मैं अदब के एक मुसलसल सफर में हूँ: अमृता बेरा

इस साक्षात्कार में कुछ प्रश्नों के उत्तर विश्वव्यापी भाषा, साहित्य, संवेदना, मानवता के विषय में लोगों का यांत्रिक मन आज जिस तरह मुँह मोड़े खड़ा है, उसके विरुद्ध अभिव्यक्ति या प्रतिक्रिया है।

Apr 16, 2025 - 23:01
Apr 18, 2025 - 23:12
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मैं अदब के एक मुसलसल सफर में हूँ: अमृता बेरा
अमृता बेरा व मुहम्मद हारून रशीद खान

मुहम्मद हारून रशीद ख़ान: अब तक की आप अपनी रचना यात्रा को किस तरह देखती हैं?

अमृता बेरा: मैं अदब के एक मुसलसल सफर में हूँ। किसी ठौर ठहर अपनी रचना यात्रा के बारे में सोचने की फुर्सत ही नहीं मिली। पर लगता है अब तक बस सागर में एक बूँद बराबर ही कुछ कर पाई हूँ। फर्क इतना है कि पहले अनुवाद इसलिए करती थी कि अनुवाद करना अच्छा लगता था। भाषाओं के बीच आवाजाही, भाषाओं के बीच अनुवादके ज़रिए पुल बनाना एक तरह की क़ामयाबी का एहसास देता था। फिर धीरे-धीरे महसूस हुआ कि यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण और गंभीरकाम है, जिसे आप हल्के में नहीं ले सकते हैं। जो विषय, जो सामग्री आप अनुवाद के ज़रिए दूसरी भाषा में पहुंचा रहे हैं, उससे आपकी प्रतिबद्धता तय होती है, आपकी वैचारिकी, आपके सोचने का नज़रिया, आपका स्टैंड, आपका पॉइंट ऑफ व्यू आइडेंटिफ़ाई होता है। जिस तरह एक लेखक अपने लेखन के माध्यम से सामाजिक, राजनीतिक, नैतिक मामलों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है, अपनी पक्षधरता रखता है या प्रतिरोध का स्वर बनता है, उसी तरह एक अनुवादक के लिए अनुवाद का टूल भी ठीक यही काम करता है। और तभी अनुवादक की भी अपनी एक पहचान बनती है, वह महज़ एक पेड ट्रांसलेटर नहीं होता। और फिर, अनुवाद के माध्यम से आप विविध विषयों और शैलियों से परिचित होते हैं, भाषाई और बौद्धिक रूप से और समृद्ध होते हैं, अपनी योग्यता में और कई चीज़ें जोड़ते हैं।

बचपन से पढ़ने का शौक़ था। घर में बांग्ला, अंग्रेज़ी और हिंदी की लगभग सभी विधाओं की किताबों का कलेक्शन था। हालाँकि, घर में बच्चों की कॉमिक्स, पत्रिकाएँ, किताबें आया करती थीं, लेकिन मुझे बड़ों की किताबें ही ज़्यादा आकर्षित करती थीं। जबकि, उन किताबों को समझने की उम्र और परिपक्वता तब ठीक से उपजी भी नहीं थी, फिर भी एलेक्स हेली के ‘रूटस’, आएन रैंड की ‘फाउंटेनहेड’, हिंदी अनुवाद में तुर्गनेव का ‘टूटा टी-सेट’, आचार्य चतुरसेन की ‘वैशाली की नगरवधू’, अमृता प्रीतम की ‘हीरे की कनी’, नोबोकोव की ‘लोलिता’, मैक्सिम गोर्की की ‘मदर’, लियो टोलसटॉय की ‘ऐना कैरेनीना’ और भी कितने लेखकों की किताबों के प्लॉटस और चरित्रों का दिमाग़ में अध-जाना-समझा कोलाज बन गया, जो कहीं गहरे बस गया। कभी गोगोल, दोस्तोवएस्की, मारखेज़, चेखव तो  कभी चार अध्याय, गोरा या कृष्ण चंदर के किरदार अंदर से झाँकने लगते थे। उन सब किताबों के चरित्रों की जटिलताऐं तब मुझे ठीक से समझ में नहीं आती थीं। लगता है जैसे मैं अपने रचाए वंडरलैंड में ऐलिस की तरह भटकती रही हूँ। छोटों और बड़ों की दुनिया के बीच का संघर्ष मुझे हमेशा एक मानसिक उलझन में घेरे रहता था, कभी परेशान, कभी तनाव में, तो कभी अजीब संवेदनाएँ मन में जगती थीं। अक्सर उदास और अलग रहना शायद मेरे चरित्र का हिस्सा बन गया। हमउम्रों के साथ खेलना-कूदना, मौज-मस्ती मेरे बचपन का हिस्सा नहीं थे। तभी उनसे दोस्ती भी नहीं हो पाती थी। लेकिन अब मुझे बच्चों की किताबें और कॉमिक्स अच्छी लगती हैं। ‘मालगुडी डेज़’ के स्वामीनाथन, बांग्ला शुकतारा पत्रिका के बांटुल दी ग्रेट – हांदा भोंदा, चाचा चौधरी के जीवन की सहजताऐं, इंद्रजाल कॉमिक्स, टिनटिन, आर्चिस, सत्यजित राय के फेलूदा, शीर्षेंदु और शरदेंदु के डिटेक्टिव फ़िक्शन के किरदारों का फ़ुर्तीलापन, चतुराई, ह्यूमर मुझे मुस्कुराने के लम्हे देता है, और शायद तभी बचपन के इन छूटे हुए साथियों को अब मैं ढूंढ़ती और पढ़ती हूँ। मेरे बचपन के इन अनुभवों ने मेरे साहित्यिक सोच-समझ को कैसी शक़्ल दी, मुझे नहीं पता। 

खैर, वापस लौटूँ तो धीरे-धीरे मेरा रुझान कविताओं की ओर बढ़ता गया था। साथ ही ग़ज़ल गायन में दिलचस्पी गहरी होती गई। ग़ज़लें गाने लगी, कविताएँ लिखती थी। एकबार अपने पसंदीदा शायर का एक क़लाम पढ़ा - पस-ए-नविश्त (पत्र के पीछे लिखा हुआ)

“ख़ुदाबन्द! मुझे तौफ़ीक़ दे, मैं ऐसे ज़िन्दा लफ़्ज़ लिखूं / जो न लिखूं मैं तो दुनिया बांझ हो जाए / मगर फिर सोचता हूँ, इतने ज़िंदा लफ़्ज़ लिखे जा चुके हैं / और लिखे जा रहे हैं / मैं भी लिख लूंगा तो क्या हो जाएगा / क्या ये पुराना आदमी फिर से नया हो जाएगा / या दूसरा हो जाएगा!” - इफ़्तेख़ार आरिफ

पता नहीं क्यों, धीरे-धीरे मेरा लिखना लगभग बंद सा हो गया। इसी बीच अनुवाद ने मेरे दरवाज़े पर आकर दस्तक दी। अचानक एकदिन हिंदी की कविता पढ़ते हुए दिमाग़ में कविता की पंक्तियाँ अंग्रेज़ी में उभरने लगीं। कुछ ग़ज़लों का अनुवाद किया। मौसीक़ी बहुत काम आई, छंद, मीटर क़ायम रख पाई। धीरे-धीरे अनुवादों ने पांडुलिपि की शक़्ल ली और फिर किताब रूप में प्रकाशित हुई। यह प्रक्रिया साल 2008-09 के बीच की है। कविताओं का अनुवाद करना भाने लगा। मैं औचक ही किसी जादुई तरीक़े से, अचेतन रूप से इस विधा में शामिल हो गई। उसके बाद साल 2011 में ‘हंस’ के लिए, तसलीमा नसरीन के बांग्ला आलेखों का हिंदी में अनुवाद करना एक चुनौती के रूप में सामने आया, क्योंकि तब तक मैंने हिंदी में अनुवाद नहीं किया था। राजेंद्र यादव जी ने तसलीमा नसरीन को ‘हंस’ में कॉलम लिखने के लिए आमंत्रित किया था और चूंकि वह बांग्ला में लिखती हैं, सो किसी बांग्लाभाषी की ज़रूरत थी जो अच्छी हिंदी भी जानता हो। कथाकार-मित्र विवेक मिश्र और संजीव जी, जो उस समय ‘हंस’ में ही थे, ने मेरा नाम सुझाया। मुझे पहले ही बताया गया था कि अनुवाद पसंद नहीं आया तो वही पहला और आख़री अनुवाद होगा। उस समय वो मेरे लिए सबसे कठिन परीक्षा थी। लेकिन पहले अनुवाद के बाद दूसरा, फिर तीसरा और इस तरह सिलसिला चलता रहा। उस दौरान राजेंद्र यादव जी के घर की महफ़िलें, तसलीमा से दोस्ती, हिंदी साहित्य जगत से परिचय उस ख़ुशगवार वक़्त की यादें अब भी दिलों-दिमाग़ में महफ़ूज हैं।             

‘हंस’ में चल रहे ‘शब्दवेधी-शब्दभेदी’ के साथ-साथ, मैंने तसलीमा नसरीन की आत्मकथा का सप्तम खंड ‘निर्वासन’ का वाणी प्रकाशन के लिए अनुवाद किया, फिर हार्पर कॉलिन्स से रबिशंकर बल का ‘दोज़ख़नामा’, वेस्टलैंड एका से दलित बंगाली लेखक मनोरंजन ब्यापारी के आत्मकथात्मक उपन्यास त्रयी  ‘चांडाल जीवन’ का पहले और दूसरे खंड के साथ-साथ बांग्ला और हिंदी से अंग्रेज़ी मेंअनूदित दो कविताओं का संग्रह, जिमनास्ट दीपा कर्मकार के संस्मरणात्मक किताब का अंग्रेज़ी से बांग्ला में अनुवाद, और उधर हिंदी की लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में कविता, कहानी, लेख आदि के अनुवाद प्रकाशित होते रहे।

