गुणाकर मुले: जनविज्ञान के युगपुरुष और तार्किक चेतना के लेखक
गुणाकर मुले का नाम भारतीय जनमानस में एक ऐसे लेखक के रूप में अंकित है जिन्होंने विज्ञान, गणित, खगोलशास्त्र और भारतीय ज्ञान परंपरा को सरल, सहज और रोचक शैली में प्रस्तुत कर व्यापक जन तक पहुँचाया। उन्होंने अपने लेखन से विज्ञान को केवल तथ्यों और समीकरणों तक सीमित न रखकर, एक सोचने का दृष्टिकोण बनाया। विशेषतः बच्चों और युवाओं के बीच वैज्ञानिक सोच के प्रचार-प्रसार में उनका योगदान अतुलनीय रहा है। प्रस्तुत आलेख में उनकी बहुआयामी रचनाओं, लेखकीय विशेषताओं और समाज के प्रति उनके लेखकीय उत्तरदायित्व की गहन समीक्षा की गई है।

गुणाकर मुले: ज्ञान, तर्क और समाज की त्रिवेणी
गुणाकर मुले (1935–2019) का लेखकीय व्यक्तित्व बहुआयामी था, वे केवल लेखक नहीं थे, बल्कि एक ऐसे विचारक थे जिन्होंने विज्ञान को मानव जीवन की ज़रूरत, समाज के विवेक और बच्चों की कल्पना से जोड़ने का कार्य किया। उन्होंने न केवल विज्ञान की कठिन अवधारणाओं को आम बोलचाल की भाषा में प्रस्तुत किया, बल्कि वैज्ञानिक सोच को एक जीवनशैली के रूप में स्थापित करने की कोशिश की।
लेखन की भाषा: कठिनता से सहजता की यात्रा
मुले जी की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे जटिल विषयों को अत्यंत सरल भाषा में प्रस्तुत करते थे, जिससे विज्ञान पढ़ना बोझ नहीं बल्कि रोमांच बन जाता था। उदाहरण के लिए, उनकी पुस्तक ‘गणित का रोमांचक संसार’ में बीजगणित, त्रिकोणमिति जैसी जटिल शाखाओं को कहानी और उदाहरणों के माध्यम से जीवंत कर दिया गया है। उनकी शैली में संवाद होता था, उपदेश नहीं। वह सवाल उठाते थे, उत्तर थोपते नहीं।
विज्ञान और दर्शन का संगम
गुणाकर मुले विज्ञान को महज तथ्यों और प्रयोगों का संकलन नहीं मानते थे। उनके लेखों में विज्ञान एक दर्शन बनकर उभरता है। उनकी प्रसिद्ध कृति “प्राचीन भारत में विज्ञान” में यह स्पष्ट होता है कि वे भारतीय संस्कृति और विज्ञान को एक-दूसरे का पूरक मानते थे। उन्होंने प्रमाणों और ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के माध्यम से यह दर्शाया कि प्राचीन भारत में गणित, खगोल, ध्वनि, चिकित्सा आदि विषयों में विश्वस्तरीय कार्य हुए थे।
बाल विज्ञान: कल्पना से खोज तक
बाल विज्ञान लेखन में गुणाकर मुले की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। बाल विज्ञान पत्रिकाएँ जैसे चकमक, सुषमा, बालभारती, आदि में उनके लेख बच्चों के बीच अत्यंत लोकप्रिय रहे। वे बच्चों से उनकी भाषा में बात करते थे- उनकी जिज्ञासाओं को उकसाते थे, डर को हटाते थे और प्रयोग करने को प्रेरित करते थे। उन्होंने बच्चों को केवल विज्ञान पढ़ाया नहीं, विज्ञान जीने की कला सिखाई।
उनकी पुस्तकें जैसे: ‘आकाश हमारे सिर पर’, ‘तारों भरा आकाश’, ‘अंतरिक्ष की सैर’।
... न केवल खगोलविज्ञान को रोचक बनाती हैं, बल्कि बच्चों में ब्रह्मांड के प्रति एक जिज्ञासु दृष्टिकोण भी विकसित करती हैं।
वैज्ञानिक चेतना के प्रचारक
गुणाकर मुले का लेखन केवल शिक्षाप्रद नहीं, बल्कि चेतनाप्रद था। उन्होंने अंधविश्वास, ज्योतिषीय पाखंड और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अभाव पर कई लेख लिखे। उन्होंने समाज में वैज्ञानिक सोच को जनांदोलन का रूप देने की दिशा में कार्य किया। उनके विचारों में "विज्ञान केवल जानने के लिए नहीं, सोचने और सुधारने के लिए है।"
उनकी यह पंक्ति उल्लेखनीय है: "यदि विज्ञान केवल स्कूल की किताबों में कैद रहेगा, तो समाज तर्कशून्यता के अंधेरे से बाहर नहीं निकल सकेगा।"
पुरस्कार और सम्मान
गुणाकर मुले को उनके अभूतपूर्व योगदान के लिए कई प्रतिष्ठित सम्मानों से नवाजा गया, जिनमें प्रमुख हैं:
NCERT पुरस्कार (राष्ट्रीय शिक्षा अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद)
मराठी विज्ञान परिषद द्वारा सम्मान
बाल साहित्य में विशिष्ट योगदान हेतु पुरस्कार
गुणाकर मुले की समकालीन प्रासंगिकता
आज जब सोशल मीडिया पर अफवाहें, तथ्यों की जगह विश्वास, और तर्क की जगह अंधभक्ति ने स्थान ले लिया है, तब मुले जैसे लेखक की लेखनी और अधिक प्रासंगिक हो जाती है। उनकी रचनाएँ एक बार फिर से पाठ्यपुस्तकों, विज्ञान क्लबों और सार्वजनिक संवाद में शामिल की जानी चाहिए।
गुणाकर मुले केवल लेखक नहीं, एक वैज्ञानिक समाज के निर्माणकर्ता थे। उन्होंने लेखनी को एक ऐसा उपकरण बनाया, जिससे समाज को सोचने की आदत डाली जा सके। उनका लेखन आज के युग में एक मार्गदर्शक की तरह है जो बच्चों से लेकर वयस्कों तक को विज्ञान, विवेक और विचारशीलता की राह दिखाता है।
गुणाकर मुले के पुस्तकों जितनी ही उनके विचार की ज़रूरत हैं आज के भारत को।
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