गैर-सरकारी संगठनों को पूर्वग्रह के बजाय खुले दिमाग से देखा जाए: मद्रास उच्च न्यायालय
मद्रास उच्च न्यायालय ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण निर्णय में यह कहा कि किसी गैर-सरकारी संगठन (NGO) को केवल इसलिए संदेह की दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए क्योंकि वह विदेशी सहायता पर निर्भर करता है। जब तक विदेशी योगदान के दुरुपयोग का कोई ठोस प्रमाण न हो, प्रशासनिक अधिकारियों को ऐसे मामलों में निष्पक्ष और खुले मन से विचार करना चाहिए। यह निर्णय FCRA (Foreign Contribution Regulation Act) की नीतियों और सामाजिक सेवा के संतुलन को परिभाषित करता है।

प्रकरण की पृष्ठभूमि:
मद्रास उच्च न्यायालय में एक ट्रस्ट ने याचिका दायर की थी, जिसकी FCRA पंजीकरण की नवीनीकरण याचिका केंद्र सरकार द्वारा खारिज कर दी गई थी। याचिकाकर्ता का तर्क था कि उसका संचालन पूरी तरह पारदर्शी है, उसने सभी अनिवार्य विवरण समय पर प्रस्तुत किए हैं, और उसके विरुद्ध कोई आपराधिक जांच या दुरुपयोग का मामला नहीं है। हालाँकि, केंद्रीय गृह मंत्रालय (MHA) ने बिना विस्तृत कारण बताए उनका FCRA नवीनीकरण अस्वीकार कर दिया था। इस पर उच्च न्यायालय ने हस्तक्षेप करते हुए प्रशासनिक कार्रवाई की न्यायिक समीक्षा की और ट्रस्ट को राहत दी।
न्यायालय की प्रमुख टिप्पणी:
"सिर्फ इसलिए कि कोई संस्था विदेशी योगदान प्राप्त कर रही है, उसे संदेह की दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए। जब तक कोई गंभीर अनियमितता या दुरुपयोग सामने न आए, अधिकारियों को निष्पक्ष और संतुलित दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।" यह टिप्पणी इस चिंता को रेखांकित करती है कि सरकारी एजेंसियाँ कई बार ऐसे संगठनों को जो समाज सेवा, शिक्षा, स्वास्थ्य या मानवाधिकार के क्षेत्र में कार्यरत होते हैं उन्हें पूर्वग्रह से ग्रसित होकर देखती है।
FCRA का उद्देश्य एवं समस्या:
FCRA का मुख्य उद्देश्य भारत की संप्रभुता, अखंडता, सार्वजनिक हित और शांति व्यवस्था को बनाये रखना है। यह कानून विदेशी चंदे को नियंत्रित करता है ताकि कोई भी संगठन इस धन का दुरुपयोग कर राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में संलिप्त न हो। किन्तु, हाल के वर्षों में अनेक NGOs ने यह आरोप लगाया है कि FCRA को एक दमनकारी उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। हजारों संगठनों के लाइसेंस रद्द कर दिए गए हैं, जिनमें कुछ प्रमुख अंतरराष्ट्रीय मानवीय संस्थाएँ भी शामिल रही हैं।
निर्णय का व्यापक महत्व:
प्रशासनिक विवेक की सीमाएँ : यह निर्णय याद दिलाता है कि किसी भी कार्यपालिका निर्णय पर न्यायिक निगरानी आवश्यक है, विशेषकर तब जब नागरिक अधिकारों, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या सामाजिक सेवा से जुड़े संगठन प्रभावित हों।
न्यायिक संतुलन:
उच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि लोकतंत्र में शक्ति का उपयोग पारदर्शिता और कारण सिद्धि के साथ होना चाहिए। यह संस्थागत निष्पक्षता को प्रोत्साहित करता है।
एनजीओ की भूमिका की मान्यता:
यह निर्णय भारत में सिविल सोसायटी और गैर-सरकारी संगठनों की भूमिका को विधिक संरक्षण और नैतिक समर्थन प्रदान करता है। भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में जहां प्रशासनिक तंत्र और नीतियों में अति केंद्रीकरण देखने को मिलता है, वहां न्यायालयों की भूमिका केवल विवाद निपटाने की नहीं, अपितुसंवैधानिक संतुलन बनाए रखने की भी होती है। यह निर्णय इसी भूमिका का बेहतरीन उदाहरण है। इसके अतिरिक्त, यह न्यायिक रुख उन हजारों छोटे-बड़े संगठनों के लिए उम्मीद की किरण बनकर उभरा है जो ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला सशक्तिकरण, पर्यावरण संरक्षण और मानवाधिकार के क्षेत्र में सीमित संसाधनों के बावजूद कार्यरत हैं।
मद्रास उच्च न्यायालय का यह निर्णय हमें यह याद दिलाता है कि किसी भी लोकतंत्र की बुनियाद केवल सरकारी संस्थाएँ नहीं होतीं, बल्कि स्वतंत्र, सक्रिय और उत्तरदायीसिविल सोसायटी भी होती है। यदि ऐसे संगठनों को बिना प्रमाण के संदेह की दृष्टि से देखा जाएगा, तो यह न केवल संविधान प्रदत्त स्वतंत्रताओं का उल्लंघन होगा, बल्कि सामाजिक ताने-बाने को भी कमजोर करेगा। सरकार और प्रशासन को चाहिए कि वे FCRA जैसे कानूनों का उपयोग सावधानी और पारदर्शिता से करें, न कि दमन के उपकरण के रूप में। जब तक कोई NGO कानूनी रूप से कार्य कर रहा है और सामाजिक हित में लगा है, उसे सहयोग व संरक्षण मिलना चाहिए यही किसी स्वस्थ लोकतंत्र की पहचान है।
What's Your Reaction?