फ़िलहाल मैं मनोरंजन ब्यापारी के आत्मकथात्मक उपन्यास त्रयी ‘चांडाल जीवन’ के तीसरे खंड के अनुवाद में व्यस्त हूँ। चित्रकला में रुचि होने के कारण पहले भी चित्रकला पर लिखे बहुत-से लेखों का अनुवाद किया है। इधर हाल ही में ख्यातिलब्ध चित्रकार ‘जोगेन चौधरी’ द्वारा चित्रकला पर लिखी अहम किताब ‘चारूकला भावना’ का हिंदी अनुवाद ‘इंडिया टेलिंग’ प्रकाशन से आया है, जिसका अनुवाद करते हुए चित्रकला के अछूते पहलुओं के बारे में जान कर मैं ख़ुद को और समृद्ध कर पाई हूँ। अभी आगे बहुत काम करना है। चाहती हूँ बांग्ला का उत्कृष्ट, अग्रणी साहित्य हिंदी के पाठकों के लिए अनुवाद के माध्यम से ला सकूँ।         

मुहम्मद हारून रशीद ख़ान: आपने बांग्ला के प्रतिष्ठित उपन्यासकार रबिशंकर बल के उपन्यास ‘दोज़ख़नामा’ का ख़ूबसूरत अनुवाद किया है। ‘दोज़ख़नामा’ ग़ालिब और मंटो की बेहतरीन जीवनी है। क्या इस उपन्यास का अनुवाद करते समय आपको कोई दिक़्क़त महसूस हुई?

अमृता बेरा: जी, शुक्रिया। दरअसल, ‘दोज़ख़नामा’ एक अनूठे ख़ाके में बुना अद्भुत उपन्यास है। इसे आप ग़ालिब और मंटो की जीवनी नहीं कह सकते। बल्क़ि, इस में इन दोनों शख़्सियतों के ज़िंदगियों के इर्दगिर्द कल्पनाशीलता का एक ऐसा जगत बुना गया है, जिसमें ग़ालिब और मंटो अपनी-अपनी क़ब्रों में लेटे आपस में बेबाक़ बातचीत करते हुए एक सदी के फ़ासले पर जी अपनी ज़िंदगियों में, वक़्त के हाथों मिली शिकस्त, टूटे ख़्वाब, जिनकी शक़्लें एक-सी थीं, तमाम क़िस्सों-कहानियों के माध्यम से इस तरह बयां कर रहे हैं कि आप अनायास ही उनकी दुनिया में दाख़िल हो जाते हैं और उनके साथ हो लेते हैं, जहाँ हर क़िस्सा वास्तविक होने का एहसास कराता है। देखिए न! उपन्यास का आग़ाज़ ही कितना रोमांचक है – सआदत हसन मंटो की एक अप्रकाशित उपन्यास की पांडुलिपि लखनऊ में किसी बंगाली लेखक के हाथ लगती है। इस उर्दू उपन्यास के बांग्ला में तर्जुमे के लिए वह लेखक कोलकाता लौटकर तबस्सुम नाम की एक ख़वातीन की मदद लेता है। तबस्सुम लेखक के लिए उपन्यास का तर्जुमा करती जाती है, और ग़ालिब और मंटो के क़िस्से परत-दर-परत खुलते जाते हैं। 

इस उपन्यास का तर्जुमा करते हुए मैंने फिर से यह एहसास किया था कि मेरा ग़ज़ल गायकी का बैकग्राउंड होने से मुझे काफ़ी सहूलियत रही, वर्ना उर्दू अदब के इन दो दिग्गजों के अफसानों का, उर्दू और हिंदी के बीच संतुलन बनाकर बयां करना इतना आसां न था। कुछ उर्दू ज़ुबान के दोस्तों से मदद ली। रबिशंकर जी ने भी अरबी-फ़ारसी के शेरों की बांग्ला में प्रकाशित किताबें दीं थीं, जिनसे उन्होंने मूल बांग्ला उपन्यास के लिए शेर लिए थे। फिर भी, जब मैं ‘दोज़ख़नामा’ को पढ़ती हूँ तो लगता है अभी इसमें अनुवाद के और बेहतर होने की गुंजाइश है।               

मुहम्मद हारून रशीद ख़ान: रबिशंकर बल जी से आप कैसे प्रभावित हुईं? थोड़ा उसके बारे में बताएँ।

अमृता बेरा: रबिशंकर बल बंगाल के प्रख्यात कथाकार एवं सम्मानित पत्रकार थे। उनके30 साल के लेखन काल में उन्होंने 15 उपन्यास, 6 कहानी संग्रह, 3 काव्य ग्रंथ के अलावा नॉन फ़िक्शन आदि भी लिखा। उनके चर्चित उपन्यास ‘दोज़ख़नामा’ को साल 2011 में, पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा दिए जाने वाला सर्वोच्च कथा-साहित्य पुरस्कार, ‘बंकिमचंद्र स्मृति पुरस्कार’ मिला।

रबिशंकर एक प्रबुद्ध, बेहद संजीदा,नाईलिस्ट यानि नास्तिवादी विचारधारा के व्यक्ति और लेखक थे।उनका अपने जीवन और लेखन के प्रति बराबर एक नाईलिस्टिक अप्रोच रहा। अमूमन उनके सभी चरित्रों में इस मनोवाद को देखा जा सकता है। हो सकता है उनके लेखन का यह पुट शायद कहीं मेरे गहरे दबे मनोभावों से मैच करता हो, जिसने मुझे उनके लेखन की ओर खींचा। वैसे, उनकी कहानियों और उपन्यासों के मुख़्तलिफ़ प्लॉट्स जिनमें वह अपने किरदारों को ऐसे अनोखे अंदाज़ से पिरोते हैं कि आप प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। ‘दोज़ख़नामा’ उपन्यास की ही बात करूं तो इस उपन्यास में ग़ालिब और मंटो के जीवन से जुड़ी जो भी क़िस्से-कहानियां हैं या मसनवी दास्तानें हैं, लगभग सभी सुनी-सुनाई, इतिहास के पन्नों में दर्ज, दूसरी किताबों में पढ़ी हुई चीज़ें हैं। तो फिर रबिशंकर बल ने ऐसा अलग क्या रचा?

जब हम कोई किताब पढ़ते हैं तो उस किताब के लेखक और पाठक से इतर कोई घटना, कहानी, नैरेटिव होती है - यानी कोई कुछ कहना चाहता है, जिसका नैरेटर लेखक हो सकता है या कोई और। ‘दोज़ख़नामा’ के लेखक-पाठक-नैरेटिव त्रिभुज के भीतर जो रीडिंग तैयार हुई उसमें दो ध्वंसमात्मक इतिहास के समय के दो कथावाचक, ग़ालिब - जिन्होंने मुग़लों का पतन और पश्चिमी यूरोपीय सभ्यता का अतिक्रमण देखा, भोगा और मंटो - जिन्होंने धर्म के आधार पर दो देशों के विभाजन के विभीषिका को देखा, बंटवारे के दर्द को झेला। इसके अलावा इन दोनों किरदारों के साथ, उनकी अपनी सनक और क़िस्मत की मार भी थी। टेक्स्ट में इन दोनों का उपस्थापन एक तीसरे नैरेटर तबस्सुम ने किया, जहाँ लेखक भी मौजूद है, जो असल ज़िंदगी में भी ग़ालिब और मंटो की तरह ही वक़्त और अपनी मनोदशा के हाथों शिकस्त खाया इंसान है – वो एक तीसरे समय को रिप्रेज़ेंटे कर रहा है – जहाँबाज़ारवाद है, कन्ज़्युमरिज़्म ही एकमात्र सभ्यता है। यानी, इस दास्तान का असल नायक वो समय – वो डेस्टाइंड टाइम ट्रांज़िशन है जो सबकुछ उलट-पुलट कर मनुष्यों को निःसहाय कर देता है। आप उपन्यास के कथानक से न भावनात्मक रूप से जुड़ते हैं, न संवेगशील होते हैं, न आनंदित होते हैं और न ही दुखी, बस एक द्रष्टा की तरह प्रवाहमान सर्वग्रासी समयके गवाह बने रहते हैं। मुझे कथानक के इन पहलूओं ने बेहद प्रभावित किया। उपन्यास में कल्पनाशीलता की पराकाष्ठा का जो रोमांच मैंने महसूस किया और जिस अनूठे शैली में इस को प्रस्तुत किया गया है, पढ़कर ही मुझे लगा था कि इस उपन्यास को हिंदी के पाठकों तक हर क़ीमत पर पहुंचाना है। जैसे कि यह मेरी ज़िम्मेदारी हो। यह रबिशंकर बल और उनके लेखन का मेरे ऊपर प्रभाव था।

मुहम्मद हारून रशीद ख़ान: आप अंग्रेज़ी, बांग्ला और हिंदी तीनों भाषाओं में दख़्ल रखती हैं। नौकरी भी करती हैं। साहित्य सृजन में रत भी हैं। कैसे कर लेती हैं इतना काम आप?

