आनन्द कुमार सिन्हा : एक संस्मृति
रामनिहाल गुंजन

मुझे अपने कोलकाता प्रवास का जब भी स्मरण होता है तो डॉ. मीरा सिन्हा और उनके पति आनन्द कुमार सिन्हा की याद जरूर आने लगती है। एक लंबे समय से मेरा कोलकाता आना जाना होता रहा और जब भी वहाँ जाता तो मेरा निवास उन्हीं के यहाँ होता। वे मुझे एक अलग कमरा दे देते और मेरे खाने-पीने की व्यवस्था कर देते। उसके बाद मेरे कोलकाता के मित्रों श्रीनिवास शर्मा, विमल वर्मा, शंभुनाथ, ध्रुवदेव मिश्र 'पाषाण', कपिल आर्ए, परशुराम आदि से मिलने का सिलसिला शुरू हो जाता। सुबह की चाय और नाश्ता सिन्हा दंपति के साथ ही होता। दोपहर का भोजन भी उन्हीं के साथ होता। बीच-बीच में हमलोग आपस में बातचीत करते, और उन दिनों की याद भी करते जब वर्ष 1977 में आपात काल में लागू काले कानूनों के खिलाफ अखिल भारतीय जन-साहित्य सम्मेलन आऐजित हुआ था। उस सम्मेलन में मैं बिहार से कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह, जितेन्द्र राठौर और नचिकेता के साथ शामिल होने आए था।
सम्मेलन के आऐजकों में आनंद कुमार सिन्हा, मीरा सिन्हा, ध्रुवदेव पाषाण और शंभुनाथ थे। उस सम्मेलन के कारण कोलकाता में बड़े पैमाने पर लेखकों का जमावड़ा हुआ और सम्मेलन का कार्यक्रम दो दिनों तक शानदार ढंग से चलता रहा। दरअसल इसके पहले वहाँ कहानी और कविता को लेकर कई यादगार सम्मेलन हो चुके थे, जिनमें जो लेखक शामिल हुए थे आज भी चर्चा करते थकते नहीं, लेकिन मेरे लिए तो यही सबसे बड़ा सम्मेलन था।
यों उस सम्मेलन से हिंदी साहित्य में विकास को जिन दो चीजों से बल मिला उनमें पहली थीं डॉ. मीरा सिन्हा के संपादन में निकली पत्रिका "अभिव्यंजना" जो बाद में 'मुक्तांचल' के नाम से प्रकाशित होने लगी तथा जो आज भी निकल रही है। दूसरी चीज थी पाषाण की कविता-पुस्तक 'कविता तोड़ती है', जिसका प्रकाशन सम्मेलन के अवसर पर ही हुआ था। इन दोनों का जिक्र मैं इसलिए कर रहा हूँ कि इनसे आज भी मेरा सरोकार किसी न किसी रूप में बना हुआ है। बहरहाल पत्रिका के बहाने आज भी मेरा संबंध सिन्हा-परिवार से है। मीरा जी जब भी किसी अंक के लिए मुझसे रचना या लेख के लिए आग्रह करतीं, तो उसमें आनंद कुमार सिन्हा जी का विशेष आग्रह रहता और मैं सहर्ष अपना लेख उन्हें भेज देता। इधर जब आनंद कुमार जी के नहीं रहने का एकाएक समाचार मिला तब मैं स्तब्ध रह गया। उनके साथ बिताये क्षण मुझे याद आने लगे। अभी दो वर्ष पहले आरा में मेरा सम्मान हुआ, उससे दोनों दंपति उत्साहित थे। उन्होंने इस अवसर पर अनामंत्रित रह जाने को लेकर मुझसे उलाहना भी की, यह उनका मेरे प्रति स्नेह और सम्मान का भाव ही था जो मुझे बराबर मिलता रहा। मेरी मीरा जी से जब भी बातचीत होती तो उनका भी स्वास्थ्य समाचार मैं जरूर पूछता और उनके स्वस्थ होने की सूचना से मैं आश्वस्त भी हो जाता।
