"जज, जूरी और जल्लाद नहीं बन सकतीं सरकारें": सुप्रीम कोर्ट ने बुलडोजर कार्रवाई पर लगाई लगाम
सुप्रीम कोर्ट ने 'बुलडोजर न्याय' पर सख्त रुख अपनाते हुए साफ कहा है कि सरकारें कानून को अपने हाथ में नहीं ले सकतीं। न्यायिक प्रक्रिया के बिना किसी की संपत्ति ध्वस्त करना असंवैधानिक है। यह टिप्पणी नागरिक अधिकारों की रक्षा और विधि के शासन के लिए एक मील का पत्थर मानी जा रही है।

नई दिल्ली | 22 जून 2025 : सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक टिप्पणी करते हुए साफ कर दिया है कि भारत में शासन संविधान के अनुसार चलेगा, न कि प्रशासनिक ताकत या भीड़तंत्र के दबाव में। कार्यवाहक प्रधान न्यायाधीश जस्टिस बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली पीठ ने कथित 'बुलडोजर न्याय' पर सुनवाई के दौरान कहा: "राज्य सरकारें न तो जज बन सकती हैं, न जूरी और न ही जल्लाद।"
यह कड़ी टिप्पणी उन मामलों के संदर्भ में आई है जहाँ हाल के वर्षों में दंगों, विवादों या अपराध के आरोपियों के घर या प्रतिष्ठान को बिना कानूनी प्रक्रिया के सीधे बुलडोजर से गिरा दिया गया।
प्रकरण की पृष्ठभूमि:
उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात और दिल्ली सहित कई राज्यों में, कुछ मामलों में प्रशासन ने यह कहते हुए कार्रवाई की कि भवन ‘अवैध निर्माण’ हैं। लेकिन असल में यह कार्रवाई तब की गई जब संबंधित व्यक्ति पर किसी आपराधिक मामले में आरोप लगे, और यह कदम तत्काल प्रतिशोधात्मक रूप में उठाया गया। कई बार प्रशासन ने बिना किसी पूर्व नोटिस, अदालती आदेश या सुनवाई के ही नागरिकों के घरों को गिरा दिया। यह मुद्दा राष्ट्रीय बहस का विषय बना और अनेक जनहित याचिकाएँ सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गईं।
सुप्रीम कोर्ट की तीखी टिप्पणी:
जस्टिस बी.आर. गवई और जस्टिस एसवी भट की पीठ ने टिप्पणी की: “राज्य सरकारें स्वयं को जज, जूरी और जल्लाद नहीं बना सकतीं। भारत एक लोकतांत्रिक और संवैधानिक गणराज्य है, जहाँ कानून का शासन सर्वोपरि है।”
“किसी के खिलाफ आपराधिक आरोप लगे हों, इसका अर्थ यह नहीं कि सरकार अपने हाथों में कानून ले ले और संपत्ति को नष्ट कर दे।”
अदालत ने स्पष्ट किया कि यदि कोई निर्माण अवैध है तो उसके खिलाफ विधिक प्रक्रिया अपनानी होगी -नोटिस देना, सुनवाई का अवसर देना और फिर उचित न्यायिक आदेश प्राप्त करना आवश्यक है।
याचिकाकर्ताओं की दलील:
याचिकाकर्ताओं ने अदालत को बताया कि अक्सर यह कार्रवाई बदले की भावना से की जाती है और यह 'प्रशासनिक प्रतिशोध' का रूप बन गई है। इसके पीछे कोई ठोस दस्तावेज़ नहीं होते, और यह 'भीड़ को शांत करने का दिखावा मात्र' बन गया है।
न्यायिक प्रश्न:
पीठ ने सरकारों से प्रश्न पूछा:
क्या नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन सिर्फ इसलिए उचित है क्योंकि वे किसी हिंसक घटना में संदिग्ध हैं?
क्या बिना नोटिस और सुनवाई के संपत्ति ध्वस्त करना कानून सम्मत है?
क्या यह संविधान की धारा 14 (समानता), 21 (जीवन व स्वतंत्रता का अधिकार) और 300A (संपत्ति का अधिकार) का उल्लंघन नहीं है?
राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव:
सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी एक संदेश है उन सरकारों के लिए जो ‘कठोर कार्रवाई’ की छवि के नाम पर विधिसम्मत प्रक्रिया की अनदेखी कर रही हैं।
‘बुलडोजर’ एक प्रतीक बन चुका है, कानून व्यवस्था का या दमन का यह अब सार्वजनिक विमर्श और चुनावी राजनीति दोनों का हिस्सा बन चुका है।
न्यायिक आदेश:
अदालत ने सभी संबंधित राज्यों को निर्देश दिया कि वे पिछले एक वर्ष में की गई ऐसी सभी ध्वस्तीकरण कार्रवाइयों का रिकॉर्ड प्रस्तुत करें। यह भी बताएँ कि किन मामलों में उचित नोटिस और अदालती आदेश लिए गए थे। अगली सुनवाई तक ऐसी कोई कार्रवाई बिना न्यायिक आदेश के न की जाए।
यह निर्णय केवल एक अदालती टिप्पणी नहीं, बल्कि भारत में लोकतंत्र और नागरिक स्वतंत्रता के सिद्धांतों की पुनर्पुष्टि है। यह बताता है कि भारत में प्रशासनिक शक्ति सीमित है, और कानून सर्वोपरि है।
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