अमृता बेरा: मेरी पढ़ाई अंग्रेज़ी में हुई, बांग्ला मेरी आत्मा और सपनों की ज़ुबान है और हिंदी दिल के बहुत क़रीब। दख़्ल का तो पता नहीं पर तीनों के प्रति, ख़ासकर अनुवाद करते वक़्त पूरी शिद्दत से वफ़ादारी निभाने की कोशिश करती हूँ। साथ ही यह भी जोड़ना चाहती हूँ कि उर्दू ज़ुबां से मुझे ख़ास मुहब्बत है और पंजाबी ठीक-ठाक समझ लेती हूँ।     

जहाँ तक वक़्त की बात है तो, कोई चीज़ अगर जुनून की हद तक हो तो उसके लिए वक़्त भी निकल आता है। सोशलाइज़ करने का ज़्यादा शौक़ नहीं, न शॉपिंग का, सोशल मीडिया पर भी ख़ास ऐक्टिव नहीं हूँ। कुछ समय वहां से निकल आता है। नींद भी चार घंटे से ज़्यादा नहीं होती है, इसका भी फ़ायदा है। फिर भी, जितना काम करना चाहती हूँ उतना नहीं कर पाती, क्योंकि सेहत के हाथों अक्सर मार खानी पड़ती है।       

मुहम्मद हारून रशीद ख़ान: ‘हंस’ पत्रिका में अक्सर सबसे पहले आपके द्वारा की गए अनुवाद को पढ़ता था। लंबे समय तक आपने तसलीमा नसरीन के द्वारा लिखे गए लेखों को ‘शब्दवेधी-शब्दभेदी’ के माध्यम से अनुवाद किया। दिसंबर 2023 में अंतिम अनुवाद प्रकाशित हुआ। आपने अनुवाद का काम बंद क्यों कर दिया?

अमृता बेरा: जिस तरह किसी लेखक को अपने लेखन से डेडिकेटेड पाठक मिलते हैं, उसी तरह ‘शब्दवेधी-शब्दभेदी’ कॉलम के माध्यम से मुझे भी मेरे अनुवाद के अनुरागी पाठक मिले। पाठकों के निरंतर उत्साहवर्धक संदेशों ने मुझे हमेशा और बेहतर काम करने की ऊर्जा दी। लेकिन, पिछले कुछ सालों से इस कॉलम को करने में एक मानसिक शिथिलता का अनुभव कर रही थी, या कहें तो निरुत्साहित होती जा रही थी। इसकी कई वजहें रहीं। एक तो एकरसता का एहसास हो रहा था, उधर तसलीमा के लेख भी थोड़े रेपिटेटिव-होते जा रहे थे, फिर ‘हंस’ में तेज़ी से आते बदलाव, उनकी कार्यनीतियां, उनका कॉलम के प्रति उदासीनता मुझे असहज कर रहे थे।      

मुहम्मद हारून रशीद ख़ान: राजेंद्र यादव के बाद ‘हंस’ पत्रिका में तेज़ी से गिरावट क्या अपने भी महसूस कर लिया? या कुछ और ही बात है? वैसे हिंदी की पत्रिकाएं पैसा तो देती नहीं हैं, कृपया विस्तार से बताएं।

अमृता बेरा: हर व्यक्ति का अपना एक अलग व्यक्तित्व, तेवर, ज़िंदगी जीने का तरीक़ा होता है, और अगर वह लेखक है तो उसकी एक मुख़्तलिफ़ लेखन शैली, विचारधारा, भावना, नीति-आदर्श, कौशल और दक्षता होती है, जिसे कोई दूसरा इमिटेट नहीं कर सकता या अपने अंदर वो सबकुछ उसी रूप में पैदा नहीं कर सकता है। कोई दूसरा उससे प्रभावित हो सकता है लेकिन उसका प्रतिरूप नहीं बन सकता है। राजेंद्र यादव बेख़ौफ़, अपने मतादर्शों पर – चाहे उस से आप सहमत हों या असहमत, अडिग खड़े रहने वाले साहित्यकार थे। शायद तभी उनके संपादकीय विचारोत्तेजक, पैने, ग़ैर-समझौतावादी, प्रतिष्ठान विरोधी, कड़वी सच्चाई को उजागर करने वाले होते थे। कुछ समय से ‘हंस’ का पहला पन्ना पलटते ही सबसे पहले जो दो हंसते चेहरे दिखते हैं, वो देश के प्रधानमंत्री और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के होते हैं जो डबल इंजन की सरकार के विकास के विज्ञापन में दिखाई देते हैं। अगले पृष्ठ पर जनचेतना का प्रगतिशील कथा-मासिक का सूचीपत्र और उस के बाद वामपंथी तेवर की धार लिए, सत्ता पर प्रहार, व्यंग-कटाक्ष करता संपादकीय। यह मन में उलझन पैदा कर रहा था। 

तमाम आर्थिक प्रतिबंधात्मकताओं के बावजूद ‘हंस’ को छापने का राजेंद्र जी के पास एक बजट होता था, जिसमें सभी लेखकीय योगदान देनेवालों के लिए, मामूली ही सही मानदेय शामिल था। जब तक राजेंद्र जी थे, मुझे हर महीने मानदेय की राशि का चेक और ‘हंस’ की प्रति मिलती रही। उनके बाद, धीरे-धीरे यह सिमटता गया और फिर बंद हो गया। मुझे उन रुपयों की ज़रूरत तब भी नहीं थी और जब मिलना बंद हुआ तब भी नहीं थी। लेकिन, वो मेरे श्रम और योग्यता के सम्मान देने का प्रतीक था। वैसे भी मुझे यह बात कभी समझ में नहीं आई कि कुछ को छोड़, कोई भी पत्रिका लेखकों को मानदेय नहीं देती है। जबकि लेखकों द्वारा दी गई सामग्री के बिना पर ही किसी पत्रिका का निकलना संभव होता है। पत्रिकाओं के प्रकाशक पत्रिका के लिए काग़ज़ ख़रीदने से लेकर प्रिंटिंग, बाइंडिंग, कवर-पेज डिज़ाइनिंग, मार्केटिंग, डिस्ट्रीब्यूशन, ऑफ़िस, स्टाफ के साथ-साथ विभिन्न कार्यक्रमों के आयोजनों (हॉल बुकिंग से लेकर रिफ़्रेशमेंट, बुके और तमाम ताम-झाम) पर ख़र्च करते हैं, लेकिन लेखकों को कोई मानदेय/पारिश्रमिक देना नहीं चाहता है। शायद यह उनके लिए विचारणीय भी नहीं है। आख़िर नि:स्वार्थ योगदान केवल लेखकों से ही क्यों चाहा जाता है? इसी तरह, अंग्रेज़ी के प्रकाशकों को छोड़ और भाषाओं के प्रकाशक ईमानदारी से लेखक, अनुवादकों को उचित पारिश्रमिक या रॉयल्टी नहीं देते हैं। सोचिए, इन हालात में क्या कोई लेखक या अनुवादक सिर्फ़ लेखन पर निर्भर रह सकता है? ऐसी परिस्थितियां किन्होंने बनाई हैं? कुछ हद तक लेखक और अनुवादक भी इसके ज़िम्मेदार हैं। हिंदी में स्थिति ऐसी है कि - पत्रिकाएं या प्रकाशन आपका काम छापते हैं तो, जी, आप इसका एहसान मानें, सोचिए अगर आपको छापना ही बंद कर दें तो? लेखक इसी चिंता और छपास के आग्रह में अपना हक़ मांगने में संकोच करते हैं, हिचकिचाते हैं। कान्ट्रैक्ट बनाने या रॉयल्टी के टर्म्स ऐंड कंडिशन्स, वार्षिक स्टेटमेंट्स पर ज़ोर नहीं देते हैं, मुंह ज़बानी शर्तों पर प्रकाशकों को किताबें देते हैं। दरअसल हिंदी की अधिकतर पत्रिकाएं, लिटिल मैगज़ीन के संकल्पना और शर्तों की पत्रिकाऐं नहीं हैं। इसके बारे में बात करने पर अलग से चर्चा करनी होगी। यदि साहित्य छापने में कोई फ़ायदा नहीं है तो आज आए दिन एक नया प्रकाशक पैदा नहीं हो रहा होता, बड़े पैमाने पर साहित्यिक आयोजन (लिट फ़ेस्ट), पुरस्कारों की धूम नहीं मची होती, नई-नई पत्रिकाएं नहीं निकल रही होतीं। जब तक लेखक, अनुवादक इन बातों को समझअपनी आवाज़ नहीं उठाते हैं, यह सूरत कभी नहीं बदलेगी। पूरी तरह से लेखन को समर्पित लेखक या अनुवादक नहीं तैयार हो पाएंगे। पार्ट-टाइम, जीवनयापन के संघर्षों से जूझते, लेखन के लिए समय तलाशते साहित्यकार ही रहे आएंगे।                       

इन कुछ सालों में मैं ‘हंस’ को एक ब्रांड नेम में बदलते देख रही हूँ। अब साल में एक-दो नहीं कई-कई कार्यक्रम होते हैं, लिट फ़ेस्ट भी होता है, पुरस्कार भी कई सारे हैं, किताबें भी छप रही हैं। हां, बहुत कुछ सकारात्मक हुआ है, बहुत-सी नई चीज़ें हो रही हैं, लेकिन ‘हंस’ अब एक व्यावसायिक प्रतिष्ठान के तर्ज पर काम कर रहा है। और बावजूद इन सबके हंस में लिखने वालों को मानदेय देने की परंपरा आर्थिक तंगी के कारण बंद कर दी गई है। वैसे, मैं यह दावे के साथ नहीं कह सकती कि यह सभी नियमित कॉलम लिखने वालों के साथ है या सिर्फ़ चुनिंदा लोगों के साथ।  

