विकास के नाम पर सेल्फी पॉइंट्स: भ्रष्टाचार का नया चेहरा

विकास के नाम पर सेल्फी पॉइंट्स बनाना भ्रष्टाचार का एक नया चेहरा है, जो दिखावे की आड़ में जनता के धन को लूट रहा है। यह समय है कि हम इस चकाचौंध से बाहर निकलें और सच्चे विकास की ओर बढ़ें। विकास का मतलब केवल तस्वीरें खींचना नहीं, बल्कि समाज के हर वर्ग के लिए बेहतर जीवन सुनिश्चित करना है।

Apr 7, 2025 - 21:51
Apr 16, 2025 - 10:28
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विकास के नाम पर सेल्फी पॉइंट्स: भ्रष्टाचार का नया चेहरा

'विकास' आज एक ऐसा शब्द है, जिसे हर सरकार और प्रशासन अपनी उपलब्धियों का परचम बनाकर प्रस्तुत करती है। मगर सवाल उठता है कि क्या यह विकास जनता के हित में है या केवल दिखावे का खेल? हाल के वर्षों में भारत के विभिन्न शहरों और वार्डों में 'सेल्फी पॉइंट्स' का निर्माण तेजी से बढ़ा है। ये रंग-बिरंगे, आकर्षक स्थल सोशल मीडिया पर लोकप्रियता और लोगों का ध्यान खींचने के लिए बनाए जाते हैं। लेकिन इनके पीछे की हकीकत विकास के नाम पर भ्रष्टाचार और जनता के धन के दुरुपयोग की कहानी बयान करती है।

सेल्फी पॉइंट्स: उद्देश्य बनाम हकीकत

सेल्फी पॉइंट्स को शहरों को सुंदर बनाने, पर्यटन को बढ़ावा देने और स्थानीय लोगों के लिए मनोरंजन स्थल प्रदान करने के नाम पर बनाया जाता है। इनमें फूलों की सजावट, थीम आधारित मूर्तियाँ और रंगीन रोशनी का इस्तेमाल होता है, जो शुरू में आकर्षक लगता है। मगर क्या ये वास्तव में विकास में योगदान देते हैं? अधिकांश मामलों में ये पॉइंट्स कुछ ही समय बाद उपेक्षा का शिकार हो जाते हैं। रखरखाव के अभाव में ये कूड़े-कचरे का अड्डा बन जाते हैं या टूट-फूट के कारण अपनी चमक खो देते हैं।

इसका मूल कारण है बजट का अनुचित आवंटन और कार्यान्वयन में पारदर्शिता की कमी। इन परियोजनाओं के लिए लाखों-करोड़ों रुपये स्वीकृत किए जाते हैं, लेकिन वास्तविक निर्माण पर इसका छोटा हिस्सा ही खर्च होता है। शेष राशि अधिकारियों, ठेकेदारों और नेताओं के बीच बँट जाती है। यह भ्रष्टाचार का वह रूप है, जो चकाचौंध के पीछे छिपकर जनता को ठगता है।

भ्रष्टाचार का चक्र : सेल्फी पॉइंट्स के निर्माण में भ्रष्टाचार कई स्तरों पर फलता-फूलता है:  ऊपरी स्तर के अधिकारी अपनी 'कट' सुनिश्चित करते हैं। ठेकेदार घटिया सामग्री का उपयोग कर लागत कम करते हैं और बचे धन को बाँट लेते हैं। परियोजना की लागत को कागजों में बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जाता है, ताकि अधिक धन निकाला जा सके।

            उदाहरण के तौर पर, यदि किसी सेल्फी पॉइंट के लिए 10 लाख रुपये का बजट स्वीकृत होता है, तो इसमें से केवल 1-1.5 लाख रुपये ही निर्माण पर खर्च होते हैं। बाकी राशि 'सिस्टम' में बँट जाती है। नतीजा? जनता को एक अस्थायी ढाँचा मिलता है, जो जल्दी ही बेकार हो जाता है। यह धन अगर स्कूल, अस्पताल या सड़कों पर खर्च होता, तो समाज को कहीं अधिक लाभ मिलता।

शहर-शहर, वार्ड-वार्ड फैलता भ्रष्टाचार : यह समस्या किसी एक क्षेत्र तक सीमित नहीं है। देश के छोटे-बड़े शहरों और गाँवों तक में ऐसी परियोजनाएँ देखने को मिलती हैं। नगर निगम और स्थानीय प्रशासन इन्हें अपनी उपलब्धि बताते हैं, लेकिन यह जनता के साथ छलावा है। सेल्फी पॉइंट्स बनाना आसान है, क्योंकि इन्हें न जटिल योजना चाहिए, न दीर्घकालिक जवाबदेही। ये त्वरित लोकप्रियता का जरिया बन गए हैं, जिनके पीछे भ्रष्टाचार का जाल छिपा है।

जनता की चुप्पी ही भ्रष्टाचार को बढ़ावा : इस समस्या के बढ़ने में जनता की चुप्पी भी कम जिम्मेदार नहीं है। लोग सेल्फी पॉइंट्स पर तस्वीरें खींचकर, सोशल मीडिया पर डालकर खुश हो जाते हैं, लेकिन यह नहीं सोचते कि उनके टैक्स के पैसे की बर्बादी हो रही है। जागरूकता की कमी और प्रशासन से सवाल न पूछने की आदत ने इस भ्रष्टाचार को और बढ़ावा दिया है। यदि जनता अपने पार्षदों, अधिकारियों और नेताओं से हिसाब माँगे, तो इस खेल पर लगाम लग सकती है।

जागरूकता ही समाधान : हर परियोजना के बजट और खर्च का सार्वजनिक लेखा-जोखा हो। जनता दिखावटी परियोजनाओं के बजाय सड़क, पानी, बिजली और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए जन-प्रतिनिधि पर दबाव बनाए। भ्रष्टाचार का मुखर होकर विरोध हो, साथ में जनता प्रशासन से सवाल पूछे।

 

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सुशील कुमार पाण्डेय मैं, अपने देश का एक जिम्मेदार नागरिक बनने की यात्रा पर हूँ, यही मेरी पहचान है I