बक्शो देवी: नंगे पाँव दौड़ती वह उम्मीद, जो हिमाचल की उड़ान बन गई

बक्शो देवी, हिमाचल प्रदेश की ऊना ज़िले की एक साधारण परिवार से आने वाली असाधारण धाविका हैं जिन्होंने 2015 में इंदिरा स्टेडियम में नंगे पांव 5000 मीटर दौड़ जीतकर स्वर्ण पदक प्राप्त किया। आर्थिक तंगी, पिता का अभाव, और शारीरिक कष्टों के बावजूद उन्होंने कभी हार नहीं मानी। उनकी मां के संघर्ष और उनके आत्मबल ने उन्हें भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय खेल प्रोत्साहन पुरस्कार 2016 तक पहुँचाया। बक्शो देवी की कहानी प्रेरणा, संकल्प और संघर्ष से उपजी एक जीवंत गाथा है जो बताती है कि संसाधन नहीं, 'संकल्प' विजेता बनाता है।

Jun 19, 2025 - 06:55
Jun 19, 2025 - 07:33
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बक्शो देवी: नंगे पाँव दौड़ती वह उम्मीद, जो हिमाचल की उड़ान बन गई
बक्शो देवी

जब दुनिया चकाचौंध ट्रैक सूट, ब्रांडेड जूतों और स्पॉन्सरशिप के सहारे रेस जीतने की बात करती है, तब बक्शो देवी जैसी बेटियाँ नंगे पाँव दौड़कर स्वर्ण पदक जीतती हैं। वे न केवल ट्रैक पर अपनी गति से सभी को पीछे छोड़ती हैं, बल्कि समाज की बेड़ियों, आर्थिक तंगी और शारीरिक पीड़ा को भी पछाड़ देती हैं।

हिमाचल प्रदेश के ऊना जिले की यह साधारण-सी दिखने वाली असाधारण युवती, 2015 में ऊना के इंदिरा स्टेडियम में आयोजित 5000 मीटर दौड़ में नंगे पाँव दौड़ती है। उसकी चाल में कोई तकनीकी प्रशिक्षण नहीं, कोई स्पॉन्सर नहीं - बस जज़्बा, जुनून और ज़िंदगी को हराने का संकल्प है। दौड़ के अंत में जब वह पहला स्थान प्राप्त करती है, तो स्टेडियम में केवल तालियाँ नहीं बजतीं, बल्कि आँखें भी नम हो जाती हैं

एक माँ की तपस्या, एक बेटी का संकल्प

बक्शो देवी के पिता नहीं हैं। उनकी माँ ने दिहाड़ी मजदूरी कर, टाट की झोपड़ी में ठंड के थपेड़ों से उन्हें बचाकर, दिन-रात खपकर बेटी को बड़ा किया। दौड़ की शुरुआत बक्शो देवी के लिए केवल प्रतियोगिता नहीं थी, यह भूख, गरीबी, अभाव और अस्वीकृति के खिलाफ़ एक दौड़ थी। वह पेट में पथरी के दर्द से कराहती रही, लेकिन दौड़ नहीं छोड़ी।

जब उनसे पूछा गया कि उन्होंने नंगे पाँव क्यों दौड़ा, तो उन्होंने बड़ी सहजता से कहा - "जूते नहीं थे, पर दौड़ना ज़रूरी था।" इस एक पंक्ति में जीवन के संघर्ष और जीत की पूरी महागाथा छुपी है।

सम्मान की दौड़ में भी आगे

उनकी इस अद्वितीय उपलब्धि को सराहा गया। वर्ष 2016 में भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय खेल प्रोत्साहन पुरस्कार से उन्हें सम्मानित किया गया। यह उस समाज के लिए भी एक आईना था जो अक्सर प्रतिभा को संसाधनों से जोड़कर आंकता है।

बक्शो देवी की सफलता यह साबित करती है कि प्रतिभा किसी ब्रांड या शहर की मोहताज नहीं होती, वह मिट्टी से जन्मती है, पसीने से सींची जाती है, और आत्मबल से निखरती है।

आज की प्रेरणा, कल की विरासत

बक्शो देवी केवल एक धाविका नहीं, एक विचार हैं- वह विचार जो कहता है कि अगर हौसला हो, तो परिस्थितियाँ रास्ता नहीं रोक सकतीं। वह उन बेटियों की प्रतीक हैं, जिनके पास सुविधाएं नहीं, पर सपनों की ऊँचाई बेहिसाब है। उनका यह संघर्ष तमाम ग्रामीण लड़कियों को बताता है कि दौड़ की जीत ट्रैक पर नहीं, मन में होती है।

बक्शो देवी की कहानी किसी फ़िल्मी पटकथा जैसी लग सकती है, लेकिन यह सच है- एक सच्चाई जो उम्मीद देती है, प्रेरणा जगाती है और हमें याद दिलाती है कि असली जीत पदकों से नहीं, बल्कि खुद से लड़कर उठ खड़े हो जाने से मिलती है। "बक्शो देवी, तुम दौड़ी नहीं - तुम हिमाचल की मिट्टी से एक आत्मगाथा उगाकर चलीं। तुम्हें सलाम!"

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