विनोद दुआ को याद करते हुए

डॉ. सुधा उपाध्याय

Dec 15, 2021 - 17:54
Mar 29, 2025 - 22:18
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विनोद दुआ को याद करते हुए

खुदा करे सलामत रहे

किसी दुआ की तरह

एक तू..

दूसरा मुस्कुराना तेरा....

विनोद मरा नहीं,  विनोद मरते नहीं- उनके एक अभिन्न मित्र की पंक्तियाँ उधार लेते हुये अपनी बात शुरू करती हूँ-

विनोद दुआ का व्यक्तित्व ही ऐसा था बिंदास बोल, निर्भीक नजरिया, विनोदमयी मुस्कान हमारे जनतंत्र के पहरुए की छवि किसी दुआ से कम ना थी। बोल जो नंपे-तुले संयमित मर्यादित नजर साफ पारदर्शी जो आज दुर्लभ है क्यूँकि तमाम वैचारिक चश्में कमिटेड होते हैं। राजनीतिक पार्टियों के जबकि विनोद दुआ के पास स्पष्ट नजरिया भी था। समय व समाज को जीवंत कर देनेवाली जिजीविषा से भरपूर मुस्कान भी थी।

विनोद दुआ साल 1996 में रामनाथ गोयनका पत्रकारिता सम्मान पाने वाले पहले टीवी पत्रकार थे। उन्हें केंद्र में मनमोहन सिंह सरकार के वक्त 2008 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया था। पत्रकारिता में सर्वश्रेष्ठ योगदान के लिए मुंबई प्रेस क्लब ने जून 2017 में उन्हें लाइफटाइम अचीवमेंट रेड लिंक अवार्ड दिया था। दुआ का जन्म 11 मार्च 1954 को हुआ था। विनोद दुआ का मतलब पार्टियाँ, हर मौके, बेमौके पार्टियाँ लेकिन अनौपचारिक बिना दिखावे की। किस्से, लतीफे और चुटकियाँ, हंसना, हंसाना, और बेलौस जीना। उनकी बेटी स्टैंड-अप मल्लिका में यह गुण शायद उनसे ही आए होगा। पत्रकारिता से दूर जब उन्होंने हिन्दुस्तान की सड़कों और गलियों और ढाबों के लोकल फूड पर एनडीटीवी पर कार्यक्रम किया 'जायका इंडिया का, तो उसे सिर्फ देखना नहीं होता था, आप उसमें उस फूड का ज़ायका महसूस कर सकते थे। उनकी दूसरी बेटी बकुल क्लिनिकल साइकोलोजिस्ट हैं, शायद वो किसी दिन बेहतर तरीके से समझा पाएं। उनका परिवार पाकिस्तान के डेरा इस्माइल खान से विभाजन के वक्त दिल्ली आए था। कम लोगों को मालूम होगा कि विनोद कभी कार्यक्रम की स्क्रिप्ट नहीं तैयार करते थे। न प्रॉम्प्टर पर पढ़ते थे। बेधड़क, सीधे, दो टूक, बिंदास। कभी-कभी कड़ुए हो जाते, पर अमूमन मस्त अंदाज में रहते। 'परख' के लिए आतंकवाद के दिनों में पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह से बात की। उन्हें कुछ गाकर सुनाने को कहाँ। ना-ना-ना करते गवा ही बैठे। विनोद दुआ का अपना विशिष्ट अंदाज था। इसमें उनका बेलागपन और दुस्साहस शामिल था। 'जनवाणी' कार्यक्रम में वे मंत्रियों से जिस तरह से सवाल पूछते या टिप्पणियाँ करते थे, उसकी कल्पना करना उस ज़माने में एक असंभव सी बात थी। सरकार नियंत्रित दूरदर्शन में कोई ऐंकर किसी शक्तिशाली मंत्री को ये कहे कि उनके कामकाज के आधार पर वे दस में से केवल तीन अंक देते हैं तो ये उसके लिए बहुत ही शर्मनाक बात थी। मगर विनोद दुआ में ऐसा करने का साहस था और वे इसे बारंबार कर रहे थे। इसीलिए मंत्रियों ने प्रधानमंत्री से इसकी शिकायत करके कार्यक्रम को बंद करने के लिए दबाव भी बनाया था, मगर वे कामयाब नहीं हुए। विनोद दुआ ने अपना ये अंदाज कभी नहीं छोड़ा। आज के दौर में जब अधिकांश पत्रकार और ऐंकर सत्ता की चाटुकारिता करने में गौरवान्वित होते नजर आते हैं, विनोद दुआ नाम का ये शख्स सत्ता से टकराने में भी कभी नहींं घबराया। लोकप्रियता के शिखर पर रहते वक्त भी वो ओढ़ी हुई गंभीरता के साथ नहीं रहते थे, एक जिंदादिल इंसान, जोश खरोश से भरा हुआ, अपने सहयोगियों को दोस्त मानने वाला। सड़क पर भुट्टा खाने, नमक मसाले वाली मूली खरीदने और गोल गप्पे खाने वाला विनोद दुआ बनना मुश्किल काम है। विनोद दुआ हिंदी टीवी पत्रकारिता में एक जानेमाने पत्रकार थे जिन्होंने अपने करियर की शुरुआत 'युवा मंच' से की थी जो दूरदर्शन पर युवाओं के लिए एक कार्यक्रम था। हालांकि उन्हें प्रसिद्धि उस चुनाव विश्लेषण से मिली जिसकी सह एंकरिंग उन्होंने 1984 में प्रणय रॉय के साथ दूरदर्शन पर की थी। विनोद दुआ की राजनीति से लेकर पाक कला तक में व्यापक दिलचस्पी थी। उन्होंने एनडीटीवी के लिए लोकप्रिय पाक कार्यक्रम 'ज़ायका इंडिया का' को प्रस्तुत किया, जिसमें उन्होंने भारत के विभिन्न शहरों और कस्बों की अलग-अलग खाद्य संस्कृतियों की खोज की। उन्होंने 'द वायर' (हिंदी) के लिए 'जन गण मन की बात' कार्यक्रम की एंकरिंग भी की।

