मोहन राकेश का पत्र राजेंद्र यादव के नाम
मोहन राकेश ने राजेंद्र यादव के उपन्यास की खूबियों के साथ-साथ उसकी कमजोरियों की भी ईमानदारी से चर्चा की है, जिससे यह पत्र साहित्यिक आलोचना का उत्कृष्ट उदाहरण बन गया है।

डी.ए.वी.
कॉलेज, जालंधर
माई डियर राजेंद्र यादव,
दोस्त उपन्यास की पांडुलिपि भेजने में दो दिन की देरी हो ही गई, जो अपनी आदतों को देखते हुए बहुत कम है। ख़ैर, पार्सल आज रवाना हो गया।
उपन्यास मैंने पूरा पढ़ा है—एक एक शब्द! मुझे उपन्यास के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध में एक भेद लगा। जहाँ पूर्वार्ध में तुम्हारी दृष्टि की पकड़ बहुत यथार्थ है, वहाँ उत्तरार्ध में वह सैद्धांतिकता और निष्कर्षवाद के चक्कर में काफ़ी हिल गई है—तुमने हर पात्र पर थोड़ा बहुत नक़ली पेंट चढ़ा दिया है। परिणाम यह है कि अंत में सब पात्र कठपुतलियों की तरह चालित होने लगते हैं—यहाँ मेरी मुराद प्रधाऩ पात्रों से है। उपन्यास का अंत नाटकीय या ठीक कहें तो मैलोड्रैमैटिक सा है—घटनाओं को तुमने इस बुरी तरह एक दूसरी पर लाद दिया है कि स्वाभाविकता उनमें गुम होकर रह गई है। चरित्रों पर शाब्दिकता आ गई है और इस तरह तुमने अंत में चलकर ‘कृशन चंदरियत’ के प्रति आत्म-समर्पण कर दिया है...
पढ़ने में उपन्यास आरंभ से अंत तक रोचक है—कहानी कहीं ‘डल’ नहीं होती और यह कम सफलता नहीं है। इससे बड़ी सफलता है आरंभ से अंत तक तुम्हारी दृष्टि की स्पष्टता और अभिव्यक्ति की साहसिकता, बल्कि कहीं-कहीं दुःसाहसिकता। इस तरह इस पुस्तक से तुम्हें कुटिल दृष्टिपात और गाढ़ालिंगन तो बहुत मिलेंगे, परंतु निंदा-स्तुति के फेर से हटकर भी तो उपन्यास का एक अस्तित्व है और उस दृष्टि से इसकी सबसे बड़ी कमज़ोरी है सभी पात्रों की प्रायः एक ही भाषा में भाषण देने की प्रवृत्ति—हर प्रसंग में वे पुस्तकीय ज्ञान बघारने से बाज़ नहीं आते—और अपनी स्वाभाविकता और लैक्चरबाज़ी को मिलाकर वे रेडियो सीलोन का व्यापार विभाग बन जाते हैं। मैं इसे तुम्हारी कमज़ोरी कहूँगा कि तुमने जो कुछ पढ़ा है, और जो तुम्हें अच्छा लगा है, उसे पात्रों के मुँह में ज्यों का त्यों कहलवाने के लोभ को तुम संवरण नहीं कर सके—यह लोभ तुम्हें उन चीज़ों का विस्तार देने में भी रहा है, जो तुमने कभी देखी है, परंतु जिनका फ़ोटोग्राफ़िक विस्तार के साथ वर्णन उन श्रेणी के पाठक को उकता देगा, जो श्रेणी प्रायः इसे पढ़ेगी। तुम्हारी हज़ार कोशिश के बावजूद उपन्यास की अपील ‘इंटेलीजेंशिया’ तक ही सीमित होगी और उस दृष्टि में हर तीसरे क़दम पर तौलियों-अलमारियों और मेज़पोशों के रंग, डिज़ाइन और सईज़ गिनाने लगना बहुत ‘एमैच्योरिश’ लगता है। ‘डिटेल’ देने का यह मतलब कदाति नहीं है कि आदमी बाणभट्ट का चेला बनकर मैदान में उतर आए, कि साले पढ़ने लगा है तो अब जाता कहाँ है—ले, जूड़े का नाप और स्टाइल याद कर, तेल का रंग और ख़ुशबू पहचान, ब्लाउज़ का कपड़ा और कट देख—अच्छी ख़ासी White ways की सैर हो जाती है।
मुझे ज़्यादा ग़ुस्सा इसलिए आया कि साला इतना अच्छा आरंभ था—ऐसी अच्छी Development चल रही थी और आप जाने दूसरे शो में कोई बंबइया पिक्चर देख आए और उपन्यास के अंत को उसी रंग में ढाल दिया। साले ज़रा पेशेंस से काम लेता तो क्या बिगड़ जाता?
