अमृतलाल नागर का डॉ. रामविलास शर्मा के नाम पत्र
प्रसिद्ध लेखक अमृतलाल नागर द्वारा डॉ. रामविलास शर्मा को लिखा गया है, जो हिंदी भाषा के सम्मान और अधिकारों के लिए आंदोलन से संबंधित है। पत्र में नागर जी अपने भीतर के भावनात्मक और आध्यात्मिक संघर्ष को व्यक्त करते हैं। वे हिंदी भाषा को उसका उचित स्थान दिलाने के लिए पूरी तरह समर्पित हैं और इसके लिए संघर्ष करने का संकल्प व्यक्त करते हैं। पत्र में अपने व्यक्तिगत आर्थिक संघर्षों और हिंदी लेखकों की दयनीय स्थिति का उल्लेख करते हुए वे कहते हैं कि हिंदी के गौरव की रक्षा के लिए व्यक्तिगत त्याग आवश्यक है। अंत में वे रामविलास शर्मा से आंदोलन में सक्रिय समर्थन की अपेक्षा करते हैं।

चौक, लखनऊ-3
1964
प्यारे डॉक्टर 'जत्थेदार',
इधर पाँच-छह रोज़ तक मेरा मन आठों याम अंतर्मुखी ही रहा। बहिर्मुखी होकर कार्य-संपादन करते हुए भी वह अविराम रूप से अंतर्मुखी ही रहा। दुनिया की हर बात केवल एक ही धुन में सुनाई पड़ रही थी। 'यद् यद् कर्म करोमितद्ददखिलं शंभो त्वाराधनम्' वाली उक्ति का एकलय हो जाने वाला भाव अब अपना अनोखा सौंदर्य बोध 'नैक-नैक' दर्शाने लगा है। आज सुबह उठा; पानी ख़ूब बरस रहा था। मेरा मन भी मुक्त होकर झमाझम बरस उठा। वो बेख़ुदी, हिप्नॉटिज़्म जैसा आलम, सिर और कलेजे से बेहोशी की मोटी पर्त-दर-पर्त जमी हुई बर्फ़-सी ठंडक पिघल कर हरहराती सैलाबी आनंदी नदी बन कर बहने लगी। इतना आनंद मुझसे सहा न जा सका। भाव को अपनी शक्ति-भर प्रस्फुटित होने देने लायक़ सामर्थ्य अभी मेरे शरीर में नहीं। ख़ैर अब पुरानी बातों पर ग़म करने के बजाए इतने में ही मस्त हूँ। गो चाँद तक पहुँचा तो क्या हुआ, जो मज़ा गागरिन ने अपनी दुनिया से ऊपर उठ कर उसे देखने और आकाश को नए रूप में देखते हुए पाया होगा, वह आज मुझे भी आ गया।
आज सुबह पाँच बजे उठने की योजना से अलार्म लगाया था। चूँकि मैं पहले ही जाग कर बरामदे में अपनी खाट पर बैठा हुआ बाहर-भीतर के दृश्य में लीन था, इसलिए ये बड़ा अजीब लगा कि आनंद का उद्दाम प्राण वेग जब मेरे लिए असह्य था, तभी अलार्म बज उठा और उसकी घनघनाहट जैसे मुझे बड़े सहज भाव से बाहर उँगली पकड़ कर सीढ़ियों से उतारती ले आई। जैसे एक जटिल नाटकीय क्लाइमॅक्स का दृश्य अपने चर्म बिंदु पर पहुँचते ही सहसा एक हल्का-सा झटका लेकर ऐसे सहज कलात्मक सौंदर्य के साथ खुल गया कि तब से अब तक मन उसी पर मुग्ध है।
आज मंगलवार है। मैंने कल शाम को ही यह निश्चय किया था कि आज सवेरे छाँछू कुएँ के बजरंगबली को अपनी छह तारीख़ की सार्वजनिक सभा का न्यौता देने जाऊँगा। पहला न्यौता दिया मन को यह विश्वास हो गया कि जीत अवश्य ही हमारी होगी। उस भरी-पूरी श्रद्धा पूजा के क्षणों में न जाने कैसे, धीमे से, बाँकेमल का चौबे दंगल-प्रसंग में कहा हुआ डायलॉग मन में सरक आया: ''बजरंगबली, ये क्या खुस्कैटी दिखला रहे हो