बच्चों पर मोबाइल फोन का दुष्प्रभाव: भारत में एक बढ़ती सामाजिक और मानसिक चुनौती

आधुनिक भारत में मोबाइल फोन बच्चों के जीवन का अभिन्न हिस्सा बन चुका है। हालांकि, यह तकनीक शिक्षा और ज्ञान के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकती है, लेकिन अत्यधिक और अनियंत्रित उपयोग बच्चों के मानसिक, शारीरिक, सामाजिक और शैक्षिक विकास पर गंभीर दुष्प्रभाव डाल रहा है।

Jun 18, 2025 - 06:27
Jun 16, 2025 - 17:55
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बच्चों पर मोबाइल फोन का दुष्प्रभाव: भारत में एक बढ़ती सामाजिक और मानसिक चुनौती
डिजिटल जाल में उलझा बचपन

आधुनिक भारत में मोबाइल फोन बच्चों के जीवन का अभिन्न हिस्सा बन चुका है। हालांकि, यह तकनीक शिक्षा और ज्ञान के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकती है, लेकिन अत्यधिक और अनियंत्रित उपयोग बच्चों के मानसिक, शारीरिक, सामाजिक और शैक्षिक विकास पर गंभीर दुष्प्रभाव डाल रहा है। विभिन्न राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय शोधों एवं रिपोर्टों के आंकड़ों के माध्यम से यह लेख बच्चों पर मोबाइल के प्रभाव को विस्तार से प्रस्तुत करता है और समाधान की दिशा में प्रभावी सुझाव देता है।

1. मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव

वर्ष 2023 में ‘नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एँड न्यूरो साइंसेस (NIMHANS)’ की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 10 से 17 वर्ष के बच्चों में से 31.4% मानसिक तनाव या चिंता से ग्रसित हैं, और इनमें स्क्रीन समय की अत्यधिक वृद्धि एक प्रमुख कारण है। यह आंकड़ा भारत में डिजिटल निर्भरता की भयावहता को दर्शाता है।

लांसेट साइकेट्री’ द्वारा किए गए 2021 के एक अंतरराष्ट्रीय अध्ययन में भी ऑनलाइन गेमिंग से जुड़े बच्चों में असामाजिक व्यवहार, आत्म-केन्द्रित दृष्टिकोण और गुस्सैल प्रवृत्तियाँ अधिक पाई गईं। यह निष्कर्ष सीधे भारत के परिदृश्य में मेल खाता है, जहाँ AIIMS दिल्ली की 2022 की रिसर्च में पाया गया कि 12-16 वर्ष के 33.1% किशोर डिप्रेशन से ग्रसित हैं।

2. नींद और शारीरिक स्वास्थ्य पर असर

किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी (KGMU), लखनऊ’ द्वारा 2022 में किए गए अध्ययन में बताया गया कि मोबाइल से निकलने वाली ब्लू लाइट बच्चों की नींद की गुणवत्ता को 58% तक घटा देती है। परिणामस्वरूप, बच्चों में थकान, चिड़चिड़ापन और ध्यान केंद्रित करने में कठिनाई बढ़ जाती है।

इंडियन एकेडमी ऑफ पीडियाट्रिक्स’ के 2023 के शोधपत्र में बताया गया कि मोबाइल पर अधिक समय बिताने वाले बच्चों में मोटापे की समस्या 18% अधिक है। AIOS (All India Ophthalmological Society) की 2021 रिपोर्ट के अनुसार, 10 में से 6 बच्चे 3 घंटे से अधिक स्क्रीन समय के कारण दृष्टि संबंधित समस्याओं से जूझ रहे हैं।

ICMR की 2023 की रिपोर्ट और AIIMS के शोध इस बात की पुष्टि करते हैं कि शारीरिक निष्क्रियता के कारण बच्चों में हाई ब्लड प्रेशर और डायबिटीज जैसी बीमारियाँ भी प्रारंभिक अवस्था में विकसित हो रही हैं।

3. शैक्षणिक प्रदर्शन पर प्रभाव

AIIMS दिल्ली (2022) द्वारा किए गए शोध में यह सामने आया कि 10-16 वर्ष के 48.7% छात्र मानते हैं कि मोबाइल के कारण वे पढ़ाई में ध्यान नहीं दे पाते। CBSE के 2023 सर्वे के अनुसार, 12वीं के छात्रों में से 41% ने परीक्षा की तैयारी के समय भी सोशल मीडिया और गेमिंग को नहीं छोड़ा।

नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (NTA)’ की रिपोर्ट बताती है कि मोबाइल पर पढ़ाई करने वाले छात्रों में आलोचनात्मक और विश्लेषणात्मक क्षमताएँ 22% तक कम होती हैं। ‘डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम टेक्निकल यूनिवर्सिटी’ द्वारा किए गए 2023 के अध्ययन के अनुसार, 4 घंटे से अधिक मोबाइल उपयोग करने वाले छात्रों में 60% की याददाश्त और एकाग्रता कमजोर पाई गई।

