यादों में बसे रहेंगे गीतेश शर्मा और उनके गुलजार रहने वाले साहित्यिक अड्डे
रावेल पुष्प

मेरी बचपन से ही पत्र पत्रिकाएं पढ़ने की आदत को पंख लगने शुरू हो गए थे और फिर कलम ने भी कुछ-कुछ लिखने की तरफ अपने कदम बढ़ा दिए थे। मैंने अपना महाविद्यालय का समय रानीगंज में बिताया तथा फिर पटना विश्वविद्यालय से गणित में स्नातकोत्तर करने के बाद भी रानीगंज में ही रहा, क्योंकि मेरी नौकरी भी वहीं एक बीमा कंपनी में लग गई।
रानीगंज का तिलक पुस्तकालय, जो काफी उन्नत था और वहाँ पुस्तकों के साथ ही देश की अधिकतर पत्र- पत्रिकाएँं भी पाठकों के लिए उपलब्ध थीं। मैं लगभग हर शाम पुस्तकालय के वाचनालय जाता और पत्रिकाएँ उलट-पुलट कर देखता, इसी क्रम में मेरी नजर एक साप्ताहिक अखबार पर पड़ी जिसमें महत्वपूर्ण आलेखों के साथ ही एक पृष्ठ साहित्यिक रचनाओं पर भी था। नए स्वर के उस अखबार का नाम था 'जन संसार' और संपादक के रूप में थे, 'गीतेश शर्मा!'
मैंने उस अखबार को पढ़कर कई बार पत्र भी लिखे और फिर नए स्वर के अंतर्गत अपनी कविताएँ भी भेजीं। मेरी कविताएँ वहाँ भी छप रही थीं और मेरा एक संबंध स्वाभाविक रूप से अखबार के साथ बनने लगा था। अब तो मेरे घर पर भी नियमित रूप से जन संसार डाक द्वारा आने लगा था। गीतेश शर्मा जी से मेरी इच्छा मिलने की हो रही थी। मेरा कलकत्ता जाना किसी न किसी बहाने होता ही था, तो मैं एक शाम धर्मतल्ला 'जन संसार' के कार्यालय पहुँचा तो वहीं गीतेश शर्मा जी से मुलाकात हुई और फिर भाई प्रेम कपूर तथा कुसुम जैन से भी। इसी तरह मिलने-जुलने का सिलसिला चलता रहा और उनके यहाँ होने वाले कार्यक्रमों में कभी-कभी शिरकत भी करने लगा था, लेकिन शुरुआती समय में सब मुझे रावेल शॉ पुष्प बुलाते थे और कहीं भी मेरा नाम किसी कार्यक्रम के लिए भेजते तो वहाँ मेरा नाम इसी रूप में होता। दरअसल उनके जेहन में हिंदी के कथाकार राबिन शॉ पुष्प थे। खैर, बाद में मैंने इसे स्पष्ट किया कि रॉबिन और रावेल दो अलग-अलग जीव हैं।
साल 1990 का समय था और पंजाब की घटनाओं पर आधारित गीतेश जी की पुस्तक आई थी 'पंजाब: सुलगता सवाल'। मैं, क्योंकि उन दिनों रानीगंज पंजाबी मोड़ में बीमा कंपनी के शाखा प्रबंधक के रूप में था और उस दौर में पत्रकारों की एक संस्था समाचार जगत की स्थापना से भी जुड़ा था। मैंने गीतेश जी को फोन किया कि मैं इस किताब पर चर्चा करवाना चाहता हूँ और आपका स्वागत भी, क्योंकि इस इलाके में पंजाब से जुड़े अधिकतर वाशिंदे हैं जिससे बहुत सी स्थितियाँ स्पष्ट हो सकेंगी। उन्होंने इस प्रस्ताव को स्वीकार किया और एक कार्यक्रम समाचार जगत के बैनर तले हुआ, जिसमें कई लोग शामिल हुए। वहाँ गीतेश शर्मा जी ने बताया कि वे पंजाब समस्या को आजाद भारत की ही नहीं भारत के इतिहास की सबसे बड़ी त्रासदी मानते हैं। एक तरफ धर्म और पंथ की रक्षा के नाम पर तो दूसरी ओर राष्ट्रीय एकता और अखंडता के नाम पर एक ही माँ की कोख से पैदा हुए दो सहोदर भाइयों हिंदू और सिक्खों के बीच ऐसी खाई पैदा कर दी गई कि दोनों एक दूसरे के खून के प्यासे हो उठे थे।