जब ‘शब्दवेधी-शब्दभेदी’ किताब की शक़्ल में अक्षर प्रकाशन से आ रही थी, तब मैं बहुत जोश के साथ इस से जुड़ी रही थी। बात हुई थी कि किताब की रॉयल्टी का परसेंटेज तय कर जल्दी ही कॉन्ट्रैक्ट तैयार किया जाएगा। लेकिन, किताब के आने के इतने समय बाद भी, न रॉयल्टी का परसेंटेज तय हुआ और न ही कोई रॉयल्टी दी गई। इन सब बातों से मेरा मन बुझता चला गया। उधर तसलीमा भी अपनी नाराज़गी बस मुझे ही ज़ाहिर करती रहीं, जहाँ कहना चाहिए वहां कुछ न कहा। बात यहाँ सिर्फ़ पैसों की नहीं सिद्धांतों की है, आत्मसम्मान की है। मुझे लगा था, इतने सालों से जुड़े होने से मैं ‘हंस’ परिवार की एक सदस्य हूँ। लेकिन, मेरे कॉलम छोड़ने की मंशा के बारे में पत्रिका के संपादक, संजय जी को अवगत कराने के बावजूद उन्होंने न मुझसे संपर्क किया, न कुछ पूछा और न ही कुछ कहा। रचना जी न्यूट्रल रहीं। मुझे लगता है शायद बाज़ार कभी राजेंद्र जी पर ऐसा प्रभाव नहीं डाल पाता कि उन्हें किसी तरह का समझौता करना पड़े।

इन बातों का ज़िक़्र मैं नहीं करती, आपने पूछा तो मैंने कहना लाज़मी समझा। हिंदी साहित्य जगत में अपनी असहमति जताने, खुले मन से अपनी बात रखने का कोई परिसर है या नहीं मुझे नहीं पता, लेकिन मैंने बिना किसी वैमनस्य के अपनी बात कही है।    

मुहम्मद हारून रशीद ख़ान: हिंदी के लोग आपको बहुत पसंद करते हैं। हिंदी में सम्बद्ध लेखन है। इसकी रचनाशीलता और आलोचना दृष्टि में वैश्विक चेतना दिखाई देती है। शायद यही कारण है कि आपको पसंद करते हैं। इस लिहाज से हिंदी समाज का जो मन है, उसके बारे में आपकी क्या राय है?

अमृता बेरा: हिंदी के लोग मुझे कितना पसंद करते हैं, यह मैं नहीं जानती। लेकिन, अब आगे कितना पसंद करेंगे यह पता नहीं। वैसे, हिंदी साहित्य से जुड़े जितने लोगों को मैं जानती हूँ, जिनके साथ मेरा मिलना-मिलाना है, उन सबसे मेरा रिश्ता मधुर, हार्दिक और सौहार्दपूर्ण है। उसका एक कारण यह भी हो सकता है कि मैं उनकी डायरेक्ट कॉम्पेटिटर नहीं हूँ, मैं दूसरी भाषा से आती हूँ, एक ऐसी भाषा जिस भाषा के साहित्य को पढ़ने का आग्रह हिंदी के लोगों में बराबर रहा है। हिंदी साहित्यिक समाज का मन उदार है, लोकतांत्रिक है, समावेशी है, यहाँ असहमतियों के लिए जगह है, मैं इसी रूप में हिंदी साहित्य के परिवेश को देखना चाहती हूँ।          

मुहम्मद हारून रशीद ख़ान: ‘शब्दवेधी-शब्दभेदी’ में तसलीमा नसरीन ने लिखा है ‘सुनील गंगोपाध्याय’ ने उनका यौन शोषण किया। आख़िर ये महिला लेखिकाएं ऐसे लोगों के पास जाती ही क्यों हैं, जो आपका शोषण करे। सुनील गंगोपाध्याय के बारे में थोड़ा विस्तार से जानना चाहता हूँ।

अमृता बेरा: कवि, कथाकार सुनील गंगोपाध्याय एक किंवदंती हैं। उल्लेखनीय ‘कृत्तिवास’ कविता की पत्रिका के संपादक, ‘देश’ पत्रिका, ‘आनंद बाजार’ सहित तमाम सरकारी, ग़ैर-सरकारी साहित्यिक संस्थाओं, फ़िल्मों से जुड़े, देश-विदेश में सुप्रसिद्ध सुनील गंगोपाध्याय, जिनकी ‘नीरा’ शृंखला की प्रेम कविताएँ, जो युवाओं की दो पीढ़ियों का मंत्र बन गईं, इतने लोकप्रिय थे कि वे अपने असंख्य चाहनेवालों, प्रतिष्ठित व उभरते कवि-साहित्यकार पुरुष और महिलाओं एवं चाटुकारों से भी हमेशा घिरे रहते थे। उनके बारे में यह भी प्रचलित है कि वे सबसे बेतक़ल्लुफ़ी से मिलते थे। जो भी साहित्यकार उनके पास किसी उम्मीद से जाता कविताएँ छपने, पुरस्कार कमेटियों में नाम की अनुशंसा वगैरह-वगैरह के लिए मनुहार करता तो वे सभी के लिए कुछ न कुछ कर देते थे।

तसलीमा नसरीन से भी उनकी अच्छी मित्रता थी। यह बात मेरे लिए भी चौंकाने वाली थी जब तसलीमा ने कहा कि सुनील गंगोपाध्याय ने उनका व एक और लड़की का यौन-अपमान किया। ध्यान दीजिए, उन्होंने स्पेसिफ़िकली यौन-अपमान कहा है, न कि यौन-शोषण। अपमान और शोषण दोनों शब्दों में फर्क़ है। हालाँकि, किसी भी महिला के साथ किसी भी तरह का, ख़ासतौर से यौन-अपमान या शोषण अति निंदनीय और अस्वीकार्य है। लेकिन, आपके सवाल का अगला हिस्सा जहाँ आप कह रहे हैं कि महिला लेखिकाएँ आखिर ऐसे लोगों के पास जाती ही क्यों हैं, जो उनका शोषण करे। यह कहना एकतरफा है। हमें पता है कि स्त्री हो या पुरुष अपनी महत्वाकांक्षों के चलते, यश, पद और क्षमता के लोभ में कई बार ऐसा कुछ करने के लिए तत्पर रहते हैं या परहेज़ नहीं करते, जो न वांछनीय है और न ही स्वीकार्य। उधर हमारे पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियों का अस्तित्व हमेशा मर्यादा की एक नाज़ुक-सी नोक पर टिका होता है, जिसके चलते कैरेक्टर असासिनेशन करने में समाज रत्ती भर भी देर नहीं करता है। अभिव्यक्ति की आज़ादी सभी की है। लेकिन, तमाम बातें स्पष्टरूप से पता न होने पर, किसी पर दोषारोपण करना या किसी का पक्ष लेना सही नहीं।

मुहम्मद हारून रशीद ख़ान: हिंदी साहित्य में अंध राष्ट्रवाद तेज़ी से बढ़ा है, क्या बांग्ला और अंग्रेज़ी में भी अंध राष्ट्रवाद बढ़ा है?

अमृता बेरा: टैगोर ने राष्ट्रवाद के विचार को सिरे से नकारा था। उनके अनुसार, राष्ट्रवाद ने लोकतंत्र और मानवता के बुनियादी सिद्धांतों को कमज़ोर करते हुए, भौतिक संपदा और राजनीतिक शक्ति के लिए एक नासमझ भूख पैदा की। उनके अनुसार राष्ट्रवाद "राजनीति और वाणिज्य का संगठन" था, जो पूँजीवाद और मशीनीकरण के पश्चिमी विचारों का अवतार एवं पूरी तरह से विदेशी और पूर्व की सांस्कृतिक परंपराओं के प्रतिकूल था। राष्ट्रवाद की अवधारणा आंतरिक रूप से स्वायत्त, बहुलवाद और धार्मिक सहिष्णुता की भारतीय परंपरा के ख़िलाफ थी। आज भी यह बातें प्रासंगिक लगती हैं। अंध राष्ट्रवाद आज इसी का उपांतरित रूप है, जहाँ देश के नागरिकों से ज़्यादा अंध राष्ट्रवाद का मूल्य है, जिसे कैटेलिस्ट की तरह साहित्य में व्यवहार कर लोगों की चेतना पर प्रभाव डाला जा रहा है। सही मायनों में अभिव्यक्ति की आज़ादी पर विश्वास रखने वाले, तार्किकता, समानता, लोकतांत्रिक विचारों को मान देने वाले इसी ओर इशारा कर रहे हैं किस भी क्षेत्र में अंध राष्ट्रवाद तेज़ी से बढ़ रहा है। यह तो स्पष्ट है कि जो भाषा सत्ता के क़रीब होगी, अपना वर्चस्व स्थापित करने में उतनी ही मज़बूत होगी। उसका बाज़ार भी उतना पुख़्ता होगा। सत्ता और राजनीति द्वारा संचालित हिंदू, हिंदुत्व की भावना से प्रेरित, हिंदी को राष्ट्रभाषा के तौर पर स्थापित करने पर जो ज़ोर दिया जा रहा है, उससे हिंदी का बाज़ार गर्म है। बहुसंख्यक वादी और विघटनकारी मुद्दों पर आधारित राजनीति और हिन्दू राष्ट्रवादी विचारधारा का जिस तरह बोलबाला है, सांप्रदायिक नज़रिए पर आधारित जिस तरह के राजनीतिक और सामाजिक मुद्दे बन रहे हैं, जहाँ सच के साथ समझौता और झूठ को सच के रूप में प्रस्तुत करने के जिस नैरेटिव को प्रोत्साहित किया जा रहा है, उससे हमारी भाषा, फ़िल्में, कला एवं और सभी क्षेत्रों के साथ-साथ हिंदी साहित्य भी काफ़ी प्रभावित है। कमोबेश दूसरी भाषाओं का साहित्य भी कहीं न कहीं प्रभावित हो ही रहा है। बाज़ारवाद और मौक़ापरस्ती के दौर में प्रकाशक से लेकर संस्थाएँ, लेखक, कलाकार जिन्हें जो सुविधाएँ मिल रही हैं वे उन अवसरों का लाभ उठा रहें हैं। जो इसके प्रभाव में नहीं हैं वे चुप्पी साधे रहने में अक़्लमंदी समझ रहे हैं।