अब ज़रा टेकनीक के बखिए उधेड़े जाएँ—आरंभ से उपन्यास में हर चीज़ को शरत् की दृष्टि से देखा गया है, इसलिए पाठक शरत् के साथ ही चलता है। यह महा ‘सोचालु’ चरित्र, काफ़ी हद तक भी राजेंद्र यादव जी के व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्व करता है—मज़ाक़ तो वह ठेठ उन्हीं की ज़बान में करता है (और वही क्यों, हर पुरुष और स्त्री प्रायः मज़ाक़ करते समय ठेठ राजेंद्र यादवीय स्टाइल अपना लेना अपना जन्मजात अधिकार समझता है।) ख़ैर! तो शरत् के साथ चलते हुए आपको दो एक-जगह दिक़्क़त पेश आई और आप उस बेचारे को अकेला छोड़कर दूसरी जगह जा पहुँचे (जैसे कार में बैठे कथूरिया जी से सूरज जी की बातचीत के प्रसंग में और ‘बातें! बातें! बातें!’ शीर्षक अध्याय के कट सींज़ में। यहाँ जर्क लगता है। या तो फिर शरत् का पल्ला पकड़कर ही चलते। यह कमज़ोरी बहुत खलती है!
ख़ैर निंदा बहुत हो गई। अब सुनो कि पूर्वार्ध के सूरज नेता भैया और माया देवी बहुत शार्प चरित्र हैं, जैसे कि हिंदी में बहुत कम देखने में आते हैं। शरत् सबसे ज़्यादा Composite अर्थात् घालमेल चरित्र है—बाद में तुमने सभी को Composite (चरित्र) बना दिया है। भाषा की दृष्टि से कहा जा सकता है कि इतनी सजीव भाषा भी बहुत कम मिलती है। कई जगह दर्पण बहुत सुंदर और Images बहुत आकर्षक है।
मगर एक बात बताओ कि यह साला शरत् ‘चेतन और गर्म राख’ के हीरो (क्या नाम था उसका?) का ही परिशोधित संस्करण नहीं है? अंतर केवल इतना है कि यह साला मार्क्सिस्ट विश्लेषण कर लेता है। पर उपन्यास की परिणति तो पलायन में ही है—भले ही सूरज जी की नसें प्रत्यंचा की तरह तन गईं, परंतु वह प्रत्यंचा भी एक धोखे से ज़्यादा क्या है?
अंत में—
भूमिका में गाड़ी की लेक्चरबाज़ी की उपन्यास की मेन थीम पर क्या स्टेयरिंग है? वो चीज़ बहुत हल्की-हल्की आई है। उपन्यास का ढाँचा उठकर खड़ा नहीं है जैसी कि अपेक्षा होती है। अतः अब अपना तीसरा उपन्यास जल्दी से लिख डालो।
सस्नेह
राकेश
नोटः 'उखड़े हुए लोग' पर चर्चा है।
स्रोत : पुस्तक : अब वे वहाँ नहीं रहते संपादक : राजेन्द्र यादव रचनाकार : मोहन राकेश प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
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