यार, ज़रा ज़ोर लगाओ।'' हम तो मन-ही-मन हँसे ही, पर हमें लगा कि श्री बजरंगबली भी हँस रहे हैं। रामविलास, अपने कलेजे में यह लिख रखा था कि हम जीतेंगे अवश्य। प्राणों की बाजी तो अंत में ही लगेगी। मैं आज से जन संपर्क करने निकल पड़ा हूँ। सभी सरकारी ग़ैर-सरकारी नेताओं, विधायकों, पत्रकारों और बौद्धिकों से मिलूँगा। हिंदी जितनी मेरी है, उतनी ही उनकी भी। व्यक्तिगत रूप से मेरी किसी से दुश्मनी तो है नहीं; इस विधेयक का विरोध करने के पीछे मेरा कोई व्यक्तिगत स्वार्थ तो नहीं है। मैं भाई की तरह से गिड़गिड़ाऊँगा, हाथ जोड़ कर राम और कृष्ण की बूढ़ी परम पवित्र आत्मा की लाज रखने के लिए भीख माँगूँगा और जब यों भी काम नहीं चलेगा तो राम का नाम लेकर अनशन द्वारा आत्मोत्सर्ग कर दूँगा।
यह तो मेरा भाव रूपी ब्रह्म था, अब मेरे वस्तु ब्रह्म को भी तनिक निहार, ओ भाषा और समाज के यशस्वी लेखक—
1. सरकार संविधान की धारा 210 (2) में संशोधन करना चाहती है। इसके अनुसार 25 जनवरी 65 तक संसद या प्रादेशिक विधान सभा (आदि) में राज्य की भाषा या भाषाओं या हिंदी या अँग्रेज़ी में काम हो सकता है। याद रखना, प्रदेश को इनमें से एक ही 'या' की स्थिति चुननी है। 26 जनवरी 65 को इनमें से अंतिम 'या' अर्थात अँग्रेज़ी एकदम ग़ायब हो जाती है।
2. सन् 50 (या 51) से हिंदी विधानानुसार उ.प्र. की राजभाषा है। विधानसभा में तब से अँग्रेज़ी नहीं बोली जा सकती और यदि बोली भी जाती है तो अध्यक्ष की सहमति से ही। यदि 'किसी कार्य के वास्ते सीमित प्रयोग करने के लिए' अँग्रेज़ी के व्यवहार का संशोधित क़ानून बन गया तो एसेंबली में अँग्रेज़ी बोलने की परंपरा फिर से पड़ जाएगी। यह हमारे राष्ट्रीय स्वाभिमान के सही विकास के लिए सर्वथा अनुचित है।
3. संविधान में धारा 348 (3) के अंतर्गत प्रदेश के राज्यपाल को यह अधिकार प्राप्त है कि वह विधानसभा में प्रदेश की भाषा में पास होने वाले संशोधनों या पूर्ण विधान धाराओं को मूल के साथ ही साथ उसका अँग्रेज़ी का प्राविधिक अनुवाद भी राज्य के हिंदी-अँग्रेज़ी गजटों में प्रकाशित कर दे। न्याय समस्त कार्यों के लिए उक्त अँग्रेज़ी अनुवाद मूल के समान ही प्रामाणिक माना जाएगा।
जब यह सुविधा मौजूद है तब धारा 210 (2) में नए संशोधन की आवश्यकता क्या है? क्या हमें इसे अँग्रेज़ी फ़ैनेटिसिज़्म और इंपीरियलिज़्म का ख़ुफियावार न समझें कि ''बेटा उट्टर प्रडेश, टुम शान पचाश में हमको जान से मार कर अपना अम्मा हींडी को गड्डी पर बिठाया। मगर डेखो, हम मरा नहीं हैंगा, हम अब फिर शे असेंबली में टुमारा अम्मा का चाटी पर चरहकर मूँग डलेगा। टुम शाला हींडि वाला हमारा मूँ पर ठूका था, अब शाला लोक अपना ठूका 'अनंट काला' टलक चाटते रहो। हाः हाः हाः! गॉड सेव द क्वीन!''
बोलिए, महाचेता डॉक्टर रामविलासजी शर्मा जत्थेदार, अब भी आप वक़्त पड़े मेरे अनशन करने पर जत्था लेकर आएँगे?