चूँकि, भारतीय अंग्रेज़ी साहित्य की वैश्विक स्तर पर सशक्त उपस्थिति है। विश्व साहित्य का प्रभाव, उदारता, सिद्धांतों और विचारों की भिन्नताऐं, वैविध्य शायद कहीं इस अंधेपन को न्यूट्रलाइज़ करती भी हों, मगर भारतीय अंग्रेज़ी साहित्य में भी इसका प्रवेश तेज़ी से घटाहै। बंगाल में विश्व हिंदू परिषद और आरएसएस के तत्वाधान में ‘स्वस्तिका’ नाम की एक पत्रिका लंबे समय से निकलती है, जिसका एक सर्कुलेशन भी है। रामकृष्ण मिशन, मठ आदि के पत्रिकाओं में भी हिंदुत्ववाद, राष्ट्रवाद के लक्षण हैं, लेकिन बंगाल का साहित्य सदैव की भांति मूलतः सत्ता-विरोधी, प्रतिष्ठान विरोधी रहा है,चाहे सरकार कोई भी हो।सत्ता के केंद्रके ख़िलाफ़आवाज़ उठाने का चलन, जिसकी एक परंपरा है, वह अब भी बहुत स्पष्ट और मुखर है।

मुहम्मद हारून रशीद ख़ान: अंग्रेज़ी में जो भारतीय लेखन है, उसे लेकर आप क्या सोचती हैं?

अमृता बेरा: मुझे भारतीय अंग्रेज़ी लेखन में काफ़ी दिलचस्पी है। पहले मैं अंग्रेज़ी में विश्व साहित्य ज़्यादा पढ़ती थी। रूसी साहित्य के अलावा डोरिस लेसिंग, नडीन गोर्डीमर मेरी प्रिय लेखिकाओं में से थीं। फिर भारतीय अंग्रेज़ी लेखन के शुरुआती दौर में निस्सिम ईज़ीकिल की कविताएँ, आर के नारायण, वी एस नायपॉल, मुल्क राज आनंद आदि बहुत अच्छे लगते थे। धीरे-धीरे मेरा झुकाव भारतीय अंग्रेज़ी लेखन की ओर तेज़ी से बढ़ता गया। फिर अनीता देसाई, अरुंधती रॉय, उपमन्यु चैटर्जी, किरण देसाई, सलमान रूशदी, विक्रम सेठ, रोहिंगटन मिस्त्री, झुम्पा लाहिड़ी पसंदीदा लेखकों में से रहे। वैसे, मेरे सबसे प्रिय लेखक अमिताभ घोष हैं। नीरद चौधरी की 'ऑटोबायोग्राफ़ी ऑफ ऐन अननोन इंडियन', के ए अब्बास की 'इन्क़लाब', विक्रम सेठ का पद्य में लिखा उपन्यास 'द गोल्डन गेट', रोहिंगटन मिस्त्री का 'अ फ़ाइन बैलेंस', झुम्पा लाहिड़ी की 'इंटरप्रेटर ऑफ मैलेडीज़', 'द लोलैंड' और अभिताभ घोष की तो लगभग सभी किताबें ऐसी हैं जिन्हें पाठक तो क्या हर उपन्यासकार को भी, विषयों की वैविध्यता, उनके कहने का ढंग और अलग-अलग लेखन शैलियों से परिचित होने के लिए ज़रूर पढ़ना चाहिए। भारतीय अंग्रेज़ी लेखन में मैंने जो एक पर्सनल टच महसूस किया, उससे लगा कि विदेशी साहित्य विषय, विचारधारा, शिल्प, संवेदना, प्रज्ञा में सार्वभौमिक स्तर पर उत्कृष्ट होते हुए और आपको उद्वेलित करने के बावजूद भी जिस ख़ालीपन का एहसास कराता है, वह है पर्सनल और इम्पर्सनल का फर्क़। अपनी माटी की सुगंध, अपनी जड़ों का संबंध, अपने संदर्भों की बात और भावनात्मक स्तर पर जुड़ाव। भारतीय अंग्रेज़ी लेखन जिस तरह पिछले कई दशकों से बढ़ रहा है उसमें अंग्रेज़ी में अनुवादित साहित्य का भी बहुत बड़ा योगदान है। विभिन्न भारतीय भाषाओं का साहित्य जिस तरह अंग्रेज़ी में अनूदित हो विश्व स्तर पर धीरी-धीरे अपनी पहचान बना रहा है यह एक गर्व का विषय है।

मुहम्मद हारून रशीद ख़ान: एक अनुवादक होने के नाते आप देश के अनुवाद साहित्य के विषय में क्या कहना चाहती हैं? मेरी दृष्टि में अनुवाद हमें दूसरों से जोड़ते हैं, दूसरों को समझने में मदद करते है। आप क्या सोचती हैं?

अमृता बेरा: भारत विश्व में सबसे अधिक भाषाई विविधता वाले देशों में से एक है। महानगरीय सुविज्ञ समाज में अंग्रेज़ी व्यापक रूप से बोली जाती है, अंग्रेज़ी साहित्य का अभ्यास-साधना, प्रचार-प्रसार है। और तभी विश्व स्तर पर भारतीय अंग्रेज़ी साहित्य की अपनी एक पहचान बनी है। लेकिन, देश में सबसे ज़्यादा बोली-समझी जाने वाली हिंदी भाषा सहित और सभी क्षेत्रिय भाषाओं के अनुवाद साहित्य का दायरा सीमित है। अनुवाद की कमी की वजह से अलग-अलग भाषाओं का समृद्ध और उत्कृष्ट साहित्य वैश्विक स्तर पर अपनी पहुंच अब तक नहीं बना पाया है। चूंकि भारतीय भाषाओं का परस्पर अनुवाद भी काफ़ी कम होता है, तभी अक्सर हमें दूसरी भाषाओं के साहित्य के बारे में कम पता होता है। बांग्ला की बात करूं तो बांग्ला में विश्व साहित्य का बहुत अनुवाद हुआ हैऔर होता रहता है, लेकिन बांग्ला का दूसरी भारतीय भाषाओं में परस्पर अनुवाद या विश्व स्तर पर अंग्रेज़ी अनुवाद अभी तक न के बराबर ही है। यही दशा हिंदी सहित दूसरी भारतीय भाषाओं की है। इसका कारण यह भी  है कि हमारे पास अनुवादकों की बहुत कमी है और प्रकाशकों का अनुवाद छापने का आग्रह भी कम है। सच कहा जाए तो इस समय हमें लेखकों से ज़्यादा अनुवादकों की ज़रुरत है। चाहे विश्व पटल या देश की दूसरी भाषाओं में अपने लेखन की उपस्थिति को दर्ज कराना हो या दूसरी भाषाओं के साहित्य को पढ़ना हो, उस भाषा के बोलने वालों का राजनीतिक, सामाजिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक परिवेश को जानना-समझना हो, और जब हम युनिटी इन डाइवर्सिटी की बात करते हैं, तब भी, एक-दूसरे को जोड़े रखने के लिए अनुवाद ही एक सेतु का काम करता है, यही सबसे महत्वपूर्ण और एकमात्र टूल है।

जब तक हम अनुवाद को मूल लेखन के पैरेलल ट्रीट नहीं करेंगे, जब तक हम अनुवाद को दोयम दर्ज़े का काम समझते रहेंगे, हम अच्छे अनुवादक या स्तरीय अनुवाद नहीं ला सकते हैं। आप देखिए, हिंदी में गिने-चुने अनुवादक हैं, जो अपनी इच्छा से, अपनी रचनात्मक संतुष्टि के लिए अनुवाद करते हैं। अनुवादकों की कहीं कोई ऐसी पहचान नहीं है। विदेशों में अनुवादकों के नाम से किताबें बिकती हैं, पढ़ी जाती हैं। मार्खेज़ की अंग्रेज़ी अनुवादिका ऐडिथ ग्रॉसमैन का नाम किसने नहीं सुना है, जिन्होंने अपना मूल लेखन छोड़ ख़ुद को अनुवाद कार्य में समर्पित किया, आज के दिन में कौन सुविख्यात अनुवादक डेज़ी रॉकवेल को नहीं जानता, जिनके सुप्रसिद्ध हिंदी लेखिका गीतांजली श्री की किताब के अंग्रेज़ी अनुवाद, ‘द टूंब ऑफ सैंड’ को इंटरनेशनल बुकर सम्मान मिला, जिसकी बराबर की पुरस्कार राशी की वह हक़दार रहीं। इसी तरह हिंदी लेखक अजय नावरिया की किताबों की अंग्रेज़ी अनुवादक लॉरा ब्रुएक, स्पैनिश भाषा की अनुवादक ऐना डीनी मोरालिस ऐसी जानी-मानी अनुवादक हैं जिनके नाम से किताबें पढ़ी जाती हैं। क्या ऐसा भारतीय भाषाओं में भी संभव है?