4. सामाजिक और पारिवारिक जीवन पर प्रभाव

यूनीसेफ इंडिया’ (2022) की रिपोर्ट में 6 से 15 वर्ष के बच्चों में से 54% ने स्वीकार किया कि वे प्रतिदिन 3 घंटे से अधिक मोबाइल का उपयोग करते हैं। इनमें से 38% बच्चों ने यह भी स्वीकार किया कि वे पारिवारिक बातचीत से कतराते हैं।
इंडियन साइकोलॉजिकल एसोसिएशन’ (2023) के अनुसार, 10 से 14 वर्ष के 64% बच्चे अपने परिवार के साथ भावनात्मक जुड़ाव नहीं महसूस करते। यह प्रवृत्ति बच्चों को धीरे-धीरे सामाजिक अलगाव की ओर धकेल रही है।

नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ चाइल्ड हेल्थ एँड डेवलपमेंट (NICHD)’ की 2021 रिपोर्ट में यह स्पष्ट किया गया कि डिजिटल निर्भरता बच्चों की निर्णय लेने और समस्या सुलझाने की क्षमताओं में 35% तक गिरावट ला रही है। 'Save the Children' की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 40% माता-पिता मानते हैं कि मोबाइल के कारण वे अपने बच्चों से घनिष्ठ संबंध नहीं बना पा रहे।

5. समाधान और आवश्यक पहल

अमेरिकन एकेडमी ऑफ पीडियाट्रिक्स’ की गाइडलाइन के अनुसार, 2-5 वर्ष के बच्चों के लिए प्रतिदिन स्क्रीन टाइम 1 घंटे, जबकि 6-12 वर्ष के लिए अधिकतम 2 घंटे तक सीमित होना चाहिए। भारत में भले ही ऐसी सख्त नीति नहीं है, लेकिन ‘डिजिटल इंडिया’ अभियान के तहत सरकार किड-फ्रेंडली और शैक्षणिक ऐप्स को बढ़ावा देने के प्रयास कर रही है।
वर्ष 2023 में ‘प्रथम फाउंडेशन’ के अध्ययन में यह स्पष्ट हुआ कि जब बच्चों को शारीरिक खेलों और रचनात्मक गतिविधियों में लगाया गया, तो मोबाइल उपयोग 47% तक घटा।

हावर्ड यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ’ की 2022 की रिपोर्ट से भी यह सिद्ध हुआ कि यदि माता-पिता खुद मोबाइल का सीमित उपयोग करें तो बच्चों में स्क्रीन टाइम स्वतः कम हो जाता है।

शैक्षिक संस्थानों को डिजिटल संयम और जागरूकता पर विशेष कार्यक्रम चलाने चाहिए। स्थानीय प्रशासन व NGOs को भी डिजिटल डिटॉक्स अभियान चलाने की आवश्यकता है।

निष्कर्ष:

भारत में मोबाइल फोन का बच्चों पर प्रभाव अब केवल व्यक्तिगत समस्या नहीं रही, बल्कि यह एक सामाजिक और राष्ट्रीय चिंता का विषय बन चुकी है। मानसिक स्वास्थ्य से लेकर शारीरिक विकास, शिक्षा, सामाजिक संबंध और भावनात्मक विकास तक, इसका प्रभाव व्यापक और गहरा है। यदि समय रहते समाज, सरकार और परिवार मिलकर ठोस कदम नहीं उठाते, तो यह स्थिति भारत की भावी पीढ़ी के संतुलित विकास में गंभीर रुकावट बन सकती है।

हालांकि, तकनीक का संतुलित और रचनात्मक उपयोग, बच्चों के लिए मोबाइल को वरदान में भी बदल सकता है – बशर्ते इसके लिए सही मार्गदर्शन, अनुशासन और जागरूकता को अपनाया जाए।

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डॉ. शैलेश शुक्ला लेखक डॉ. शैलेश शुक्ला वैश्विक स्तर पर ख्याति प्राप्त वरिष्ठ लेखक, पत्रकार, साहित्यकार, भाषाकर्मी होने के साथ-साथ 'सृजन अमेरिका', 'सृजन ऑस्ट्रेलिया', 'सृजन मॉरीशस', 'सृजन मलेशिया', 'सृजन कतर', 'सृजन यूरोप' जैसी विभिन्न अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं के वैश्विक प्रधान संपादक हैं। डॉ. शुक्ला द्वारा लिखित एवं संपादित 25 पुस्तकें, दिल्ली विश्वविद्यालय और इग्नू की बीए और एमए के पाठ्यक्रमों सहित कुल 30 से अधिक अध्याय विभिन्न पुस्तकों में 30 से अधिक शोध-पत्र, कविताओं, लेखों, कहानियों, व्यंग्यों सहित कुल 300 रचनाएं प्रकाशित हैं। डॉ. शैलेश शुक्ला भारत सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा प्रदत्त 'राजभाषा गौरव पुरस्कार (2019-20)' और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की हिंदी अकादमी द्वारा ‘नवोदित लेखक पुरस्कार (2004)’ सहित विभिन्न राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय सम्मनों एवं पुरस्कारों से सम्मानित हैं।