू हुए जिसने संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भाषाओं में परीक्षा देने की संस्तुति की थी। इससे देश के दूर दराज के गाँवों में दबी प्रतिभाओं को भी अपनी भाषा में परीक्षा देने के अवसर उपलब्ध हुए।परिणाम यह हुआ कि 1979 में परीक्षा देने वालों की संख्या एकाएक बढ़कर एक लाख दस हजार हो गई। अब हर साल गाँवों के गरीबों के बच्चों की भी एकाध तस्वीरें अखबारों में अवश्य देखने को मिल जाती थीं जिनका चयन इस प्रतिष्ठित सेवा में हो जाता था। शीर्ष पर बैठे हमारे नीति नियामकों को यह बर्दाश्त नहींं हुआ। उन्होंने 2011 में वैकल्पिक विषय को हटाकर उसकी जगह 200 अंकों का सीसैट ( सिविल सर्विस एप्टीट्यूट टेस्ट) लागू किया जिसमें मुख्य जोर अंग्रेजी पर था। इससे हिंदी माध्यम वाले परीक्षार्थियों की संख्या तेजी से घटी। इसका राष्ट्रव्यापी विरोध हुआ।दिल्ली हाईकोर्ट ने भी आन्दोलनकारियों के पक्ष में अपेक्षित निर्देश दिए,तब जाकर 2014 में आऐग ने कुछ बदलाव किए। किन्तु इसके बाद धीरे-धीरे आऐग ने सीसैट सहित यूपीएससी परीक्षा के नियमों में दूसरे अनेक ऐसे परिवर्तन किए जिससे हिंदी माध्यम के अभ्यर्थियों के लिए प्रारंभिक परीक्षा पास करना भी कठिन होता गया। 2009 में हिंदी माध्यम से जहाँ 25.4 प्रतिशत परीक्षार्थी सफल हुए थे वहाँ 2019 मेंयह संख्या घटकर मात्र 3 प्रतिशत रह गई। पहले जहाँ टॉप टेन सफल अभ्यर्थियों में तीन-चार हिंदी माध्यम वाले अवश्य रहते थे वहाँ 2019 में चयनित कुल 829 अभ्यर्थियों में हिंदी माध्यम वाले चयनित अभ्यर्थियों में पहले अभ्यर्थी का स्थान 317वाँ है।

तीन स्तरों पर होने वाली संघ लोक सेवा आऐग की इस सर्वाधिक प्रतिष्ठित परीक्षा में हिंदी माध्यम वालों को अमूमन प्रारंभिक परीक्षा में ही छाँट दिया जाता है। मुख्य परीक्षा की तैयारी के लिए भी न तो उन्हें स्तरीय पाठ्य-सामग्री सुलभ है और न बेहतर कोचिंग की सुविधा क्योंकि आर्थिक दृष्टि से भी वे कमजोर होते हैं।  ग्रामीण पृष्ठभूमि के ऐसे अभ्यर्थी ज्यादातर मानविकी के विषय चुनते हैं। तकनीकी विषय चुनने वाले अभ्यर्थियों की तुलना में स्वाभाविक रूप से उन्हें कम अंक मिलते हैं। साक्षात्कार में भी हिंदी माध्यम वालों के साथ भेदभाव किया जाता है। प्रश्नों के हिंदी अनुवाद देखकर तो कोई भी  सिर पीट लेगा। कुछ बानगी आप भी देखिए -

'भारत में संविधान के संदर्भ मेंसामान्य विधियों में अंतर्विष्ट प्रतिषेध अथवा निर्बंधन अथवा उपबंध अनुच्छेद-142 के अधीन सांविधानिक शक्तियों पर प्रतिरोध अथवा निर्बंधन की तरह कार्य नहीं कर सकते।एक दूसरा वाक्य है, ''वार्महोल से होते हुए अंतरा-मंदाकिनीय अंतरिक्ष यात्रा की संभावना की पुष्टि हुई।'' (डॉ. विजय अग्रवाल द्वारा उद्धृत)

प्रश्न निर्माताओं ने सर्जिकल स्ट्राइक के लिए 'शल्यक प्रहार', डिजिटलीकरण के लिए 'अंकीयकृत', साइंटिस्ट ऑब्जर्व के लिएवैज्ञानिकों ने प्रेक्षण किया', स्टील प्लांट के लिए'इस्पात का पौधा', डेलिवरी के लिए'परिदान', सिविल डिसओबिडिएंस मूवमेंट के लिए 'असहयोग आन्दोलनआदि किया है। इनमें डेलिवरी के लिए 'वितरणतथा डिसओबिडिएंस मूवमेंट के लए'सविनय अवज्ञा आन्दोलनतो बेहद प्रचलित शब्द हैं। इन्हें भी गलत लिखना प्रमाणित करता है कि हिंदी अनुवाद को गंभीरता से नहीं लिया जाता।