दरअसल, अनुवाद एक स्पेशियालाइज़्ड काम है। यदि अकादमियां, संस्थाएं, प्रकाशक प्रमुखता से अनुवाद को लेकर सेमिनार्स, परस्पर संवादात्मक सत्रों का आयोजन, लेखक, अनुवादक और भाषाविदों की संयुक्त कार्यशालाएँ और राइटर्स इन रेज़िडेंस के तर्ज पर - ट्रांसलेटर्स इन रेज़िडेंस, अनुवाद के लिए फ़ेलोशिप या ग्रांट एवं इन हाऊस ट्रांसलेटर्स जैसी विषयों पर ज़ोर दें तो ही स्तरीय अनुवाद लाना संभव होगा।

ऐसा नहीं है कि अनुवाद को लेकर हिंदी में कुछ काम नहीं हुआया हो रहा है। गीतांजलि श्री के ‘रेत-समाधि’ उपन्यास के अंग्रेज़ी अनुवाद को बुकर मिलने से (हालांकि, बुकर में चुने जाने की पहली शर्तमूल भाषा की किताब के अंग्रेज़ी अनुवाद का यूके या आयरलैंडसे प्रकाशित होना है) अचानक सब जैसे चौकन्ने हो उठे हैं – धीरे-धीरे प्रकाशक सिर्फ़ अंग्रेज़ी में ही नहीं, बल्कि दूसरी भाषाओं से अनुवाद और ख़ासतौर से हिंदी के अनुवाद में रुचि ले रहे हैं, हालांकि वे अनुवाद के एडिटिंग के विषय में अब भी जागरूक नहीं हैं, जबकि अनुवाद का एडिटिंग होना उतना ही ज़रूरी है, जितना मूल रचना का अनुवाद होना। अंग्रेज़ी के प्रकाशक इस विषय पर काफ़ी ज़ोर देते हैं। आजकल पाठक अनुवाद पढ़ने में आग्रह दिखा रहे हैं, और लेखक भी अनुवाद को लेकर सजग हो रहे हैं। वे अपनी ओर से भी कोशिश कर रहे हैं कि उनकी किताबें अलग भाषाओं में, ख़ासतौर से अंग्रेज़ी में अनूदित हों। कुछ संस्थाएं अनुवाद का महत्व समझ अनूदित कार्यों को मान्यता दे रही हैं, अनुवादकों को सम्मानित कर रही हैं।

मुद्दे की बात जो मैं कहना चाहती हूँ वो यह कि अब जब हम जान चुके हैं कि आज के समय में अनुवाद की विधा और भी ज़रूरी हो गई है, हमें इसके लिए कुछ नीतियां, दिशा-निर्देश, मापदंड बनाने होंगे, कुछ अतिरिक्त प्रयास करने होंगे। विदेशों में अनुवादकों के नाम पर किताबें बिकती हैं,पढ़ी जाती हैं। हमारे देश में भी हिंदी एवं और भाषाओं में ऐसा हो, मैं यह सपना देखती हूँ।

मुहम्मद हारून रशीद ख़ान: आज साहित्य की मुख्य चुनौतियाँ क्या हैं?

अमृता बेरा: यह एक ऐसा वज़नदार सवाल है जिसका जवाब देने की शायद मुझमें योग्यता नहीं है। फिर भी मेरी समझ से यदि देश के साहित्य की बात करुं तो इस वक़्त सबसे बड़ी चुनौती और संकट अपनी पक्षधरता, वैचारिकी, संवेदनाओं और सिद्धांतों के आधार पर साहित्य रचने और छपने की है। जिस तरह का माहौल बना हुआ है, जहाँ आप एक ख़ास पक्ष, विचारधारा का अनुमोदन करने के अलावा अपना पक्ष रखने, अपने विचार व्यक्त करने, स्वस्थ चर्चा-आलोचना करने पर ख़ारिज कर दिए जाते हैं। जहाँ अभिव्यक्ति की आज़ादी पर पहरा हो, आपके संगी-साथी या तो चुप लगाए बैठे हों या अपना पक्ष ही बदल चुके हों, ख़ुदग़र्ज़ और अवसरवादी होने का जब किसी को कोई मलाल न हो, जहाँ सब तर्क आपको ही आरोपी ठहराते हों, ऐसे दमघोंटू वातावरण में जहाँ आप अकेले पड़ गए हों, वहां सच के पक्ष में, मानवता के पक्ष में ईमानदारी से कुछ कहना, करना या रचनाएक बड़ी चुनौती बन गई है।

आज और भी बड़ी चुनौती यह नज़र आ रही है कि जहाँ हमारी शैक्षणिक व्यवस्था राष्ट्रवाद को बढ़ावा देकर हमारी संस्कृति को बदलने की कोशिश कर रहीहै, जिस तरह हमारे इतिहास को बदला जा रहा है, उससे अगली पीढ़ियों में एक भ्रम की स्थिति पैदा होने की संभावना है, एक प्रकार की दुविधा पैदा होने की आशंका है कि क्या सही है, और ऐसे में यदि ऐसा कोई पाठ्यक्रम तैयार हो जाए, ऐसे किसी इतिहास का निर्माण कर लिया जाए, जिसमें से राष्ट्रवाद जिसे नापसंद करता हो उसे मिटा दिया जाए या पूरी तरह से नकारात्मक बताया जाए, तोफिर बाद के समय में जो साहित्य रचेंगे वे इसी बदली हुई संस्कृति और इतिहास का आश्रय लेंगे, नतीजतन, अनजाने ही वे उस विकृत इतिहास और संस्कृति के भागीदार बन जायेंगे, और चूंकि उनकी भाषा, कला चेतना और साहित्य उस विकृत इतिहास और संस्कृति से निर्मित होगी, उनका कामएक विकृत भाषा साहित्य और कला के उदाहरण के रूप में सामने आएगा।

शायद यह चुनौतियां दुनिया के दूसरी जगहों पर भी हों। लेकिन यह एक ऐसा संघर्ष है, जिसमें कुछ हारें भी तो कुछ चुनौतियों का सामना करते हुए अवश्य ही जीतते हैं।            

मुहम्मद हारून रशीद ख़ान: स्त्रियों की बदलती तस्वीर अब सामने आ रही है। नई चेतना की जो उदीयमान स्त्री है – नौकरी की तलाश में लगी, विज्ञापन या ऐसे दूसरे कामों में जुड़ रही है, सोशल एक्सपोज़र खोज रही है, अक्सर वह जाने-अनजाने किसी न किसी फैशन में चली जा रही हैं.... तो उनकी आज़ाद ख़याली में जो मुश्किलें हैं, उस पर आपकी क्या राय बनती है?

अमृता बेरा: स्त्रियाँ जिस तरह से हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही हैं, प्रगति कर रही हैं, संघर्षपूर्ण स्थितियों से लड़ रही हैं, हर तरह की ज़िम्मेदारियां निभा रही हैं, आत्मनिर्भर हो रही हैं, अपनी पहचान बना रही हैं, उनकी यह आज़ाद उड़ान और बड़ी ऊंचाइयां छुएं। जिस तरह एक सिक्के के दो पहलू हैं, उसी तरह जीवन से जुड़े हर विषय में एक डाइकॉटमी है। जहाँ महिलाएँ सशक्त रूप से हर क्षेत्र में आगे क़दम बढ़ा रही हैं, वहीं कुछ महिलाएँ प्रतिस्पर्धा और महत्वाकांक्षाओं के पीछे अंधाधुन भागते-भागते कई बार ग़लत निर्णय ले बैठती हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उनकी पूरी आज़ादी नहीं होनी चाहिए। सही मार्गदर्शन न मिलने या परिपक्वता के अभाव में स्त्री हो या पुरुष ऐसा कुछ कर सकता है जो सामाजिक दृष्टिकोण से अवांछनीय हो, अनुचित हो, अस्वीकार्य हो। इस पर अलग से महिलाओं पर उँगली उठाने का कोई औचित्य नहीं। इसी तरह मुझे लगता है कि साहित्य में भी स्त्री लेखन को अलग से रेखांकित या मूल्यांकन करने का कोई तात्पर्य नहीं है।

जहाँ तक महिलाओं के आज़ाद ख़याली की बात है, दरअसल, हमारे यहाँ नारीवाद की कोई विशिष्ट भारतीय शैली विकसित नहीं हुई है। हमने विदेशों से नारी मुक्ति की कुछ बातें आयात की हैं। लेकिन हम उस मुख्य बिंदु को नज़रअंदाज़ कर जाते हैं जहाँ सिमोन द बोवेयर ने नारीवाद के बारे में कहा है किनारीत्व के बारे में जो प्रचलित धारणा है, वह आख्यान भी पितृसत्ता के अंतर्गत, पितृसत्ता द्वारा निर्मित नारी मुक्ति का आख्यान है।भारतीय स्त्री साहित्य पितृसत्ता द्वारा निर्मित नारी मुक्ति की आख्यान का ही अनुसरण कर रहा है। नतीजतन, यह एक अंधी गली से दूसरी अंधी गली में प्रवेश करने जैसा है, जहाँ मूलतः शरीर-केंद्रित यौन चेतना की अभिव्यक्ति को एकमात्र परिचायक के रूप में लिया जाता है, उसे ही उपलब्धि मानी जाती है।तभी शायद महिलाओं की आज़ाद ख़याली की मुश्किलातों का ज़िक़्र एक आयामी लगता है। 

मुहम्मद हारून रशीद ख़ान: यूरोप और एशिया के तमाम देश जहाँ अलग-अलग धर्म और संस्कृतियां हैं - आज ये आपस में टकरा रही हैं। ख़ासकर मध्य पूर्व एशिया में स्थिति बहुत ख़राब है। इन देशों को हम त्रासद अवस्था में देख रहे हैं। ज़ाहिर है आप भी चिंतित होंगी ....

