और कितने विखंडन?

महावीर के नाम पर हम छुट्टियाँ जरूर मना लेते हैं, लेकिन आज महावीर हमारे मन और समाज से नदारद हैं। उन्होंने कहा था – “अहिंसा, संयम और तप।” जिस मनुष्य का मन उक्त धर्म में संलग्न रहता है उसे देवता भी नमस्कार करते हैं, और हम आज जिसके पास ज्यादा पैसा और बाहुबल होता है, उसे नमस्कार करते हैं।

Apr 10, 2025 - 22:39
Apr 10, 2025 - 22:42
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और कितने विखंडन?
महावीर जयंती विशेष

पृथ्वी पर मानव की उत्पत्ति कैसे हुई, इस संबंध में धार्मिक,आध्यात्मिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण अलग- अलग हैं। वेदों के अनुसार ब्रह्म से आत्मा की उत्पत्ति हुई और आत्मा से जगत की। वहीं उपनिषदों के अनुसार ब्रह्म से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई और ब्रह्मा ने स्वयं को दो भागों में विभक्त कर लिया। उसका एक भाग पुरुष मनु रूप में था और दूसरा भाग शतरूपा स्त्री रूप में।
पुराणों में भी मानव की उत्पत्ति के बारे में अलग-अलग मत हैं। विज्ञान का मानना है कि हम जो मानव का  आज का स्वरूप देख रहे हैं, उसका जन्म करीब 315 लाख वर्ष पूर्व हुआ था। सभ्यता के विकास क्रम में हम जैसे-जैसे सभ्य और सुसंस्कृत होते गए धीरे-धीरे हमारे मन की सरलता हमसे रूठ कर चली गई, क्योंकि उस स्थान को हमने चालाकियों का घरौंदा बना दिया।
जगत के अन्य प्राणियों और प्राकृतिक संसाधनों पर तो हमने अत्याचार किए ही, विकास के इस क्रम में हमने अपने निजी स्वार्थ की खातिर, अपने अंदर की मनुष्यता को भी नहीं बख्शा। आज से लाखों वर्ष पूर्व जब हम जंगलों में रहते थे तब हम इतने विभाजित नहीं थे। सिर्फ स्त्री-पुरुष की प्रकृति से मिली हुई देह थी। वहाँ कोई हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, पारसी, जैन, बौद्ध, सिख नहीं था। न ही हजारों जातियाँ और उपजातियाँ ही थीं। मुश्किलें थी, लेकिन जीवन सीधा और सरल था। वहाँ आज की तरह लोमड़ी जैसा चालाक मन, विश्वासघात, चोरी, भ्रष्टाचार, ऊँच-नीच, अमीरी-गरीबी, सांप्रदायिकता और धर्म के नाम पर झगड़े नहीं थे।
आज हमने न जाने अपने कितने विभाजन कर लिए –  स्त्री बाँटा, पुरुष बाँटा / बाँटा कुल, धर्म और जात। / घर- द्वार, उर-आंगन बाँटा, / बाँट दिया मनुष्यता जात।।
जैसे- जैसे हम सभ्य होते गए हमारे अंदर की मासूमियत गायब होती गई। आज के समाज ने पैसे और पॉवर को ही इज्जतदार का पैमाना बना दिया। जिस कारण लोग इसे पाने के लिए किसी भी अनैतिक काम को करने से नहीं चूकते। महावीर के नाम पर  हम छुट्टियाँ जरूर मना लेते हैं, लेकिन आज महावीर हमारे मन और समाज से नदारद हैं। उन्होंने कहा था – “अहिंसा, संयम और तप।” जिस मनुष्य का मन उक्त धर्म में संलग्न रहता है उसे देवता भी नमस्कार करते हैं, और हम आज जिसके पास ज्यादा पैसा और बाहुबल होता है, उसे नमस्कार करते हैं।
महावीर राजघराने से थे, वो पैसे और पॉवर के मोहताज नहीं थे, फिर उन्होंने सब कुछ छोड़कर एक भिक्षु का मार्ग क्यों चुना। इसका मतलब तो यही है कि कुछ है हमारे जीवन में, जो इससे भी बड़ा है, जिसे पाने के लिए महावीर ने राज्य छोड़ दिया था।

संसार सुख का सागर है / ये सोच, स्वयं उसमें जाते डूब। / सुनामी सा जब संताप मिले / तब जीवन से जाते हम ऊब।। / सत्य,अहिंसा, संयम,समानता / ये हैं धर्म के रूप। / ईश्वर सदा इनमें बसे / नहीं दूजा कोई स्वरूप।। / आत्मा अजर, अमर, अविनाशी है / है आनंद की खान। / मन से मन का भेद कर / क्यों करते उसे बेजान।। / आत्मानंद एक आनंद है / बाकि सब क्षणभंगुर। / कंचन, कामिनी, काया पर / क्यों करते झूठे गुरुर।।

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