सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु पुलिस इंस्पेक्टर पर 2 लाख रुपये का जुर्माना बरकरार रखा

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला न केवल तमिलनाडु पुलिस इंस्पेक्टर के लिए एक सबक है, बल्कि यह पूरे देश की पुलिस व्यवस्था के लिए एक चेतावनी भी है। यह स्पष्ट करता है कि नागरिकों के अधिकारों का हनन और कानून के शासन की अवहेलना बर्दाश्त नहीं की जाएगी। यह फैसला न केवल शिकायतकर्ता तमिलसेल्वन के लिए न्याय सुनिश्चित करता है, बल्कि उन लाखों नागरिकों के लिए भी एक उम्मीद की किरण है जो पुलिस स्टेशनों में अपनी शिकायतें लेकर जाते हैं।

Apr 30, 2025 - 22:36
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सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु पुलिस इंस्पेक्टर पर 2 लाख रुपये का जुर्माना बरकरार रखा
सर्वोच्च न्यायालय

नई दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु पुलिस के एक इंस्पेक्टर पर तमिलनाडु राज्य मानवाधिकार आयोग द्वारा लगाए गए 2 लाख रुपये के जुर्माने को बरकरार रखा है। यह जुर्माना इंस्पेक्टर द्वारा शिकायतकर्ता की प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) दर्ज करने से इनकार करने और पुलिस स्टेशन में शिकायतकर्ता के साथ अभद्र भाषा का उपयोग करने के लिए लगाया था। कोर्ट ने अपने फैसले में संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रत्येक नागरिक के गरिमा के अधिकार पर जोर दिया और पुलिस के व्यवहार को अस्वीकार्य करार दिया। इस मामले ने पुलिस सुधारों और नागरिकों के प्रति जवाबदेही की आवश्यकता पर व्यापक चर्चा को जन्म दिया है।

मामले का विवरण : यह मामला तमिलनाडु के एक शिकायतकर्ता, एम. तमिलसेल्वन से संबंधित है, जिन्होंने आरोप लगाया था कि कुछ लोगों ने नौकरी दिलाने के नाम पर उनसे और उनके छोटे भाई से 13 लाख रुपये की ठगी की थी। जब तमिलसेल्वन ने इसकी शिकायत दर्ज कराने के लिए स्थानीय पुलिस स्टेशन का रुख किया, तो वहां तैनात इंस्पेक्टर ने न केवल उनकी एफआईआर दर्ज करने से मना कर दिया, बल्कि उनके साथ अपमानजनक और अभद्र भाषा का भी इस्तेमाल किया। इस घटना ने शिकायतकर्ता के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया, जिसके बाद उन्होंने तमिलनाडु राज्य मानवाधिकार आयोग का दरवाजा खटखटाया।

तमिलनाडु राज्य मानवाधिकार आयोग ने मामले की जाँच के बाद इंस्पेक्टर को दोषी पाया और उन पर 2 लाख रुपये का जुर्माना लगाया, साथ ही तमिलनाडु सरकार को निर्देश दिया कि वह शिकायतकर्ता को यह राशि मुआवजे के रूप में दे और बाद में इसे इंस्पेक्टर से वसूल करे। इंस्पेक्टर ने इस फैसले को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की थी।

सुप्रीम कोर्ट का फैसला : 30 अप्रैल 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने राज्य मानवाधिकार आयोग के फैसले को बरकरार रखते हुए कहा कि पुलिस स्टेशन में शिकायत लेकर आने वाले प्रत्येक नागरिक को सम्मान और गरिमा के साथ व्यवहार किया जाना चाहिए। कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 21 का हवाला देते हुए कहा कि गरिमा के साथ जीने का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति का मौलिक अधिकार है, और पुलिस का अभद्र व्यवहार इस अधिकार का स्पष्ट उल्लंघन है।

कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि पुलिस का प्राथमिक कर्तव्य संज्ञेय अपराधों में एफआईआर दर्ज करना और जाँच शुरू करना है। इंस्पेक्टर द्वारा एफआईआर दर्ज न करना न केवल कानून का उल्लंघन था, बल्कि यह पुलिस व्यवस्था में जवाबदेही की कमी को भी दर्शाता है। कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि ऐसी घटनाएँ कानून के शासन को कमजोर करती हैं और आम नागरिकों का पुलिस पर भरोसा घटाती हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा, "पुलिस स्टेशन में शिकायत लेकर आने वाला प्रत्येक व्यक्ति संविधान के तहत गरिमा का हकदार है। एफआईआर दर्ज न करना और शिकायतकर्ता के साथ अपमानजनक व्यवहार करना न केवल अनुचित है, बल्कि यह कानून के शासन के खिलाफ है।"

मामले का पृष्ठभूमि और संदर्भ : यह मामला उस समय सामने आया जब तमिलनाडु में पुलिस सुधारों और नागरिकों के प्रति पुलिस के व्यवहार पर पहले से ही बहस चल रही थी। सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी कई अवसरों पर पुलिस द्वारा एफआईआर दर्ज न करने की प्रवृत्ति पर चिंता जताई है। 2013 में, कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में अनिवार्य रूप से संज्ञेय अपराधों में एफआईआर दर्ज करने का आदेश दिया था, जिसमें कहा गया था कि एफआईआर दर्ज न करना अपराधों की 'दबाने' की प्रवृत्ति को बढ़ावा देता है, जो प्रतिवर्ष लगभग 60 लाख मामलों में देखा जाता है।

इसके अलावा, यह मामला तमिलनाडु पुलिस के व्यवहार से संबंधित अन्य घटनाओं के संदर्भ में भी महत्वपूर्ण है। हाल के वर्षों में, पुलिस द्वारा शिकायतकर्ताओं के साथ दुर्व्यवहार या गैर-कानूनी कार्रवाइयों के कई मामले सामने आए हैं। उदाहरण के लिए, 2024 में मद्रास हाई कोर्ट ने एक इंडोनेशियाई मसाज थेरेपिस्ट के मामले में पुलिस इंस्पेक्टर पर 2.5 लाख रुपये का मुआवजा लगाया था, जिसे गैर-कानूनी रूप से हिरासत में लिया गया था।

सामाजिक और कानूनी प्रभाव : सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने पुलिस सुधारों और नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए एक मजबूत संदेश दिया है। सोशल मीडिया पर इस फैसले की व्यापक सराहना हुई। X पर कई उपयोगकर्ताओं ने इसे पुलिस की जवाबदेही सुनिश्चित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम बताया। एक उपयोगकर्ता ने लिखा, "सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला पुलिस को याद दिलाता है कि वे कानून से ऊपर नहीं हैं। नागरिकों के साथ सम्मानजनक व्यवहार उनका कर्तव्य है।"

कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि यह फैसला पुलिस अधिकारियों के लिए एक नजीर स्थापित करेगा, जो शिकायतकर्ताओं के साथ दुर्व्यवहार या अपने कर्तव्यों में लापरवाही बरतते हैं। यह पुलिस प्रशिक्षण और संवेदनशीलता कार्यक्रमों की आवश्यकता को भी रेखांकित करता है ताकि पुलिसकर्मी नागरिकों के प्रति अपने व्यवहार में सुधार ला सकें।

पुलिस सुधारों पर बहस: यह मामला पुलिस सुधारों की व्यापक आवश्यकता को फिर से सामने लाता है। सुप्रीम कोर्ट ने 2006 के प्रकाश सिंह मामले में पुलिस सुधारों के लिए व्यापक दिशानिर्देश जारी किए थे, जिसमें पुलिस की स्वायत्तता, जवाबदेही और प्रशिक्षण पर जोर दिया गया था। हालांकि, इन सुधारों का कार्यान्वयन अभी भी कई राज्यों में अधूरा है। तमिलनाडु जैसे राज्यों में, जहाँ पुलिस पर राजनीतिक दबाव और संसाधनों की कमी की शिकायतें आम हैं, ऐसे मामले पुलिस व्यवस्था में सुधार की तत्काल आवश्यकता को दर्शाते हैं।

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सुशील कुमार पाण्डेय मैं, अपने देश का एक जिम्मेदार नागरिक बनने की यात्रा पर हूँ, यही मेरी पहचान है I