अमृता बेरा: आज के दुनिया के हालात देख कर कोई भी धर्म निरपेक्ष, स्वतंत्र विचारों का, अभिव्यक्ति की आज़ादी, समता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और मानवता में विश्वास रखने वाला व्यक्ति विचलित होगा, अशांत रहेगा, क्षुब्ध रहेगा, यही तो स्वाभाविक है। ये हालात धर्मांधता, असहिष्णुता के साथ-साथ निरंकुशता और राजनीतिक कारणों से भी विकराल रूप ले रहा है। इनकी ताज़ा मिसालें हैं इराक़, इज़रायल-फ़िलिस्तीन, रशिया-यूक्रेन, सीरिया, सुडान, लीबिया और भी तमाम देश जहाँ धर्म-संस्कृति, एथनिक क्लिनसिंग, इस्लामोफ़ोबिया,राजनीतिक, एकतंत्र, राष्ट्रवाद के नाम पर आतंक, दहशत, विस्थापन, भुखमरी, जेनोसाइड और युद्ध छिड़ा हुआ है। दरअसल दूसरे विश्व युद्ध के समय से ही मुल्कों के सुरक्षा के नाम पर अस्त्रों के विपुल परिमाण का जो बाज़ार तैयार हुआउसके सैचुरेशन पॉइंट पर आ जाने से -नया कोई युद्ध न होने से, नये सिरे से हथियारों का व्यापार न होने से, उनकी बिक्री न होने से, विश्व व्यापार पूंजी का एक बड़ा हिस्सा स्टैग्नेंट होगया है। तभी आजये विकट स्थितियां बनाई जा रही हैं,युद्ध के नये मुद्दे तैयारकिए जा रहे हैं। एक जगह पढ़ रही थीकि साम्राज्यवाद आज अपनेख़ुद के अंतर्विरोधों की वजह से,और दुनिया के अनेक हिस्सों में हो रहे साम्राज्यवाद विरोधी संघर्षों की वजह से भी गहरे संकट में आ गया है। इन संकटों से उबरने के लिए साम्राज्यवाद युद्ध की शरण में जाने को मजबूर है।

पिछले दिनों से इज़राइल जिस तरह फ़िलिस्तीनकी आवाम, ख़ासकर बच्चों एवं महिलाओं का जनसंहार कर रहा है, फ़िलिस्तीनी बस्तियों को गैस चैंबर में बदल दिया है, उसमेंसंयुक्त राष्ट्र, यूरोपीय देशों का दोगलापन सामने आया है। एक ओर ग़ाज़ा में ख़ैरात बांटा जा रहा है, और दूसरी ओर इज़राइल को समर्थन देकर,नए-नए हथियार मुहैया कराकर फ़िलिस्तीनियों के जनसंहार में मदद किया जा रहा है। भारत जो हमेशा से फ़िलिस्तीनके पक्ष में रहा है,आज वर्तमान सरकार इज़राइल का साथ खड़ी नज़र आ रही है। त्रासदी तो यह है किफ़िलिस्तीनियों के साथ होते ज़ुल्म, अन्याय, बर्बरता, क़त्लेआम, भूख से तड़पते, मलबे में दबे, अस्पतालों में ज़ख्मी, दम तोड़ते बच्चे, नेस्तनाबूद होते शहर, इन मर्मांतिक दृश्यों को सारी दुनिया रोज़ाना सोशल मीडिया और चैनलों पर'लाइव'देख रही है, फिर भी ज़्यादातर लोगमुंह बंद किए अपनी ज़िंदगियों में व्यस्त और मस्त हैं। कहीं उनके अंदर की संवेदना, सुहानुभूति और मानवीयता जड़ होती जा रही है, मर रही है। मुझे कवि, लेखक नवारुण भट्टाचार्या की बहुत पहले की लिखी एक कविता याद आ गई:  ग़ाज़ा, फ़िलिस्तीन

दोबेहद शैतान बच्चे / एक के हाथ में धागा लिपटा लट्टू / दूसरे के हाथ में एक बेसुरा जलतरंग / एक योयो और एक झुनझुना /इन दोनों बच्चों को दिखाया जा रहा था / टीवी के ख़बरों के चैनल पर / स्टार मूवीज़ बना दिया तुमने उन्हें / लेकिन दोनों बच्चे तब शैतानी नहीं कर रहे थे / दोनों ही सो रहे थे / शायद सपना देख रहे हों / कह नहीं सकता / क्योंकि / दोनों ही के सिर नहीं थे।

 

साम्राज्यवाद विरोधी संघर्षों के ख़िलाफ जो आवाज़ें उठ रही हैं, वो शायद पर्याप्त नहीं है। फ़िलिस्तीन की पीड़ा को वैश्विक संवेदना की ज़रूरत है।उसी तरह रशिया-यूक्रेन सहित दुनिया भर में हिंसा,अमानवीयता, अत्याचार,और वर्चस्वता के लिए चल रही लड़ाई को मानव सभ्यता को बचाए रखने के लिए तुरंत थमने की ज़रूरत है।

इधर अंध राष्ट्रवाद के भागीदार के रूप में, 2014 के बाद का जो एक नया भारत बना है, उसका ऐसे किसी युद्ध में शामिल होने की आशंका को भी नकारा नहीं जा सकता है।जिस तरह दिन-ब-दिन भारत में विकास के असल क्षेत्र - कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य,रोज़ी-रोटी,पर्यावरण आदि का बजट घटता जा रहा है और रक्षा का बजट बढ़ता जा रहा है। क्या यह डर निराधार है?विश्वव्यापी संवेदनहीन, अमानवीय होता जा रहा माहौल लोगों को, मानव जाति की सोच और चेतना को जिस दिशा में धकेल रहा है, उसका परिणाम कितना भयावह हो सकता है, आतंक तो यहाँ है।  

मुहम्मद हारून रशीद ख़ान: लड़कियों के प्रति यौन हिंसा बढ़ी है। वो सामान्यत: 6-7 बजे के बाद घर से अकेली नहीं निकल सकतीं। क्या यह हिंसा नहीं है? आप क्या महसूस करती हैं?

अमृता बेरा: हमारा पितृसत्तात्मक समाज युगों से धर्म के नाम पर, मर्यादा के नाम पर, समाज के नाम पर किसी न किसी रूप में महिलाओं का शारीरिक और मानसिक शोषण करता आया है। उन्हें प्रताड़ित करना, अपमानित करना, यौन शोषण यह सभी कुछ भयानक हिंसा है। कुछ प्रतिशत आज़ाद ख़्याल, साहसी महिलाएँ जो अपने दम-ख़म पर आगे बढ़ती हैं क्या उन पर भी उँगली नहीं उठाई जाती है? फिर भी आज की औरत अपने दृढ़ संकल्पों और संघर्षों के दम पर पुरुषों को टक्कर दे रही हैं, कहीं-कहीं उनसे आगे भी जा रही हैं, यह शायद कहीं पुरुषों के छिछले स्वाभिमान को चोट पहुंचाता है। उन्हें अपने से कमज़ोर समझे जाने वाली स्त्री प्रजाति की उन्नति से द्वेष होता है। तभी औरतें उनका सॉफ़्ट टार्गेट होती हैं। कमोबेश हर वर्ग की शिक्षित और अशिक्षित महिलाएँ घरेलू हिंसा, बलात्कार, जलाना, ऑनर किलिंग, ऐसिड अटैक से लेकर और भी तमाम तरह की वहशीपने का शिकार होती हैं।हालांकि, सभी पुरुष नारीद्वेषी हैं और सभी महिलाएँ क्रूरता का शिकार, ऐसा नहीं है।

वैसे, अब तक हमयही सोचते रहे हैं कि लड़कियों के प्रति यौन हिंसा हमेशा से होता रहाहै। पहले भी ऐसी घटनाएं घटती रहीहैं, मगर शर्म और समाज में इज़्ज़त बचाने के कारण दबा दी जाती रही हैं, शिकायतें दर्ज नहीं होती थीं, खुले आम उनके बारे में बात नहीं होती थी। अब चूंकि अख़बार, मीडिया, सोशल नेटवर्क के माध्यम से बातें तुरंत सामने आ जाती हैं, लड़कियां भी निडरता से बोल रही हैं, अपराधों के ख़िलाफ़ सुनवाई और कार्यवाही होती है, इसलिए हिंसा की ख़बरें लोगों तक पहुंच रही हैं और वारदातें ज़्यादा बढ़ती नज़र आ रही हैं। लेकिन, अभी केकुछ सालों में लड़कियों के साथ हुई यौन हिंसा की वारदातें और हत्या के तरीक़े पहले से ज़्यादा ख़ौफ़नाक हो गए हैं। जो कि बेहद चिंता का विषय है।

जहाँ तक रही 6-7 बजे के बाद लड़कियों के घर से अकेली नहीं निकल पाने वाली बात, हो सकता है छोटी जगहों में, अलग-अलग क्षेत्रों में ऐसी स्थिति हो, लेकिन मुंबई और कोलकाता महानगरों में,जहाँ मैं रही हूँ, वहां ज़्यादातर औरतें ख़ुद को सुरक्षित महसूस करती हैं व देर रात तक अकेले आना-जाना करती हैं। हालांकि, दिल्ली में ज़्यादा रात होने पर असुरक्षा की फीलिंग रहती है। 

मुहम्मद हारून रशीद ख़ान: साहित्य अकादमी अब धार्मिक कट्टरवाद के दबाव से घिरी है। गुणवत्ता की जगह वफ़ादारी ने स्थान ले लिया है। आपकी क्या राय है?

