बाघा जतिन: वह योजना जो भारत को 1915 में आज़ाद करा सकती थी | Jago TV
क्या आप जानते हैं कि 1915 में भारत लगभग आज़ाद हो गया था? पढ़िए बाघा जतिन की सच्ची कहानी जर्मन साज़िश, विश्वासघात, और जंगल में लड़ी गई वह आखिरी लड़ाई जिसने इतिहास बदल दिया।
अगर एक साथी गद्दार न बनता, अगर कुछ तार न टूटते, अगर वो हथियार अपने गंतव्य तक पहुँच जाते, तो शायद भारत 1915 में ही आज़ाद हो चुका होता। यह कहानी है बाघा जतिन की वह क्रांतिकारी जिसने न केवल अंग्रेजों से आँख मिलाने का साहस दिखाया, बल्कि ऐसी योजना बनाई जो साम्राज्य की जड़ें हिला सकती थी। जंगल से लेकर जर्मनी तक फैले उनके मिशन की साज़िश, विश्वासघात और बलिदान की यह कहानी आज भी भारत के स्वतंत्रता-संग्राम की सबसे विस्मृत, किंतु रोमांचकारी गाथाओं में से एक है।
बाघा जतिन, मंच से जंगल तक
बचपन में नाटकों में ध्रुव और हनुमान की भूमिकाएँ निभाने वाला वह बालक नहीं जानता था कि एक दिन उसे इतिहास ‘बाघा जतिन’ कहकर पुकारेगा, वो नाम जो एक बाघ से हुई मुठभेड़ की आग से निकला था। पिता की मृत्यु के बाद ननिहाल में पले जतिन को वहीं संस्कार और विद्रोह की चिंगारी मिली। रवींद्रनाथ टैगोर से संवाद ने उनके भीतर ‘विचार का सौंदर्य’ जगाया और स्वामी विवेकानंद ने ‘शरीर की शक्ति’ का बोध कराया, दोनों के मिलन से तैयार हुआ एक शांत किंतु विस्फोटक व्यक्तित्व। एक दिन जब उन्होंने चार अंग्रेजों को एक भारतीय के अपमान पर पीट दिया, तब पूरे कलकत्ता में चर्चा फैल गई, ‘एक भारतीय ने अंग्रेजों को मारा है!’ वही जतिन जब एक बाघ से भिड़े, और उसे खुखरी से मार गिराया, तो बंगाल सरकार ने उन्हें सम्मानित किया, पर जनता ने उन्हें नया नाम दिया, ‘बाघा जतिन’।
क्रांति की छाया और जर्मन साज़िश
1905 के बंग-भंग के बाद जतिन ने अनुशीलन समिति और जुगांतर जैसे संगठनों में नई जान फूँकी। पर असली योजना आई 1914–15 में जब ब्रिटिश साम्राज्य प्रथम विश्वयुद्ध में उलझा था। जतिन ने विदेशों से संपर्क कर जर्मनी से हथियारों की आपूर्ति और राष्ट्रीय विद्रोह की योजना बनाई। इसे इतिहास में 'Hindu–German Conspiracy' कहा गया।
योजना थी, ‘एक साथ देशभर में सशस्त्र विद्रोह, सेना की बटालियनों में उठाव, और ब्रिटिश राज का तख्त उलट देना।’ पर इस सपने में एक नाम ने ज़हर घोल दिया E.V. Voska, एक चेक-अमेरिकन एजेंट, जिसने ब्रिटिशों को सारी सूचना लीक कर दी। जर्मन जहाज पकड़े गए। हथियार ज़ब्त हो गए। और भारत की सबसे बड़ी गुप्त क्रांति, ‘1915’ में ही मर गई।
अंतिम लड़ाई, बालासोर की धरती पर
सितंबर 1915, जतिन और उनके चार साथी ओडिशा के जंगलों में घिरे। 75 मिनट तक चले संघर्ष में जतिन ने आखिरी सांस तक लड़ाई की। जब वह गिर रहे थे, उनके होंठों पर आखिरी शब्द थे, “हम मरे नहीं हैं, हम फिर लौटेंगे...” अगले दिन, 10 सितंबर 1915 को, बालासोर अस्पताल में उन्होंने प्राण त्याग दिए। उनकी मौत के साथ एक युग की योजना भी दम तोड़ गई।
क्या सचमुच 1915 में भारत आज़ाद हो सकता था?
इतिहासकार मानते हैं, जतिन की योजना साहसी थी, पर संसाधन सीमित। जर्मन हथियार, सेना में विद्रोह और राष्ट्रव्यापी समन्वय एक ही धागे से बंधे थे। वो धागा ब्रिटिश खुफिया ने तोड़ दिया। अगर वो धागा न टूटता, अगर वोस्का नाम का एजेंट न होता, तो शायद भारत को गांधी के आने का इंतज़ार न करना पड़ता।
विरासत, युवा पीढ़ी के लिए संदेश
बाघा जतिन केवल एक योद्धा नहीं थे, वे योजना के प्रतीक थे, एक ऐसे भारत की कल्पना के, जो खुद अपनी रणनीति से आज़ाद होता। उनकी कहानी सिखाती है, ‘हिम्मत सिर्फ लड़ाई में नहीं, योजना में भी चाहिए।’
आज के युवाओं के लिए बाघा जतिन वही ऊर्जा हैं जो विचार और बलिदान को जोड़ती है, संघर्ष में आत्मबल, और सपनों में अनुशासन।
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