ध्यान अर्थव्यवस्था और नैतिक पतन: सोशल मीडिया के व्यावसायिक मॉडल पर पुनर्विचार

यह लेख सोशल मीडिया के एल्गोरिदमिक और विज्ञापन-आधारित व्यावसायिक मॉडल की आलोचनात्मक पड़ताल करता है, जो उपयोगकर्ताओं के ध्यान को वस्तु बनाकर मानसिक स्वास्थ्य, नैतिक मूल्यों और सामाजिक संबंधों पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। विशेष रूप से वंचित वर्गों के युवाओं पर इसके गहरे असर को रेखांकित करते हुए, लेख में डिजिटल लत, उत्तेजक सामग्री के फैलाव और तकनीकी कंपनियों की जिम्मेदारी पर विचार किया गया है। अंततः यह लेख नीति-निर्माताओं, समाज और स्वयं उपयोगकर्ताओं से डिजिटल नैतिकता और जागरूकता के लिए सक्रिय हस्तक्षेप की माँग करता है।

Jul 22, 2025 - 07:00
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ध्यान अर्थव्यवस्था और नैतिक पतन: सोशल मीडिया के व्यावसायिक मॉडल पर पुनर्विचार
सोशल मीडिया के व्यावसायिक मॉडल पर पुनर्विचार

21वीं सदी में अगर कोई संसाधन सबसे अधिक मूल्यवान हो गया है, तो वह है मानवीय ध्यान। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म अब केवल संवाद या मनोरंजन के माध्यम नहीं रहे, बल्कि वे एक व्यावसायिक युद्धभूमि में बदल चुके हैं, जहाँ ध्यान ही मुद्रा है और उपयोगकर्ता का समय ही लाभ का पैमाना। इस नए डिजिटल परिदृश्य में एक खतरनाक सच सामने आया है: हम सोशल मीडिया का उपयोग नहीं कर रहे, बल्कि सोशल मीडिया हमारा उपयोग कर रहा है।

ध्यान अर्थव्यवस्था और उपयोगकर्ता का भ्रम

ध्यान अर्थव्यवस्था’ (Attention Economy) की अवधारणा के अनुसार, हर क्लिक, स्क्रॉल और रिएक्शन की कीमत होती है। उपयोगकर्ता खुद को सूचना का उपभोक्ता समझते हैं, मगर हकीकत में वे ही विज्ञापनदाताओं के लिए उत्पाद बन चुके हैं। उनकी रुचियाँ, भावनाएँ, व्यवहार और यहां तक कि कमजोरियाँ भी, डेटा बिंदुओं में बदलकर बोली में चढ़ जाती हैं। जितनी देर हम स्क्रीन पर रुकते हैं, उतनी अधिक कमाई होती है- कंपनी की, इन्फ्लुएंसर की, और उस एल्गोरिदम की, जो हमें बांधे रखने के लिए तैयार किया गया है।

एल्गोरिदम: जो हमें पढ़ता ही नहीं, बदलता भी है

एल्गोरिदम अब सिर्फ सुझाव नहीं देते, वे हमारी पसंद को आकार देते हैं। हमारा फीड एक शीशे की तरह नहीं, बल्कि एक लेंस की तरह काम करता है, जो कुछ चीज़ों को बड़ा करता है और कुछ को पूरी तरह छुपा देता है। ये तकनीकी संरचनाएँ "दृष्टिकोण की विविधता" को खत्म कर, एक सीमित और उत्तेजक संसार रचती हैं, जिसमें उन्माद, घृणा, हिंसा और सनसनी को प्रमुखता मिलती है। ध्यान आकर्षित करने के लिए, यह एल्गोरिदम संतुलित विचार को छोड़कर विवाद, उत्तेजना और अफवाह को बढ़ावा देता है।

