न्यायालय की अनुमति बिना नई FIR में गिरफ्तारी पर रोक, सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला”
सुप्रीम कोर्ट ने वाजिद बनाम राज्य उत्तर प्रदेश में ऐतिहासिक आदेश पारित किया, अब किसी भी नई FIR में गिरफ्तारी से पहले कोर्ट की अनुमति आवश्यक होगी। यह फैसला संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता की पुनः पुष्टि है और पुलिस दुरुपयोग के विरुद्ध एक निर्णायक कदम है।
सुप्रीम कोर्ट ने 22 अगस्त 2025 को दिए महत्वपूर्ण आदेश में स्पष्ट किया कि किसी भी व्यक्ति के खिलाफ यदि पहले से कोई मामला लंबित है, तो उसी घटनाक्रम से संबंधित नई FIR दर्ज होने पर पुलिस बिना पूर्व अनुमति न्यायालय से गिरफ्तारी नहीं कर सकती। यह आदेश W.P. (Crl.) No. 450/2024 वाजिद एवं अन्य बनाम राज्य उत्तर प्रदेश एवं अन्य में दिया गया, जिसमें न्यायालय ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार (Article 21) की मज़बूत व्याख्या की और राज्य पुलिस की मनमानी कार्रवाई की कड़ी आलोचना की।
मामले की पृष्ठभूमि:
याचिकाकर्ता वाजिद और अन्य पर उत्तर प्रदेश में विभिन्न आपराधिक धाराओं के तहत कई FIR दर्ज की गई थीं, जिनमें से कुछ एक ही घटना से संबंधित थीं। याचिका में आरोप था कि पुलिस लगातार नई FIR दर्ज कर ‘मनमाना उत्पीड़न’ कर रही है, ताकि याचिकाकर्ता जेल से बाहर न निकल सकें ।
पूर्व में, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उनके विरुद्ध लंबित मामलों पर कोई विशेष सुरक्षा नहीं दी थी, जिसके बाद आरोपी पक्ष ने उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर की।
सुनवाई का घटनाक्रम:
18 मार्च 2025 को सुनवाई के दौरान जस्टिस बी.आर. गवई और जस्टिस ऑगस्टिन जॉर्ज मसीह की पीठ ने मामले को प्रधान पीठ के समक्ष रखा।
वरिष्ठ अधिवक्ता सिद्धार्थ दवे और शोएब आलम ने दलील दी कि नई FIR में गिरफ्तारी “पूर्ववर्ती मामलों का ही विस्तार” है।
राज्य की ओर से अपर सॉलिसिटर जनरल के.एम.नटराज उपस्थित रहे और कहा कि प्रत्येक FIR “स्वतंत्र अपराध” है।
कोर्ट ने राज्य की इस दलील को यह कहते हुए अस्वीकार किया कि “यदि FIR एक ही घटनाक्रम से जुड़ी हैं, तो उन्हें स्वतंत्र रूप से दर्ज करना अनुच्छेद 21 व 22 के तहत असंवैधानिक है”।
अदालत का विश्लेषण:
कोर्ट ने यह पाया कि 13 अगस्त 2025 को मिर्ज़ापुर, सहारनपुर में दर्ज FIR संख्या 141/2025 उसी मूल घटना का विस्तार है जिसके लिए पूर्व में आरोप लंबित थे ।
पीठ ने इसे “न्यायिक प्रक्रिया के प्रति दुर्भावनापूर्ण व्यवहार” कहा और राज्य पुलिस को याद दिलाया कि “कानून अपराधियों को सज़ा देने का साधन है, प्रतिशोध का नहीं।”
इसलिए अदालत ने निर्देश दिया - “यदि याचिकाकर्ताओं के खिलाफ भविष्य में कोई नई FIR दर्ज होती है, तो उन्हें गिरफ्तार करने से पूर्व न्यायालय की अनुमति प्राप्त करना अनिवार्य होगा।”
साथ ही, अदालत ने यह भी कहा कि ट्रायल कोर्ट याचिकाकर्ताओं को जमानत देने पर विचार करेगा, ताकि व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार अक्षुण्ण रहे।
न्यायिक प्रेक्षण:
यह आदेश मनमानी गिरफ़्तारी और पुलिस उत्पीड़न के विरुद्ध मॉडल जस्टिस सिस्टम में एक महत्वपूर्ण सुधारात्मक बेंचमार्क के रूप में देखा जा रहा है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि “प्रक्रियात्मक दुरुपयोग न्याय के मूल तत्वों पर आघात करता है।”
आदेश ने यह स्पष्ट किया कि यदि एक ही घटनाक्रम पर बार-बार दर्ज FIRs से किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता पर निरंतर चोट पहुंचती है, तो संविधान की धारा 226 व 32 के तहत यह न्यायालय हस्तक्षेप करेगा ।
निर्णय के निहितार्थ:
राज्य पुलिस के लिए संकेत: अब बिना कोर्ट अनुमति किसी भी नई FIR में गिरफ्तारी करने पर मानवाधिकार उल्लंघन का मामला बन सकता है।
विधिक दृष्टि से: यह फैसला अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य (2014) और जोगिंदर कुमार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1994) जैसे मामलों की धारा को पुष्ट करता है, जिसमें गिरफ्तारी से पूर्व विस्तृत कारण बताना आवश्यक बताया गया था।
संविधानिक दृष्टिकोण से: यह निर्णय अनुच्छेद 21 के अंतर्गत ‘कानून की निष्पक्ष प्रक्रिया’ (Fair Procedure of Law) की पुनः व्याख्या प्रस्तुत करता है।
वाजिद प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश अब एक नई न्यायिक परंपरा स्थापित करता है जो यह सुनिश्चित करेगा कि पुलिस एक ही अपराध को बार-बार नया मामला बताकर नागरिक स्वतंत्रता को कुचल न सके।
इस आदेश को विधिक विशेषज्ञ ‘Rule of Law की पुनर्स्थापना’ के रूप में देख रहे हैं।
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