जिजीविषा से भरा प्रखर और जीवंत व्यक्तित्व : मधुलता गुप्ता

इतु सिंह

Dec 15, 2021 - 18:03
Mar 29, 2025 - 22:19
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जिजीविषा से भरा प्रखर और जीवंत व्यक्तित्व : मधुलता गुप्ता

वो सपनीली आँखे जो जीवंत थी, जीती थीं जीने की प्रेरणा देती थीं, मैंने उन आँखों को कभी-भी मौत से खौफ खाते नहीं देखा था। कई बार मौत से लड़ कर जीत भी गईं थीं और यकीन नहीं होता कि इस बार ऐसा क्या था कि उनका मन लौटने को न हुआ। अभी तो कितना कुछ कहना और सुनना बाकी था। आप का जाना हमारे लिए कैसा आघात था यह शब्दों में व्यक्त करना संभव नहीं। अब तो केवल स्मृतियाँ शेष हैं।

एक बेहद ही शालीन और व्यवस्थित व्यक्तित्व की धनी मधुलता गुप्ता से मेरी मुलाकात बी.ए. के विद्यार्थी के रूप में हुई थी। दोनों के लिए ही जालान कॉलेज में यह पहला साल था उनका शिक्षिका के रूप में और मेरा विद्यार्थी के रूप में। स्वाभाविक ही था कि अपने शुरुआती छात्राओं से उनका बहुत की खास संबंध बना। वे मेरी सबसे प्रिय शिक्षिका थीं और मेरा सौभाग्य रहा कि मैं उनके कुछ प्रिय छात्राओं में से एक थी। पहले-पहल तो उनसे औपचारिक संबंध रहा और कब वह विकसित होकर बिल्कुल अनौपचारिक हो गया पता ही नहीं चला।वैसे तो मैं बहुत ज्यादा शिक्षकों से घुलती-मिलती नहीं थी पर मधु दी के करीब आने का मौका तब मिला जब मैं कॉलेज में अंशकालीन शिक्षिका बनी। ऊपर से बेहद सख्त और अनुशासनप्रिय मधु दी के भीतर की एक भावुक और कोमल स्त्री से तब मेरा परिचय हुआ। वह सारी दुनिया को देखना चाहती थीं, घूमना तो उनका पैशन ही था। घूमने की चर्चा होते ही उनकी आँखे चमक उठती थीं। उनकी घुमक्कड़ी प्रकृति से उनके आसपास के सभी लोग परिचित थे।

मधु दी को सारी दुनिया अपनी लगती थी, उसमें मुझ जैसे न जाने कितने ही लोग बसते थे। हम बेतकल्लुफ होकर उनसे अपनी व्यक्तिगत समस्याओं को साझा कर पाते थे। सैकडों की संख्या में छात्राएँ हैं जिनकी उन्होंने कई तरह से सहायता की थी। मुझे जब भी लगा कि कुछ ऐसी समस्या है जिसका समाधान उनके पास हो सकता है तो उनसे कहाँ और वे हर तरह से मदद भी करती थीं। कई बातें तो ऐसी भी हैं कि जिसे उनके सिवा किसी और को कभी कहाँ ही नहीं। हर समय किसी की मदद को इतना तत्पर कोई दूसरा व्यक्ति मैंने नहीं देखा।

कहाँ तक कह सकूँगी पता नहीं पर मधु दी का व्यक्तित्व सामान्य नहीं था, वे बेहद जुझारू थीं और जहाँ भी कुछ अनुचित लगता वे प्रखर स्वर में उसका विरोध करती थीं। गुस्सा तो उनकी नाक पर रहता पर वह कभी दिल तक नहीं उतरता था। अभी जिस पर नाराज हैं और अगले ही क्षण उसके मदद के लिए तत्पर। उनका बाहर भीतर एक जैसा था, जिस पर नाराज होना होता सामने ही होती थीं, पीठ पीछे तो वे किसी का भी बुरा नहीं सोचती थीं।

विद्यार्थी जीवन में हम उनके जैसा होने की कल्पना करते थे। उनका सजना-सँवरना हमें प्रेरित करता तो उनका पढना लिखना भी। हमें कहीं कुछ असुविधा हो वे हर तरह से लगकर मदद करतीं। जब हम सहकर्मी बने तो मैंने देखा कि वे कभी भी यह अहसास नहीं होने देतीं कि कभी वह मेरी शिक्षिका थीं और मुझे हमेशा बराबरी का अहसास कराती रहतीं। वे अपनी कमियों को रेखांकित करने पर बडी सहजता से मुस्कुरातीं और कहती कि हाँ सुधारने की कोशिश करूँगी। जैसे मेरा उनसे बार- बार यह कहना -"मधु दी आप अपनी पीएच.डी. का काम क्यों नहीं पूरा करतीं?" वे आश्वासन देती - "हाँ करूँगी।" पर कुछ दिनों बाद मुझे ये पता चल गया था कि वे सचमुच ये करना ही नहीं चाहती। जो नए विषयों पर जानने को हमेशा तत्पर रहती और हमेशा परिश्रम करतीं थीं उनके लिए पीएच.डी. तो मामूली बात थी। पर मजे की बात यह कि अपने विद्यार्थियों को वे इसी डिग्री के लिए प्रेरित करती थीं और उनकी सफलता पर प्रसन्न भी होती थीं।

शारीरिक असुविधाओं  के बावजूद उनका पढना-लिखना जारी था। घर पर ढेरों किताबें थीं, साथ ही कई पुस्तकालयों से किताबें लाकर स्वयं पढ़ना और दूसरों को भी देना।

लॉकडाउन ने जब हमें घरों में कैद कर दिया तो वे नई तकनीक से क्लास लेना भी सीखती रहीं और फोन पर इसे लेकर लंबी बातचीत होती। कम्प्यूटर के विविध तकनीकों को जानने के लिए वे मुझसे हमेशा बात करती थीं और हमेशा सीखने को तत्पर। सच उनसे कितना सीखना बाकी था।

 घूमने के साथ ही वे खाने और पहनने की भी बेहद शौकीन थीं। ममत्व से भरी उनकी बातें तो थी हीं, भोजन भी वे बहुत सुस्वादु बनाती थीं। जब भी उनके घर जाना हुआ वे कुछ विशेष बनाकर रखतीं, जिसका स्वाद आज भी याद है। जैसे वे पढ़ने की शौकीन वैसे ही खाना बनाना सीखने और खिलाने की शौकीन। हमलोगों ने बहुत बार उनके घर बैठकर साहित्यिक गोष्ठियाँ की हैं जिसमें उनकी मेहमान नवाजी याद आती है। जब भी सब लोगों के मिलने का मन होता उनका घर सबसे सुलभ और सर्व स्वीकृत ठिकाना था। मधु दी से जब-जब बात हुई वे यह जरूर कहतीं कि घर आओ मिलकर ढेर सारी बातें करनी हैं, योजनाएँं बनानी हैं। तब तरह-तरह के कारण बताकर हमारा जाना टलता था और अब प्रतीक्षा रहती है कि कब फोन बजे और उधर से मधु दी की मधुर आवाज आए -"हैलो, इतु घर आओ न बहुत सी बातें करनी हैं।" काश....

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सुशील कुमार पाण्डेय मैं, अपने देश का एक जिम्मेदार नागरिक बनने की यात्रा पर हूँ, यही मेरी पहचान है I