अमूमन सहज ही कह दिया जाता है कि जिन्हें हिंदी अनुवाद समझ में नहीं आता है उनके लिए मूल अंग्रेजी तो रहता ही है। किन्तु यहाँ समझने की बात यह है कि यूपीएससी की प्रारंभिक परीक्षा में छह से सात लाख परीक्षार्थी शामिल होते हैं और उनमें से लगभग तेरह प्रतिशत परीक्षार्थी ही मुख्य परीक्षा के लिए अपनी अर्हता प्रमाणित कर पाते हैं। ऐसी दशा में 0.01 प्रतिशत अंक का भी महत्व होता है। परीक्षार्थियों को निर्धारित समय सीमा के भीतर ही लिखना होता है। ऐसी दशा में हिंदी माध्यम का परीक्षार्थी यदि प्रश्न को समझने के लिए अंग्रेजी मूल भी देखने लगा तो उसका पिछड़ना तय है।

प्रश्न यह है कि देश के लोक सेवकों को कितनी अंग्रेजी चाहिएउन्हें इस देश के लोक से संपर्क करने के लिए हिंदी सीखनी जरूरी है या अंग्रेजीउन्हें जनता के सामने अंग्रेजी झाड़कर उनपर रोब जमाना है या उन्हें समझाना-बुझानाउनके साक्षात्कार अंग्रेजी माध्यम से क्यों लिए जाते हैंक्या उन्हें इंग्लैंड में सेवा देनी हैइस देश के सबसे बड़े पद तो राष्ट्रपतिप्रधानमंत्री और गृहमंत्री के है। इन पदों पर बैठे लोगों का काम तो हिंदी और गुजराती बोलने से चल जाता है। ऐसे लोक सेवकों को लोक सेवा का अधिकार क्यों मिलना चाहिए जो लोक की भाषा में बोल पाने में भी अक्षम होंहिंदी माध्यम के अपने बैच के टॉपर निशांत जैन ने अपना अनुभव बाँटते हुए कहाँ है कि हिंदी माध्यम वाले आईएएस अधिकारी अंग्रेजी माध्यम वालों की तुलना में जनता के प्रति अधिक संवेदनशील देखे गए हैं।

न्याय के क्षेत्र की दशा यह है कि आज हमारे देश में सुप्रीम कोर्ट से लेकर 25 में से 21 हाईकोर्टों में हिंदी सहित किसी भी भारतीय भाषा का प्रयोग नहीं होता है। मुवक्किल को पता ही नहीं होता कि वकील और जज उसके केस के बारे में क्या सवाल-जवाब कर रहे हैं। उसे अपने बारे में मिले फैसले को समझने के लिए भी वकील के पास जाना पड़ता है और उसके लिए भी उसे पैसे देने पड़ते हैं।

सरकारी नौकरियोंप्रशासन और न्याय व्यवस्था में अंग्रेजी के वर्चस्व के लिए क्या जनता जिम्मेदार है या सरकार और उसकी नीतियाँआज शिक्षा को व्यापार और मुनाफे के लिए ज्यादातर निजी क्षेत्र के हवाले कर दिया गया है। देश की अधिकांश राज्य सरकारों ने सरकारी विद्यालयों को भी अंग्रेजी माध्यम में बदल दिया है और हमारे नौनिहालों से उनकी मातृभाषाएँ क्रूरतापूर्वक छीन ली हैं।  केंद्रीय विद्यालयों और नवोदय विद्यालयों में भी ऐसी व्यवस्था कर दी गई है कि आठवीं-नवीं के बाद ही बच्चों की हिंदी छूट जाती है। उनके तर्क हैं कि अभिभावकों की यही माँग है। प्रश्न यह है कि जब अफसर से लेकर चपरासी तक की सभी नौकरियाँ अंग्रेजी के बलपर ही मिलेंगी तो कोई अपने बच्चे को हिंदी पढ़ाने की भूल कैसे करेगानिस्संदेह हिंदी पढ़ने से नौकरी मिलने लगे तो लोग हिंदी पढ़ाएंगे। यूपी बोर्ड में आठ लाख बच्चों के फेल होने की खबर तो सुर्खियों में थी और सारा दोष शिक्षकों पर डाला जा रहा था किन्तु इस ओर ध्यान नहींं था कि अंग्रेजी की शब्दावली और व्याकरण रटने में ही जब बच्चों का सारा समय चला जाएगा तो अपने घर की भाषा हिंदी पढ़ने के लिए वे कैसे समय निकाल पाएंगे?