उन्होंने पुस्तक लिखने के बारे में बताया कि पंजाब की सांस्कृतिक, धार्मिक एवं राजनीतिक पृष्ठभूमि के साथ पंजाब के आज जो हालात हैं उनका तथ्यात्मक एवं वस्तुगत विश्लेषण इसमें किया है। उन्होंने साफ तौर पर कहाँ कि पंजाब समस्या का हल न तो खालिस्तान में है और ना ही चंडीगढ़ या नदी जल के बँटवारे में। इसका हल तो लोगों के टूटे दिलों में है। लोगों के दिलों को तोड़कर नहीं जोड़कर ही समस्या का हल हो सकता है।
उनकी यह बात भी काबिले-गौर रही कि आज धर्म की दुहाई देने वाले धर्म के ठेकेदार जब धर्म खतरे में है का नारा बुलंद करते हैं उनका एकमात्र मकसद नेतागिरी करना होता है। वे धर्म के पाखंड और कर्मकांड के पोषक होते है, और उनका आचरण धर्म के मूलभूत आदर्शों के सर्वथा विपरीत होता है। वे उन कारनामों को करते हैं या करने वालों को संरक्षण देते हैं जो उनके अपने हितों के विपरीत तो नहीं होता, लेकिन देश समाज और मानवता के हितों के विपरीत अवश्य होता है। इन्हीं तत्वों के कारण धर्म एक मखौल बन कर रह गया है। धर्म का जीवन के आचरण से कोई संबंध ही नहीं रहा।
गीतेश जी के साथ अंतरंगता तो तब और शुरू हुई जब मैं अपनी नौकरी के सिलसिले में तबादला लेकर कोलकाता आए और फिर अवकाश ग्रहण कर यहीं का होकर रह गया। यहाँ के साहित्यिक, सांस्कृतिक माहौल और विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं से जुड़ाव मुझे इस देश की सांस्कृतिक राजधानी कोलकाता ने फिर कहीं और जाने ही नहीं दिया। यहाँ आने के बाद तो फिर नियमित 'जन संसार' द्वारा लगने वाले साहित्यिक अड्डों में शिरकत करने के मौके मिलते रहे। उनकी इस काबिलियत पर कोई संशय नहीं रहा कि उनके यहाँ लगने वाले अड्डों में कौन सा साहित्यकार पत्रकार या फिर अन्य भाषाओं के, विचारधाराओं के लोग न आते हों और अपने विचार खुलकर प्रकट न करते रहे हों। उनके यहाँ लगने वाले अड्डों में खुशवंत सिंह, अमृता प्रीतम, इमरोज, विष्णु प्रभाकर, नामवर सिंह, अमृत राय, प्रेमेन्द्र मित्र, प्रकाशवती पाल, साहिर लुधियानवी, प्रभाकर श्रोत्रिय, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, अरुण कमल, प्रभा खेतान, केदारनाथ सिंह, अब्दुल बिस्मिल्लाह, डॉ. रणजीत, सुनील गंगोपाध्याय, मृणाल सेन, ममता शंकर, मिथुन चक्रवर्ती, गौतम घोष, हू थिन्ह, हाम आन थुई सरीखे न जाने कितने व्यक्तित्व आए हैं और उसके साथ ही नए लिखने पढ़ने वालों को भी वे जोड़ते रहे। उनके संपर्कों की दुनिया बड़ी विशाल रही।
जन कवि बाबा नागार्जुन तो अपने कोलकाता प्रवास में महीनों जनसंसार कार्यालय में ही रहते और यहाँ रह कर ही उन्होंने कई कविताएँ लिखवाईं। वे बोलते जाते और कभी गीतेश जी, कभी प्रेम कपूर और कभी कुसुम जैन लिखती जातीं।