‘गदर के फूल’ का एक प्रसंग याद आ गया। बाराबंकी ज़िले के बावन गाँवों के सत्रह सौ क़िदवाई जवान नवाब शुजाउद्दौला के साथ अँग्रेज़ी के विरुद्ध बक्सर में लड़ने के लिए गए थे। नवाब अंग्रेज़ों से हारकर घर लौटने लगे तो क़िदवाई लोग बोले: ''हुज़ूर, आप तो शाहे ज़माना हैं, हार कर भी मुँह दिखा लेंगे, मगर हम मामूली सिपाही यह शर्म क्यों कर बर्दाश्त कर पाएँगे।'' डॉक्टर साहब, मेरे बहुत से 'हिंदी बुज़ुर्ग' अपनी नपुंसक चिड़चिड़ाहट-भरी भाषाई टीसों में कराहते हुए भी बाइज़्ज़त जी सकते हैं, परंतु यह साधारण जन-अमृत जिसे हिंदी माता ने ही, जो कुछ भी वह है बनाया है उसका अनंत काल तक अपमान होने के बाद फिर कौन-सा मुँह दिखाने के लिए जीवित रहे?
...बात यहाँ पर आते ही तुम्हारे 25/8 के पत्र का उत्तर देने लायक़ स्थिति में आप से आप आ गई। लेकिन पहले तुम्हें एक पुराने चालू शेर की याद दिला दूँ:
इश्क़ की मजबूरियाँ पूछे जुलेखा से कोई
मिस्र के बाज़ार में यूसुफ़ को रुसवा कर दिया।
इसमें न तो मैं जुलेखा हूँ और न तुम यूसुफ़, मगर बक़ौल तुम्हारे, मेरी 'नखरा' अदायगी के पीछे इश्क़ की मजबूरियाँ तो भरपूर थीं ही। ग़लती मुझसे एक ही हुई, धर्मयुग को पत्र भेजने के साथ ही मुझे तुरंत तुम्हारे पास कैफ़ियत लिख भेजनी थी। लापरवाही कर गया, चाहो तो क्षमा कर दो और न करोगे तो... मेरा क्या? ख़ैर, विवरण सुनो—
माई डियर मिनिस्टर मानव के पत्र वाला रहिमन दोहा तुम्हें लिख कर भेज ही चुका हूँ। अब दूसरे दिन सुबह की डाक से पाए गए दो पत्रों के अंश फूल की तरह सूँघो—
(1) नवनीत किशोर मिश्र, लखनऊ (स्व. डॉ. ब्रजकिशोर मिश्र का ज्येष्ठ पुत्र) अंतर्देशीय पत्र के पैसे ख़र्च करके लिखता है: ''आज पूज्य चरण के संबंध में लिखे गए लेख को पढ़कर मन न जाने कैसा हो उठा।...आपका स्मरण करके पुनः एक चित्र-सा उभर आता है। (पिता की) शवयात्रा के समय कितना आपने मुझे बल दिया था। आज मन काफ़ी परेशान हुआ और सहसा आपकी याद करके मेरी आँखें भींग गईं।'' आदि-आदि।
(2) आनंदशंकर कटारे, विदिशा: ''धर्मयुग में आपका विवरण पढ़कर हिंदी साहित्य के महारथियों की इस देश में स्थिति का विचार आया। वास्तव में देखा जाए तो स्थिति बहुत कुछ सोचनीय है...'' इत्यादि।
(3) एक टेलीफ़ोन दिन में रिज़र्व बैंक के आफ़िस से किसी बाबू पाठक श्री... जैन का आता है।...साहब ये क्या हमारा दुर्भाग्य है कि आप जैसे महान पुर्शों को इतना सहन करना पड़ता है'' — इस टाइप की वार्ता 15 मिनट तक!
शाम को उनसे न रहा गया तो 'महान पुर्श की दैनीय दशा' पर आँसू बहाने के लिए पूछते-पूछते घर आ पधारे। यहाँ आकर उन्हें दिखलाई दिए साहजी की हवेली के रोमन खंभे महफ़िली आँगन और मेरे ड्राइंग रूम का बिन टके का राजसी वैभव। देखते ही बुझ गए बेचारे। हालाँकि मैंने उन्हें चाय, पान और अपनी मीठी भली बातों से काफ़ी संतुष्ट कर दिया, पर इसका मुझे पक्का विश्वास है कि वे मुझसे और तुमसे (तुमसे विशेष रूप से) बोर होकर ही लौटे थे। मेरी आर्थिक स्थिति की दीनता उन्हें मेरे घर में नज़र न आई। उनकी एक बात मेरे इस विश्वास का प्रमाण है।— ''ये जाने क्या बात है साहब कि हिंदी के महान पुर्शों के लिए चंदों की अपीलें बहुत निकलती हैं साहब? क्या वाक़ई पब्लिसर लोग इनको एक्सप्लाएट करते हैं या इनके ख़र्चे इतने ज्यादा और अधिक होते हैं कि...''
