वे आनंद के प्रतिरूप थे
डॉ. पंकज साहा

महाकवि तुलसीदास जी की एक सुप्रसिद्ध उक्ति है -
"आवत हिय हरषै नहिं, नैनन नहिं सनेह।
तुलसी तहाँ न जाइए, कंचन बरसै मेह।''
तुलसीदास जी से क्षमा-याचना कर उपर्युक्त पंक्तियाँ में थोड़ा हेर-फेर कर मैं कहना चाहता हूँ -
"आवत हिय हरषै, नैनन बरसै नेह।
'पंकज' तहाँ बार-बार जाइए, 'आनंद' हो जिस गेह।''
उपर्युक्त पंक्तियाँ मैं साहित्य-प्रेमी, साहित्यकार एवं 'मुक्तांचल' के प्रकाशक स्व. आनंद कुमार सिन्हा के लिए कह रहा हूँ।
वकीलों के संदर्भ में आम धारणा बहुत अच्छी नहीं है, परंतु पेशे से वकील आनंद जी से जब मैं पहली बार मिला, तब वे मुझे कहीं से भी वकील नहीं लगे। अलबत्ता उनके कार्यालय के कमरे में आलमारियों में सजीं कानून की मोटी-मोटी पुस्तकें उनके वकील होने का प्रमाणपत्र दे रही थीं।
उनका दूसरा पक्ष उनके ऊपर स्थित निजी बैठक में दिखा, जहाँ हिंदी-साहित्य की पुस्तकें, पत्रिकाएँ, शब्दकोश, ब्रिटेनिका इनसाइक्लोपीडिया के सारे खंड इत्यादि उन्हें साहित्य-प्रेमी साबित करने के लिए काफी थीं।
मुझसे उनका कोई पुराना संबंध नहीं था, लेकिन मुझसे वे इतने आत्मीय होकर मिलते थे मानों बहुत दिनों से जानते हों।
वैसे तो उनकी हिंदी-साहित्य की तमाम विधाओं में रुचि थी, परंतु व्यंग्य को वे बड़े चाव से पढ़ते थे। मेरा व्यंग्य उन्हें बहुत पसंद आता था। मेरी व्यंग्य पुस्तक 'हा! वसंत' को वे बड़े रुचि के साथ पढ़ते थे। इसी प्रकार 'सन्मार्ग' में मेरी कोई व्यंग्य-रचना छपती थी, तो उसे भी अत्यंत आग्रह के साथ पढ़ते एवं आनंदित होते थे।
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