इस देश में तकनीकीमेडिकलमैनेजमेंटकानून आदि की शिक्षा तो अंग्रेजी माध्यम से होती ही है। राजधानी के विश्वविद्यालयों में मानविकी और सामाजिक विज्ञान की शिक्षा भी अंग्रेजी माध्यम से होने लगी है जबकि पढ़ाने वाले अध्यापक ज्यादातर हिंदी पट्टी के ही हैं। इन सबके पीछे अंग्रेजी का दिनोंदिन बढ़ता रूतबा है जिसके लिए सिर्फ सरकारें जिम्मेदार हैं।

 हाल ही में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'द इंग्लिश मीडियम मिथमें संक्रान्त सानु ने प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय उत्पाद के आधार पर दुनिया के सबसे अमीर और सबसे गरीबबीस-बीस देशों की सूची दी है।  बीस सबसे अमीर देशों में उन देशों की जनभाषा ही सरकारी कामकाज की भी भाषा है और शिक्षा के माध्यम की भी। इसी तरह दुनिया के सबसे गरीब बीस देशों में सिर्फ एक देश नेपाल है जहाँ जनभाषाशिक्षा के माध्यम की भाषा और सरकारी कामकाज की भाषा एक ही है नेपाली। बाकी उन्नीस देशों में राजकाज की भाषा और शिक्षा के माध्यम की भाषा भारत की तरह जनता की भाषा से भिन्न कोई न कोई विदेशी भाषा है। (द्रष्टव्यद इंग्लिश मीडियम मिथपृष्ठ-12-13) इस उदाहरण से आसानी से समझा जा सकता है कि अंग्रेजी माध्यम हमारे देश के विकास में कितनी बड़ी बाधा है।

            वास्तव में व्यक्ति चाहे जितनी भी भाषाएँ सीख ले किन्तु वह सोचता अपनी भाषा में ही है। हमारे बच्चे दूसरे की भाषा में पढ़ते हैं फिर उसे अपनी भाषा में सोचने के लिए अनूदित करते हैं और लिखने के लिए फिर उन्हें दूसरे की भाषा में ट्रांसलेट करना पड़ता है। इस तरह हमारे बच्चों के जीवन का एक बड़ा हिस्सा दूसरे की भाषा सीखने में चला जाता है। इसीलिए मौलिक चिन्तन नहीं हो पाता। मौलिक चिन्तन सिर्फ अपनी भाषा में ही हो सकता है। पराई भाषा में हम सिर्फ नकलची पैदा कर सकते हैं। अंग्रेजी माध्यम वाली शिक्षा सिर्फ नकलची पैदा कर रही है।

हमें स्मरण रखना चाहिए कि हम अपने जिस अतीत पर मुग्ध हैं उस अतीत की सारी उपलब्धियाँ अपनी भाषाओं में अध्ययन करने का परिणाम थीं।

आज भी इस देश की सत्तर प्रतिशत जनता गावों में ही रहती है। उनकी शिक्षा ग्रामीण परिवेश की शिक्षण संस्थाओं में ही होती है। गाँवो की इन प्रतिभाओं को यदि मुख्य धारा में लाना है तो उन्हें उनकी अपनी भाषाओं में शिक्षा देना एकमात्र रास्ता है और यही हमारे संविधान का भी संकल्प है। हमारा संविधानदेश के प्रत्येक नागरिक को 'अवसर की समानताका अधिकार देता है।

अंत में मैं जोर देकर कहना चाहूँगा कि अंग्रेजी इस देश में सिर्फ एक विषय के रूप में पढ़ाई जानी चाहिए। माध्यम के रूप हर्गिज नहीं और किसी भी स्तर पर नहीं। इसके साथ ही सरकारी नौकरियों में अंग्रेजी की जगह हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को वरीयता मिलनी चाहिए।

 

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सुशील कुमार पाण्डेय मैं, अपने देश का एक जिम्मेदार नागरिक बनने की यात्रा पर हूँ, यही मेरी पहचान है I