वे इंडो-वियतनाम सॉलिडेरिटी कमेटी के पुरोधा भी रहे और कई बार वियतनाम की यात्राएँ कर चुके थे। इसके अलावा वियतनाम का जब भी कोई प्रतिनिधि मंडल भारत आता तो उसका स्वागत एवं कार्यक्रम 'जनसंसार' में अवश्य होता और हम सबको उसमें शरीक होने का मौका मिलता। कोलकाता पुस्तक मेले में वियतनाम मंडप हमेशा उनकी देखरेख में ही लगता।
गीतेश जी बड़े बेबाक किस्म के इंसान थे और धार्मिक आडंबरों के बिलकुल खिलाफ थे । वे अपने आप को घोर नास्तिक भी मानते थे और कहते थे कि धर्म के नाम पर लोगों में विभेद पैदा किया जाता है । हम अपने सामने धर्म का वीभत्स और बर्बर रूप ही तो देख रहे हैं । पूरे भारतीय उपमहाद्वीप और अफगानिस्तान में धर्म के रक्त रंजित इतिहास को दोहराया जा रहा है। हम सब देख रहे हैं कि अगर कहीं कोई ईश्वर है तो वह इतना असहाय क्यों है, कि इन सब को रोक ही नहीं पा रहा।
किसी भी धर्म पर या धार्मिक संगठनों तथा राजनीतिक दलों या कभी कुछ साहित्यकारों पर भी वे तल्ख़ टिप्पणियाँ करने से नहीं चूकते। जिसके कारण वे कभी भी अजातशत्रु नहीं रहे । उनकी एक और संस्था रही - डायलॉग सोसाइटी, जिस के बैनर तले भी कई अड्डे लगते रहे और कई बार मैंने भी उनका संयोजन किया। मेरा जनसंसार जाना अगर कुछ दिनों तक नहीं होता तो वे फोन करते - क्या बात है रावेल, मेरे से नाराज हो क्या? आओ एक दिन समय निकालकर एक साथ चाय पीएंगे, बातचीत करेंगे और फिर मैं समय निकालकर पहुँच जाता। इसी तरह एक शाम मैं धर्मतल्ला 'वैचारिकी' पत्रिका के कार्यालय में बैठा हुआ था। उन दिनों मैं उसके संपादन से जुड़ा हुआ था। उनका फोन आए रावेल कहाँ हो? मैं दिल्ली से वापस आ गया हूँ एक हफ्ते से उपर हो गया और तुम अभी तक मिलने भी नहीं आए। मैंने कहाँ ठीक है मैं आता हूँ।
कितनी देर में आओगे? जल्दी आओ, क्योंकि यहाँ तुम्हारी मुलाकात कुछ और भी मित्रों से हो जाएगी।
मैंने कहाँ आप फोन रखें और मैं बस पहुँचा ही समझें। मैं दस मिनटों में जनसंसार कार्यालय पहुँच गया। वहाँ गीतेश शर्मा जी के अलावा श्रीनिवास शर्मा और भाई जितेंद्र धीर थे। हम चारों काफी देर तक बातें करते रहे और फिर विदा हुए, लेकिन यह नहींं पता था कि गीतेश जी से यह मेरी आखिरी मुलाकात होगी और श्रीनिवास शर्मा जी से भी। दोनों शर्माओं से मेरी मुलाकात वही आखिरी रही। ये मुलाकात गीतेश जी से उनकी मृत्यु से हफ्ता-भर पहले की रही होगी। देश-दुनिया में फैले निष्ठुर कोरोना ने कतनों को अपना ग्रास बना लिया था और गीतेश जी को भी अपने सूक्ष्म किंतु भयानक जबड़े में दबा लिया था।
