हाई कोर्ट के फैसले से गाँव के पंचायत की याद आई!

आज से करीब बीस साल पहले की बात है। गाँव में एक पंचायत बैठी। छायादार पीपल के पेड़ के नीचे। भरी दोपहरी में। पंचायत के सामने मामला आया। एक नाबालिक लड़की के पिता ने बताया कि कैसे गाँव के ही एक लड़के ने उसकी बेटी को खेत में पकड़ने की कोशिश की। जब वो बकरी को पानी पिलाने खेत गई थी। पाँचों ने बात सुनी। फिर लड़के के पिता ने बोलना शुरू किया। वो अपने बेटे के किए पर शर्मिंदा तो थे, लेकिन उसके किए को कोई बड़ा अपराध मानने के लिए तैयार नहीं थे। लड़की पंचों के सामने मौजूद नहीं थी, लेकिन लड़का वहाँ मौजूद था। लड़की-लड़के के बाप को सुनने के बाद एक पंच ने कहा- लड़के को समझाओ। ये अच्छी बात नहीं। गाँव की लड़की उसकी बहन हुई। कोई अपनी बहन के साथ ऐसा कुछ करता है क्या? पंच की बात सुन लड़के के बाप ने अपने बेटे पर नजरें तरेरी। मानों उसने उसी समय उसे समझा दिया। इसके बाद पंचायत उठ गई। न कोई सजा, न कोई जुर्माना, न मारपीट, कुछ भी नहीं। लड़की के घर वालों सहित पूरे गाँव ने फैसला मान लिया। किसी को कोई एतराज नहीं था।
आज बीस साल बाद पंचायत के उस फैसले की याद एकदम से आ गई। सारी पुरानी बातें। सारी चुप्पी। सारी हिदायतें एकदम से याद आ गई। और ये सब हुआ इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति जस्टिस मनोहर नारायण मिश्र के आदेश की वजह से। 11 साल की एक बच्ची के केस को सुनते हुए, जज साहब ने अपने फैसले में लिखा-बच्ची के
सोचिए, हाईकोर्ट का ये फैसला साल 2025 में आया है। निर्भया कांड के बाद। साल 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर बेंच के एक फैसले को पटलते हुए कहा था, 'किसी बच्चे के यौन अंगों को छूना या 'यौन इरादे' से शारीरिक संपर्क से जुड़ा कोई भी कृत्य पॉक्सो एक्ट की धारा 7 की तहत 'यौन हमला' माना जाएगा। अब मैं ये नहीं समझ पा रही कि सालों पहले पंचायत में बैठे पंचों को उनकी गलती के लिए दोष दिया जाए या इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति महोदय से उनके फैसले पर सवाल पूछा जाए? इस फैसले के बाद, उस लड़की के मनःस्थिति को भी समझने की कोशिश कर रही हूँ, जिसे एक लड़के ने उसकी छाती से पकड़ा। उसके पैजामे का नाड़ा तोड़ा और उसे पुलिया के नीचे खींचने की कोशिश की।
और अब अदालत कह रही है कि ये सब जो उस 11 साल की लड़की के साथ हुआ वो 'बलात्कार की कोशिश' जैसे अपराध को स्थापित करने के लिए काफी नहीं है। इस सब के बाद, कोर्ट के इस आदेश के बाद; उस लड़की के मन में कैसा तूफान मचा होगा? वो क्या सोच रही होगी? क्या वो इस फैसले के बाद न्याय व्यवस्था में भरोसा रख पाएगी? क्या इस देश की बाकी लड़कियाँ, महिलाएँ इस फैसले के बाद देश की न्याय व्यवस्था में अपना भरोसा कायम रख सकेंगी? ये बड़ा और जरूरी सवाल है जिसका जवाब इस देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट को खोजना चाहिए। ऐसा न हो कि गाँव की पंचायत और देश की अदालतों में कोई खास फर्क न रह जाए।
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