जब विवाद बिकता है: सामग्री का बाजारीकरण

सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर और कंटेंट क्रिएटर्स इस डिजिटल खेल में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अधिक व्यूज, लाइक्स और फॉलोअर्स के लिए वे अक्सर आपत्तिजनक, उकसाने वाली या विभाजनकारी सामग्री को प्राथमिकता देते हैं। यह प्रवृत्ति विशेष रूप से वंचित और असुरक्षित वर्गों के युवाओं को लक्षित करती है, जो पहचान, उद्देश्य और मान्यता की तलाश में ऐसे कंटेंट की ओर आकर्षित हो जाते हैं। यह कोई संयोग नहीं कि हाशिए पर खड़े समाजों के युवा पुरुष, जो आर्थिक और सामाजिक असुरक्षा से घिरे होते हैं, ऐसे डिजिटल प्रलोभनों में सबसे पहले फँसते हैं।

मानसिक स्वास्थ्य और नैतिक पतन: कीमत कौन चुका रहा है?

जहाँ एक ओर स्क्रीन पर बिताया गया समय कंपनियों के लिए लाभ बनता है, वहीं यह व्यक्तिगत मानसिक स्वास्थ्य, सामाजिक रिश्तों और नैतिक दृष्टिकोणों को कमजोर करता है।

 सोशल मीडिया पर निरंतर तुलना, अवसाद और आत्म-अस्वीकार की भावना को जन्म देती है।

 पारंपरिक नैतिक मूल्यों को उपहास और विद्रोह का विषय बनाया जाता है।

 आभासी उत्तेजना, वास्तविक जीवन के संबंधों को कृत्रिम और बोझिल बनाती है।

हमारा नैतिक विवेक धीरे-धीरे रील्सऔर कमेंट्सके माध्यम से रीप्रोग्राम हो रहा है।

क्या यह केवल व्यक्तिगत मामला है? नहीं, यह नीति का प्रश्न है

यह संकट अब केवल व्यक्तिगत चुनाव या अभिभावकत्व का प्रश्न नहीं रहा, बल्कि यह एक नीतिगत, सामाजिक और सांस्कृतिक आपातस्थिति है। जिस तरह सार्वजनिक स्वास्थ्य या शिक्षा के लिए नीतियाँ बनाई जाती हैं, उसी तरह डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर नियंत्रण और नैतिक दिशा की भी जरूरत है।

समाधान: एक समन्वित प्रयास की आवश्यकता

इस संकट से निपटने के लिए निम्नलिखित कदम आवश्यक हैं:

1. डिजिटल साक्षरता अभियान विशेषकर ग्रामीण और कमज़ोर समुदायों में।

2. एल्गोरिदम की पारदर्शिता तकनीकी कंपनियों को बताना चाहिए कि उपयोगकर्ता को क्या और क्यों दिखाया जा रहा है।

3. विज्ञापन और कंटेंट की निगरानी विशेष रूप से बच्चों और युवाओं को लक्षित करने वाली सामग्री के लिए सख्त मानक हों।

4. सकारात्मक डिजिटल इन्फ्लुएंसर्स को बढ़ावा ऐसी सामग्री जो आलोचनात्मक सोच, सह-अस्तित्व और मानसिक स्वास्थ्य को प्रोत्साहित करे।

5. नीतिनिर्माताओं और न्यायपालिका की सक्रिय भूमिका डेटा संरक्षण, मनोवैज्ञानिक प्रभावों और डिजिटल अधिकारों पर कानून बनें।

ध्यान का अर्थ और उत्तरदायित्व

आज जब डिजिटल दुनिया में सबसे मूल्यवान वस्तु हमारा ध्यान है, तो हमें तय करना होगा कि हम उसका उपयोग किसके लिए कर रहे हैंव्यक्तिगत विकास और सामाजिक चेतना के लिए, या केवल पूंजीवादी एल्गोरिद्म को पोसने के लिए?

समाज, अभिभावक, शिक्षक, नीति निर्माता और सबसे बढ़कर स्वयं उपयोगकर्ता इस उत्तरदायित्व से मुँह नहीं मोड़ सकते।

हमारी चुप्पी, उनकी कमाई है।

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सुशील कुमार पाण्डेय मैं, अपने देश का एक जिम्मेदार नागरिक बनने की यात्रा पर हूँ, यही मेरी पहचान है I