सृजन की गर्जना | हिंदी कविता | सुशील कुमार पाण्डेय की कविता
सृजन की गर्जना कविता स्त्रीत्व की गहराई, मातृत्व की पीड़ा और शक्ति, और सामाजिक रूढ़ियों के खिलाफ उसके संघर्ष का अनूठा बिंब प्रस्तुत करती है। यह रचना नारी को केवल देह नहीं, बल्कि संपूर्ण ब्रह्मांड की जननी और असीम ऊर्जा का स्रोत मानती है, पढ़ें पूरी कविता.....

सृजन की गर्जना
नहीं...
सिर्फ गर्भ नहीं होती कोई स्त्री,
वो संपूर्ण ब्रह्मांड की जननी होती है,
उसका रक्त,
उसका दर्द,
उसका धैर्य,
हर मास की पीड़ा में नवजीवन बोती है।
वो कोई साधारण देह नहीं,
हर मास समय पर बहती जो नदी है,
वो है उसकी आत्मा की साक्षी,
वो पीर नहीं,
एक शक्ति है जमी हुई।
कमर के टूटते पहाड़,
पैरों की थरथराती जमीन,
पेड़ू में चुभते पत्थरों की पीड़ा,
फिर भी चेहरे पर मुस्कान लिए,
वो चलती है…
जैसे कुछ हुआ ही नहीं।
लोगों की निगाहें,
उनके सवाल,
"छुपा लो ये बात, ये तो शर्म की बात है",
पर किससे कहे?
कि यही तो उसके स्त्रीत्व की सौगात है।
गर्भधारण?
हाँ,
पर पहले तय करो,
क्या है वो शरीर तैयार?
क्या है उसकी आत्मा तैयार?
क्या उसकी हड्डियाँ,
माँसपेशियाँ,
भावनाएँ
इस युद्ध को लड़ने के लिए हैं तैयार?
बीस हड्डियाँ एक साथ टूटें,
तब कहीं जाकर एक जीवन निकले,
वो चीख नहीं होती,
वो एक सृजन की गर्जना होती है।
हर दिन इंजेक्शन,
हर रात करवटें,
हर सुबह उल्टी,
और हर दोपहर थकी हुई आँखों से
खुद को फिर खड़ा करना,
ये कोई त्याग नहीं...
ये उसका स्वभाव है।
फिर भी...
वो मुस्कराती है,
तुम्हारी पसंद का खाना बनाती है,
तुम्हारी बातों में हाँ में हाँ मिलाती है,
और तुम?
बस उसकी देह में सौंदर्य खोजते हो।
कभी स्ट्रेच मार्क्स पर हँसी,
कभी पेट के उभारों पर ताने,
पर क्या तुमने देखा है,
इन निशानों में बसी जननी?
वो माँ है,
वो बहन है,
वो प्रेमिका है,
वो पत्नी है,
वो समर्पण है,
वो अग्नि है,
वो ही धरा,
वो ही गगन है।
तो मत कहो उसे सिर्फ ‘औरत’,
वो तो आदि है,
अनंत है,
और जब तक तुम उसकी पीड़ा नहीं जी सकते,
तब तक खुद को मर्द कहने का
गुमान छोड़ दो,
क्योंकि वो सिर्फ जीती नहीं,
हर दिन जन्म देती है।
सुशील कुमार पाण्डेय
संपर्क: 25-26, रोज मेरी लेन, हावड़ा - 711101, मो,: 88 20 40 60 80 / 9681 10 50 70
ई-मेल : aapkasusheel@gmail.com
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