उन्होंने कभी इस बात की परवाह नहीं की कि सत्ता उनके साथ क्या करेगी। सत्तारूढ़ दल ने उनको राजद्रोह के मामले में फँसाने की कोशिश की, मगर उन्होंने लड़ाई लड़ी और सुप्रीम कोर्ट से जीत भी हासिल की। उनका मुकदमा मीडिया के लिए भी एक राहत साबित हुआ। हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू  कई भाषाओं पर विनोद दुआ की पकड़ अद्भुत थी। प्रणय रॉय के साथ चुनाव कार्यक्रमों में उनकी ये प्रतिभा पूरे देश ने देखी और उसे सराहा। त्वरित अनुवाद की क्षमता ने उनकी ऐंकरिंग को एक पायदान और ऊपर पहुँचा दिया। देश की पहली हिंदी साप्ताहिक दृश्यात्मक पत्रिका 'परख' की लोकप्रियता इसका प्रमाण थी। इस पत्रिका के वे न केवल ऐंकर थे बल्कि निर्माता-निर्देशक भी थे। इसके लिए उन्होंने देश भर में संवाददाताओं का जाल बिछाया और विविध सामग्री का संयोजन करके पूरे देश को मुरीद बना लिया। वे अपने सहयोगियों को भरपूर आजादी देते थे। ये और बात है कि उस समय दूरदर्शन में हर रिपोर्ट प्रीव्यू होती थी और अधिकारी बहुत सारी काट-छाँट करवाते थे, मगर विनोद दुआ ने कभी इस पर आपत्ति नहीं की कि फलाँ स्टोरी में ये क्यों था या ये क्यों नहीं था। इसी दौर में वे 'ज़ी टीवी' के लिए एक कार्यक्रम चक्रव्यूह करते थे। ये एक स्टूडियो आधारित टॉक शो था, जिसमें ऑडिएंस के साथ किसी मौजूद सामाजिक मसले पर चर्चा की जाती थी। इस शो में विनोद दुआ के व्यक्तित्व और ऐंकरिंग का एक और रूप देखा जा सकता था। विनोद दुआ की पत्रकारिता की समझ का एक उदाहरण सहारा टीवी पर उनके द्वारा प्रस्तुत किया जाने वाला कार्यक्रम 'प्रतिदिन' भी था। इस कार्यक्रम में वे पत्रकारों के साथ उस दिन के अख़बारों में प्रकाशित ख़बरों की समीक्षा करते थे। इस कार्यक्रम में उनकी भूमिका को देखकर कोई कह ही नहीं सकता था कि ऐंकर पत्रकार नहींं है। विनोद दुआ ज़मीन से जुड़े हुए व्यक्ति थे। उनका परिवार विभाजन के वक्त पाकिस्तान के डेरा इस्माइल ख़ान से भागकर आए था और उसने वे तमाम दुश्वारियाँ झेली होंगी जो विभाजन पीड़ितों को झेलनी पड़ी थीं। इसलिए उनमें वह विनम्रता थी। बहरहाल, विनोद दुआ का इस तरह ऐसे समय में जाना पत्रकारिता की नहीं, लोकतंत्र की भी एक बहुत बड़ी क्षति है। उनकी उपस्थिति हम जैसे बहुत सारे लेखकों  -चिंतकों को तो प्रेरणा देती ही थी, उन लड़ाकों को भी लड़ने और सत्ता के दबावों को चुनौती देने की हिम्मत देती थी जो लोकतंत्र और साझी संस्कृति को बचाने के लिए प्रयत्नशील हैं।