पिछले दिनों जब 'मुक्तांचल' के एक अंक में आनंद कुमार सिन्हा की एक कहानी प्रकाशित हुई तो उसे पढ़कर मुझे अति प्रसन्नता हुई। मुझे नक्सलबाड़ी के वे दिन याद आ गए जब चारु मजूमदार के नेतृत्व में बंगाल में आन्दोलन और जोर से शुरू हुआ और बंगला के अनेक कवियों का उससे प्रभावित होकर क्रांतिकारी कविताएँ लिखना और उस दौरान पुलिस दमन के शिकार हुए नवयुवकों को लेकर लिखे गए महाश्वेता देवी के उपन्यास 'हजार चौरासी की माँ' की याद आना स्वाभाविक ही था। ऐसे में मुझे आनंद कुमार सिन्हा की उस कहानी की प्रासंगिकता का ध्यान आए और मैं उनकी और कहाँनियाँ पढ़ना चाहता था। संभव है, यदि मीरा जी मुक्तांचल का उन पर केंद्रित कोई अंक निकाले तो उसमें उनकी अन्य कहाँनियों और कविताओं को भी स्थान दें। इस प्रसंग में, मुझे याद है, मैं आनंद कुमार जी को कभी एक कथाकार के रूप में देख नहींं पाया था और न इसकी कभी चर्चा ही हुई। अगर इस कहानी को मैंने पहले पढ़ा होता तो मुझे उनके कथाकार वाले व्यक्तित्व में मुझे विशेष रूचि होती। मैं तो उन्हें एक साहित्यानुरागी ही समझता रहा और उनके अधिवक्ता के पेशे से ही परिचित रहा। इसलिए मैं जब भी कोलकाता जाता तो अक्सर उनके साथ चाय पीने और खाना खाने का अवसर मिल जाता। मीरा जी भी कॉलेज चली जातीं तो मेरे लिए दोस्तों से मिलने के लिए बाहर निकलना जरूरी हो जाता। मैं प्रतिदिन बाहर निकल कर कभी जी.टी. रोड स्थित शंभुनाथ के आवास पर जाता तो वहाँ शंभुनाथ के अलावा कई मित्रों से भेंट हो जाती। मुझे स्मरण है एक बार मैं पाषाण जी के स्कूल में चला गया था और उन्हें लेकर श्रीनिवास शर्मा और गोपाल प्रसाद के साथ पार्क स्ट्रीट स्थित स्वाधीनता कार्यालय गया था, जहाँ इसराइल और अरुण माहेश्वरी से भेंट हुई थी। जब में पहली बार कोलकाता गया था तब 'स्वाधीनता' के संपादक अयोध्या प्रसाद सिंह से वहीं भेंट हुई थी। तब वहाँ से 'कलम' नामक पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ था। एक अंक में कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह की कोई कविता प्रकाशित होने वाली थी, लेकिन उसे छपने से इसलिए रोक दिया गया था कि उसमें नक्सलबाड़ी की धमक सुनाई पड़ने का जिक्र था। जब अयोध्या सिंह ने उसका जिक्र किया तो मैंने बतलाया कि अक्सर जब कोई बड़ी घटना घट जाती है तो लंबे समय तक प्रभाव रहता है। वह प्रभाव भूमिगत होकर भी लोगों पर अपना असर डालता रहता है। इस बात से सहमत होकर अयोध्या प्रसाद सिंह ने उस कविता को प्रकाशित होने की अनुमति दे दी थी।
अगली बार मैं जब कोलकाता गया तो मीरा जी के आवास में ही ठहरा। आनंद कुमार जी से इस बार ज्यादा बातचीत हुई। चूंकि वो वैचारिक दृष्टि से काफी संपन्न थे, अतः बीच-बीच में उनसे सहमत-असहमत होते हुए मैंने भी उनसे काफी बातें की और इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि अगर वे अपने अनुभवों को आधार बनाकर किसी उपन्यास की रचना करें तो बेहतर होगा। उस समय तो उन्होंने लिखने का आश्वासन भी दिया। मैं उनसे इस बात की चर्चा किया करता था कि जब मैंने देखा कि ज्ञानरंजन जो एक अच्छे कथाकार होने के बावजूद कम ही कहाँनियाँ लिखे और जब उन्होंने अपनी पुस्तक 'ज्ञानरंजन की कहाँनियाँ' मेरे पास भेजी तो मैंने देखा कि उनकी चर्चित कुछ ही कहाँनियाँ हैं। अतः कहाँनियों के साथ-साथ मैंने उन्हें उपन्यास लिखने की सलाह दी
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