इन जैन साहब के जाते ही मैंने अपना कर्तव्य निश्चित कर लिया।
तुम्हारी बात सही है। हैमलेट और किंग लियर की थकनी, हँफनी और संजीवनी तीनों ही मुझमें ज्यों की त्यों मौजूद हैं, तीनों ही अलग-अलग मौक़ों पर अलग-अलग ढंग से अपना-अपना जलवा दिखलाती हैं। मगर हिंदी के वर्तमान दैन्य भरे वातावरण को अपनी आर्थिक चिंता से लाद कर और दीन नहीं बनाना चाहता। इस समय हिंदी भाषा-भाषी समाज को हिंदी की दीनता के जूने पुराने रोने से मुक्त किए बिना हमारा काम चल ही नहीं सकता। यह दीनता का स्वर हमारे जन को निःसहाय, हत बुद्धि और नपुंसक विद्रोही बनाता जा रहा है। यह झूठ नहीं कि शुद्ध साहित्य लेखन व्यवसाय में आने वाले को अपनी सीमिततम आमदनी होने की बात को सावधानी से होश में गिरह देकर बाँध लेना चाहिए। मैंने भी बाँधी थी, वही आन तो मेरी संजीवनी है। थकनी-हँफनी मानवीय कमज़ोरी या विशेषता के तौर पर आती है और अपना उदास जलवा भी दिखलाती हैं, मगर ये जल्वा महज़ चलता-फिरता ही है, स्थाई भाव लेखन कार्य की आस्था ही है। इसीलिए जन भ्रमजाल से अपने को बचाने के लिए दो-एक वाक्य सारे ख़ालिस सच में 'नरो वा कुंजरो वा' ट्रिक से लिख दिए, ''अब वैसा टूटापन अनुभव ही नहीं करता...'', मेरे 'नख़रे' के 'ही' वाले ज़ोर पर ध्यान दो जानेमन! इसीलिए कहा कि इश्क़ की मजबूरियाँ भी समझा करो। मैं अपने जीते जी अपने पाठक के सामने वह 'अर्थ-दयनीय' चित्र नहीं आने देना चाहता। विद्वान तो ख़ैर तुम अव्वल-नंबरी हो ही, परंतु भावुक भी बेहद हो। मेरे पत्रों में कभी-कभी लिखी गई थकनी और हँफनी की बात को तुमने एक साथ पढ़ा, सनाका खा गए, जैसे अभी मेरे अनशन की बात पर, मेरे मोहवश सनाका खा गए। हे महावीर, तनिक अपने सिद्धांत का विचार भी करो। हिंदी समाज का 'मनेादर्शन' करो। एक तो मेरा विश्वास है, रामकृपा से मैं बिना अनशन किए ही अपने मिशन में सफल हो जाऊँगा; पर मान लो, न हुआ, अनशन द्वारा प्राणांत होने की नौबत भी आ गई तो... तेरा तो महज़ एक दोस्त ही जाएगा, मगर उससे हिंदी के साहित्यिक गौरव और उसके स्वाभिमान की बिखरी चेतना में नए प्राण पड़ जाएँगे, वह संगठित हो जाएगी। कितना बड़ा लाभ होगा।
तुम्हें बहुत-बहुत प्यार। अपना दिल सम्हालो। बहुत जोश आए तो कुछ लिख डालो। चाहत जगाओ हिंदी वालों के दिल में हिंदी के लिए।
सौ. भाभी को राम राम। तुम्हें भी। आयुष्मान् बेटों, बेटियों और सौ. बहुओं को बहुत-बहुत असीसें और प्यार।
तुम्हारा
अमृत
(2 सितंबर 64, 2.34 रात्रि)
पुनः
1. अपने वक्तव्य की नकल शीघ्र ही भेजूँगा।
2. हिंदी के भुजबल दिखलाने वाले 50 हज़ार तैयार तो कर लो। वह संगठन अभी हमने किया ही कहाँ है? वही हो जाए तो कौन... अनशन करके प्राण दे?
विद्वद्वर, हिंदी भूषण
श्रीमान डॉक्टर रामविलासजी शर्मा
एम.ए., पीएच.डी.
30, न्यू राजामंडी
आगरा
स्रोत : रचनाकार : अमृतलाल नागर
What's Your Reaction?