गीतेश जी ने ही मुझे प्रगतिशील लेखक संघ से भी जोड़ा और फिर दो-दो राष्ट्रीय अधिवेशनों में जाने का मौका भी मिला। इसके कारण देश के कई खास तौर से वामपंथी विचारधारा के लेखकों से मिलने के मौके मिले। आखिरी बार जयपुर में हुए अधिवेशन के बाद उनके साथ कार द्वारा सड़क माग के रास्ते दिल्ली आ रहा थे और हमारे साथ में थे- भाई विमल शर्मा, जीतेंद्र धीर, जीतेंद्र सिंह, प्रभामई सामंतराय। सारे रास्ते अधिवेशन तथा और भी विषयों पर बातचीत चलती रही। हम रास्ते में एक ढाबे पर रुके थे कुछ चाय-नाश्ता करने। ढाबे में जगह-जगह खाटें बिछी हुई थीं और हम लोग भी खाट पर बैठ गए। मुझे न जाने क्या सूझी तो मैंने जरा मजाकिया लहजे में गीतेश जी से कहाँ-मैंने नया मोबाइल लिया हुआ है, इसमें तस्वीरें बड़ी अच्छी आती हैं। आज मैं आपका फोटो-सेशन करता हूँ और कुछ तस्वीरें उतारता हूँ ताकि वे तस्वीरें वक्त जरूरत काम आ सकें।
मैं अभी जाने वाला नहीं हूँ रावेल, निश्चिंत रहो- उन्होंने छुटते ही कहाँ।
वो तो ठीक है, खुशवंत सिंह तो शतक पूरा नहीं कर सके, पर आप जरूर करें, लेकिन तस्वीर तो फिर भी काम आएगी ही।
मैंने उनकी कुछ तस्वीरें उतारीं और ये अजीब संयोग या दुर्योग रहा कि उनकी मृत्यु
( 02/5/2021) का समाचार जब अचानक मिला, तो मैंने वही ली गई एक तस्वीर के साथ फेसबुक पर दुखद समाचार पोस्ट किया। वो तस्वीर ही वायरल हो गई और कई अखबारों ने भी इसका उपयोग किया। सच कभी-कभी हँसी मजाक में कही हुई बात भी कितनी सच्ची हो जाती है।
उनकी मृत्यु के बाद वियतनाम के राष्ट्रपति न्यूग्येन शुआन फुक ने गीतेश शर्मा जी को गत पचास वर्षों से निरंतर दोनों देशों के बीच मैत्री संबंधों के विकास एवं विस्तार के लिए उनके अद्वितीय और अविस्मरणीय अवदान के लिए वियतनाम के सर्वोच्च "वियतनाम फ्रेंडशिप आर्डर मेडल" से सम्मानित किया।
गीतेश जी विभिन्न देशों की सरकारों एवं संगठनों के आमंत्रण पर कई बार विदेश यात्राएँ कर चुके थे, जिनमें सोवियत संघ, अमेरिका, कनाडा, बुल्गेरिया, जर्मनी, ब्रिाटेन, फ्रांस, थाइलैंड, उत्तर कोरिया, जार्डन सहित और भी कई देश शामिल हैं।
गीतेश जी की विभिन्न विषयों पर कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें साम्प्रदायिकता एवं साम्प्रदायिक दंगे, धर्म के नाम पर, बाबा नागार्जुन और कलकत्ता, भारतीय संस्कृति और सेक्स, हो ची मिन्ह और भारत, भगतसिंह का रास्ता, टैगोर : एक दूसरा पक्ष, राहुल : मंथन एवं चिंतन (संपादित) वगैरह।
उनकी मृत्यु के पश्चात अभी हाल में ही राजकमल प्रकाशन द्वारा उनके संपादन में भारत और वियतनाम के रचनाकारों की रचनाओं का एक संग्रह साहित्य संगम भी आए है।
गीतेश जी ता-उम्र साहित्य साधना में तथा इसी तरह की गतिविधियों में हमेशा सक्रिय रहे।
जो भी हो गीतेश शर्मा जी की स्मृति खासतौर से कोलकाता के साहित्यकारों में हमेशा बनी रहेगी और 'जनसंसार' में हरदम गुलजार रहने वाले उनके साहित्यिक अड्डे भी यादों में बसे रहेंगे।
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