आज की पीढ़ी या आने वाली नस्लें पता नहीं विनोद दुआ को कितना जानती है और किस रूप में उन्हें पहचानेंगी। व्हाट्सऐप-ज्ञान और ट्रोलिंग के इस दौर में लाँछित-कलंकित करने की प्रवृत्ति किसी के योगदान को नष्ट-भ्रष्ट करने में क्षण भर नहीं लगाती। लेकिन जब कभी विनोद दुआ का संपूर्णता में मूल्याँकन होगा, तो उन्हें एक पत्रकार योद्धा के तौर पर जाना जाएगा। धुंध छँटने के बाद ही आने वाली नस्लें तब जान पाएंगी कि विनोद दुआ नाम का एक ऐंकर था। इतिहासकार एस. इरफान हबीब ने कहाँ कि - वह भारत के सबसे विश्वसनीय पत्रकारों में से एक थे। उन्होंने ट्वीट किया, ''वह कुछ उन पत्रकारों में थे जिनकी रीढ़ की हड्डी सलामत थी, एक प्रिय मित्र और राजनीति, भोजन, संगीत और उर्दू शायरी के बारे में बात करने में बेहद निपुण। पिछले महीने फोन पर एक संक्षिप्त बातचीत हुई थी।''

सुप्रसिद्ध राजनीतिज्ञ समाजसेवी और पत्रकारिता जगत के गणमान्य लोगों ने अपने अपने अंदाज से विनोद दुआ को अंतिम विदाई दी। उल्लेखनीय व मार्मिक पंक्तियाँ से बेटी मल्लिका दुआ ने अपने इंस्टाग्राम पर लिखा, ''हमारे निर्भीक, निडर और असाधारण पिता विनोद दुआ का निधन हो गया है। उन्होंने एक अद्वितीय जीवन जिया, दिल्ली की शरणार्थी कॉलोनियों से शुरु करते हुए 42 वर्षों तक पत्रकारिता की उत्कृष्टता के शिखर तक बढ़ते हुए, हमेशा सच के साथ खड़े रहे।'' उन्होंने लिखा, ''वह अब हमारी माँ, उनकी प्यारी पत्नी चिन्ना के साथ स्वर्ग में हैं, जहाँ वे गीत गाना, खाना बनाना, यात्रा करना और एक दूसरे से नोंकझोंक जारी रखेंगे।''

कभी अलविदा ना कहना -विनोद का दौर, विनोद की जीवंतता और विनोद की निर्भीकता हमारे लिए अमिट है अविस्मरणीय है। नमन विनम्र श्रद्धांजलि ओम शांति।

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सुशील कुमार पाण्डेय मैं, अपने देश का एक जिम्मेदार नागरिक बनने की यात्रा पर हूँ, यही मेरी पहचान है I