सृष्टि या प्रयोगशाला: इंसान को गढ़ने का अधिकार किसका?
यह संपादकीय जेनेटिक इंजीनियरिंग के नैतिक, वैज्ञानिक और सामाजिक प्रभावों पर गहरी बहस प्रस्तुत करता है, जहाँ वरदान और विनाश के बीच झूलता है विज्ञान।
जब सृजन प्रयोग बन जाए
कल्पना कीजिए एक ऐसी दुनिया जहाँ जन्म अब संयोग नहीं, बल्कि एक सुविचारित परियोजना बन गया हो। जहाँ माता-पिता यह तय कर सकें कि उनका बच्चा कैसा दिखेगा, उसकी बुद्धि कितनी तीव्र होगी, उसकी बीमारियाँ कौन सी होंगी या नहीं होंगी। वह दुनिया जहाँ ‘बच्चा’ प्रकृति की देन नहीं, बल्कि ‘प्रयोगशाला का उत्पाद’ बन जाए। यह सुनने में विज्ञान-फंतासी लग सकता है, लेकिन आज यह जेनेटिक इंजीनियरिंग (Genetic Engineering) और CRISPR तकनीक की बदौलत वैज्ञानिक संभावना बन चुका है। विज्ञान ने इंसान को वह शक्ति दे दी है जो अब तक केवल सृष्टिकर्ता के पास थी, जीवन को अपनी शर्तों पर गढ़ने की शक्ति। लेकिन प्रश्न यह नहीं कि इंसान क्या-क्या कर सकता है, बल्कि यह है, क्या उसे ऐसा करना चाहिए? क्या इंसान को अपनी ही प्रजाति के स्वरूप में परिवर्तन का अधिकार है?
विज्ञान की विजय या मानवता की चुनौती
जेनेटिक इंजीनियरिंग का आरंभ एक महान उद्देश्य से हुआ, बीमारियों से लड़ना, मानव जीवन को बेहतर बनाना, और प्राकृतिक दोषों को सुधारना। इसके माध्यम से वैज्ञानिक अब भ्रूण के जीन को इस प्रकार बदल सकते हैं कि भविष्य में होने वाली आनुवंशिक बीमारियाँ रोकी जा सकें। थैलेसीमिया, कैंसर, हीमोफीलिया, और हंटिंगटन जैसी घातक बीमारियों का इलाज अब संभव होता दिख रहा है। कृषि में इस तकनीक ने उत्पादन बढ़ाया, पशु-प्रजातियों में उपयोगी गुण विकसित किए और यह सब मानव कल्याण के नाम पर हुआ। पर जब यही तकनीक जीवन की रचना में दखल देने लगे, जब मनुष्य अपने ही स्वरूप, रंग, कद-काठी, या स्वभाव को ‘संशोधित’ करने लगे, तब यही विज्ञान एक गहरी नैतिक दुविधा में बदल जाता है।
डिज़ाइनर इंसान: एक ‘नया वर्ग विभाजन’
अब वह समय दूर नहीं जब कोई माता-पिता यह तय कर सकेंगे कि उनका बच्चा गोरी त्वचा वाला, नीली आँखों वाला, तीव्र बुद्धि और असाधारण प्रतिभा से सम्पन्न हो। यह सपना कुछ लोगों के लिए आकर्षक है, लेकिन समाज के लिए यह एक भयावह भविष्य की झलक भी है। क्योंकि यह 'चयन' अंततः समाज में एक नई असमानता को जन्म देगा, जहाँ एक ओर होंगे ‘डिज़ाइनर इंसान’, जो वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में परिपूर्ण बनाए गए होंगे, और दूसरी ओर होंगे ‘प्राकृतिक इंसान’, जो प्रकृति के नियमों से जन्मे होंगे। यह विभाजन रंग, जाति, या संपत्ति पर नहीं, बल्कि जीन पर आधारित होगा और यही विभाजन मानव इतिहास की सबसे गहरी असमानता बनेगा। क्योंकि तब श्रेष्ठता केवल कर्म या प्रतिभा पर नहीं, बल्कि ‘संशोधित डीएनए’ पर निर्भर होगी।
अदृश्य खतरा: प्रयोगशाला की एक भूल, सभ्यता की कीमत
वैज्ञानिक दृष्टि से भी आनुवंशिक संपादन पूरी तरह सुरक्षित नहीं है। एक जीन में मामूली गड़बड़ी पूरे शरीर की प्रणाली को असंतुलित कर सकती है। जिस बीमारी को मिटाने का प्रयास किया जाए, वही किसी नए, अज्ञात विकार के रूप में उभर सकती है। उदाहरण के लिए, चीन में वर्ष 2018 में वैज्ञानिक हे जियानकुई ने दो शिशुओं के जीन को संपादित कर उन्हें HIV से ‘प्रतिरक्षित’ बनाने की घोषणा की थी। परंतु, यह प्रयोग न केवल वैज्ञानिक समुदाय में निंदा का कारण बना, बल्कि इससे कई अप्रत्याशित स्वास्थ्य जोखिम भी सामने आए। इस घटना ने यह स्पष्ट कर दिया कि जीवन में दखल देने का अर्थ केवल जीन बदलना नहीं, बल्कि संपूर्ण प्रकृति के संतुलन को चुनौती देना है।
जब विज्ञान बाज़ार का औजार बन जाए
जेनेटिक इंजीनियरिंग का एक और बड़ा खतरा है, उसका व्यावसायीकरण। यदि यह तकनीक निजी कंपनियों या बाजार की माँग के अधीन चली गई, तो जीवन स्वयं एक ‘उत्पाद’ बन जाएगा। विज्ञापन कहेंगे, ‘संपूर्ण संतान: ऊँचा कद, गोरी त्वचा, तीव्र बुद्धि बस इतने में।’ यह स्थिति न केवल नैतिकता का, बल्कि मानव अस्तित्व का भी अपमान होगी। विज्ञान तब मानवता की सेवा नहीं करेगा, बल्कि उपभोक्तावाद का हथियार बन जाएगा। और तब ‘जीवन की गुणवत्ता’ नहीं, ‘जीवन की कीमत’ तय की जाएगी, पैसों और प्रयोगशालाओं के आधार पर।
आस्था और नैतिकता की सीमा रेखा
धार्मिक और दार्शनिक दृष्टि से भी यह प्रश्न उतना ही गूढ़ है। अनेक परंपराएँ मानती हैं कि जीवन का सृजन ईश्वर या प्रकृति की विशेष प्रक्रिया है। उसमें हस्तक्षेप करना सृष्टि के नैसर्गिक संतुलन को तोड़ना है।
वेदों से लेकर आधुनिक दर्शन तक, सृजन को ‘पवित्र’ माना गया है और यह विश्वास मानवता को विनम्रता सिखाता है। लेकिन जब मनुष्य सृष्टिकर्ता की भूमिका ग्रहण करने लगता है, तब वह विनम्रता खो देता है और अहंकार के मार्ग पर चल पड़ता है। विज्ञान तभी कल्याणकारी है जब तक वह दुःख घटाए, पर जैसे ही वह शक्ति प्रदर्शन का उपकरण बनता है, वह विनाश का माध्यम बन जाता है।
नीति की ज़रूरत: विज्ञान को दिशा देने वाली नैतिकता
आज विश्व को एक स्पष्ट और सख्त वैश्विक नीति की आवश्यकता है, जो यह सुनिश्चित करे कि जीन-संपादन का उपयोग केवल चिकित्सा, रोग-निवारण और मानव कल्याण के लिए सीमित रहे। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर UNESCO और WHO ने इस पर दिशा-निर्देश दिए हैं, परंतु देशों के बीच इस विषय पर अब भी कोई एकमत नीति नहीं है। भारत में भी ‘ह्यूमन जीनोम एडिटिंग’ पर नैतिक दिशा-निर्देश तैयार किए जा रहे हैं,
सृष्टिकर्ता नहीं, सृष्टि के रक्षक बनें
जेनेटिक इंजीनियरिंग मानव सभ्यता की सबसे बड़ी शक्ति है, पर शक्ति का मूल्य उसकी क्षमता में नहीं, बल्कि उसके उद्देश्य में छिपा है। यदि इसका उपयोग मानव पीड़ा को कम करने, रोग मिटाने, और जीवन को अधिक सार्थक बनाने में हो, तो यह विज्ञान की सबसे महान उपलब्धि कहलाएगी। पर यदि यही शक्ति इंसान से उसकी संवेदना, समानता और करुणा छीन ले, तो यही विज्ञान उस आग में बदल जाएगा जिसने इतिहास में सभ्यताओं को भस्म किया है। अब प्रश्न केवल प्रयोगशाला का नहीं, मानवता की आत्मा का है, क्या हम सृष्टिकर्ता बनना चाहते हैं, या सृष्टि के रक्षक बने रहना चाहते हैं? भविष्य का निर्णय प्रयोगशालाएँ नहीं, बल्कि हमारी नैतिक चेतना करेगी।
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