अमृता बेरा: हाल ही की ख़बर है कि साहित्य अकादमी द्वारा आयोजित वार्षिक साहित्य महोत्सव का उद्घाटन, केंद्रीय मंत्री अर्जुन राम मेघवाल के करने के बाद प्रसिद्ध मलयालम लेखक सी. राधाकृष्णन ने विरोध स्वरूप साहित्य अकादमी के प्रतिष्ठित सामान्य परिषद के सदस्य के पद से इस्तीफा दे दिया। उनका कहना है कि एक केन्द्रीय मंत्री जिनकी साहित्य में कोई ज्ञात योग्यता नहींहै को वार्षिक उत्सव का उद्घाटन करने देने का निर्णय सांस्कृतिक मामलों का राजनीतिकरण करने का प्रयास है, जिससे अकादमी का स्वातंत्र्य क़म होगा।ऐसी घटनापिछले साल भी घटी थीजिसका परिषद के सभी सदस्यों ने विरोध किया था। लेकिन, अकादमी द्वारा इसकी पुनरावृत्ति न होने के आश्वासन के बावजूदफिर ऐसा हुआ। राधाकृष्णन का कहना था कि वह किसी भी राजनीतिक दल के ख़िलाफ़ नहीं हैं, लेकिन देश की संस्कृति की आख़िरी लोकतांत्रिक स्वायत्त संस्था के अंतिम संस्कार के वह मूक गवाह नहीं बन सकते।

अकादमी के लंबे उतार-चढ़ाव वाले इतिहास में ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। ऐसी घटनाएं समय-समय पर घटती रही हैं। 2015 में भी सांप्रदायिक वैमनस्य, असहिष्णुता के बढ़ते माहौल के विरोध में संस्थान की स्वायत्तता, उसकी चुप्पी पर सवाल उठाते हुए लेखकों ने विरोध किया था और फिर अवार्ड वापसी का सिलसिला चला था। जब-जब देश की विविधता पर, असहमति के ख़िलाफ़, धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र पर हमले हुए हैं या राजनीतिक रसूख वाले लोगों का दबाव बढ़ा है, अभिव्यक्ति की आज़ादी को क़ायमरखते हुए लेखक चुप नहीं रहे हैं।

साहित्य अकादमी की स्थापना मूल रूप से भारत की सभी बाईस भाषाओं के बीच एक सेतु के रूप में कार्य करने के लिए की गई थी। लेकिन परस्पर भाषाओं की अनुवाद की कार्यशालाएं, संवादात्मक सत्र, सेमिनार्स आदि के प्रति अकादमी का ख़ास उत्साह नहीं है। वे पुरस्कार देते हैं, पुरस्कार विजेताओं के पुस्तकों के अनुवाद की व्यवस्था करते हैं और साहित्य उत्सवों का आयोजन करते हैं, जिन में कमोबेश अधिकतर वही कवि-कथाकारों के चेहरे साल-दर-साल ऐसे नज़र आते हैं जैसे उनके साथ कोई अनुबंध हुआ हो। एकत्र हुए साहित्यकार व उनके जान-पहचान के कुछ लोगों का जमावड़ा ही एक-दूसरे के श्रोता होते हैं। उनके इतर पाठक-श्रोताओं की उपस्थिति बहुत कम रहती है। नई ऊर्जा से अनुप्राणित, लीक से हटकर नया रच रहे लेखकों के काम, दूर-दराज़ इलाक़ों में चुपचाप साहित्य रच रहे भूले हुए साहित्यकारों के साहित्य कर्म का सामने आना, उनसे परिचित कराना, उनके साहित्य का अनुवाद होना अकादमी के अन्यतम प्रतिबद्धताओं में से एक है। इसमें कोई संदेह नहीं कि अकादमी अपनी दिशा से भटक रही है और महज़ एक कार्यक्रम संस्थान बनकर रह गई है।

मुहम्मद हारून रशीद ख़ान: आप लगातार अनुवाद पर काम कर रही हैं, अनुवाद करते समय कविता मूल रूप में कितनी सुरक्षित रहती है? अनुवाद के माध्यम से भाषाओं के बीच के संवाद प्रक्रिया पर आपका क्या अनुभव है?

अमृता बेरा: अनुवाद एक प्रयास है, श्रमसाध्य कार्य है जो एक आश्वासन की मांग करता है कि मूल भाषा का टेक्स्ट, लक्ष्य भाषा में ईमानदारी और वैचारिक रूप से स्वीकार्य तरीक़े से पहुंचे। अनुवाद का मक़सद मूल भाषा के पाठ का यथासंभव लक्ष्य भाषा के क़रीब व्याख्या करना है। साहित्यिक अनुवाद रचनात्मकता का एक बहुत ही विशिष्ट रूप है, क्योंकि साहित्यिक अनुवाद इंद्रियों का, विचारों का, बिंबों का, अनकहे का और अमूर्तता का भी अनुवाद है, जिसे एक भाषा से दूसरी भाषा में लाने के लिए, और मूल भाषा के प्रवाह को बरक़रार रखने के लिए उसे लक्ष्य भाषा में सिर्फ़ ट्रांस्लेट करने की नहीं बल्कि ट्रांसक्रिएट करने की आवश्यकता होती है। ट्रांसक्रिएशन दो शब्दों का मेल है - अनुवाद और सृजन। यह अनुवाद का एक जटिल रूप है जो मूल आशय, संदर्भ, भावना और स्वर को संरक्षित रखता है। “Why translation matters”, किताब में प्रशंसित अमेरिकन अनुवादक, एडिथ ग्रॉसमैन कहती हैं “अनुवादकों के अनुभव में अद्वितीय बात यह है कि हम न केवल मूल भाषा के श्रोता हैं, हम मन के कानों में लेखक की आवाज़ सुनते हैं,और हम अनुवादित टेक्स्ट के वक्ता हैं - जो हमने सुना है उसे लक्ष्य भाषा में दोहराते हैं, एक ऐसी भाषा जिसकी अपनी साहित्यिक परंपरा, अपनी सांस्कृतिक संवृद्धि, स्वयं की शब्दावली और वाक्यविन्यास, अपना ऐतिहासिक अनुभव है, और हम जानते हैं कि इन सभी को उतने ही सम्मान, आदर और प्रशंसा के साथ व्यवहार किया जाना चाहिए जितना हम मूल लेखक की भाषा में पाते हैं”।

कविता एक ऐसी नाज़ुक शैली है जिसका भावानुवाद अनुवादक की वाक्यात्मक और काव्यात्मक संरचना की विशेषज्ञता और लिटेरेरी एस्थेटिक्स को बनाए रखने की दक्षता के साथ-साथ पठनीयता की भी मांग करता है। कविता का अनुवाद करते समय, कविता की लय की नक़ल करने से अधिक कठिन कुछ और नहीं है। कविता के अनुवाद में केवल अर्थ को दूसरी भाषा में प्रसारित करने का प्रयास कोई आदर्श स्थिति नहीं है। कविता की जड़ तक पहुंचना एक बात है, लेकिन उसे जीवन देना बिल्कुल अलग बात है। और जब लोग बेतरतीब ढंग से अनुवाद करते हैं, तो वह लयहीन, अकाव्यात्मक, पेचीदा भाषाई शब्दजाल के अलावा कुछ नहीं रहता। ज़ाहिर है इतनी शर्तों के साथ कई बार “Poetry iswhat gets lost in translation” वाली बात आ जाती है।

अनुवाद करते समय कविता मूल रूप में कितनी सुरक्षित रहती है इस परिप्रेक्ष्य में इसका एक और पक्ष याद आता है कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने एक बार अपने अनुज लेखक और अनुवादक कांतिचंद्र घोष, जिन्होंने ‘रुबायते उमर ख़ैय्याम’ का बांग्ला में अनुवाद किया था, को एक पत्र में लिखा था कि कविता एक शर्मीली दुल्हन की तरह है। जब वह एक भाषा के अंतःपुर से दूसरी भाषा के अंतःपुर में जाती है तो स्वाभाविक रूप से थोड़ी झिझक और जकड़न लिए होती है। रवीन्द्रनाथ ने कविता के अनुवाद के क्षेत्र में इस जकड़न को मान्यता दी है। जो कविता संघनित रूप में संकेत धर्म पर निर्भर है, जो कविता सामाजिक या राजनीतिक मुद्दों पर आधारितनहीं है, उसका पाठ जब कोई पाठक कविता कीअपनी भाषा में कर रहा होता है तो, दरअसल वह उन संकेतों को पढ़ रहा होता है, वह अपने मस्तिष्क, मेधा-मनन, और अनुभव में उन संकेतों का अनुवाद ही कर रहा होता है, और हो सकता है कि कवि के अभीष्ट अर्थ की सीमाओं से परे उसे कोई और अर्थ प्राप्त हो रहा हो। यही कारण है कि कविता सूक्षतम कला है जो वास्तव में पाठक से पाठक तक अपने अर्थ, रूप, अपनी धारणा, उपलब्धि, क्रियाऔर प्रतिक्रिया में बदलती रहती है। जब हम एक भाषा से दूसरी भाषा में इसका अनुवाद कर रहे होते हैं तो यह परिवर्तन कविता का एक स्वाभाविक लक्षण है, तभी यदि हम कविता के अनुवाद को व्यापकअर्थ में देखेंतो, इसमें सफलता या विफलता जैसी कोई चीज नहीं होती है।

वहीं जर्मन-यहूदी आलोचक, दार्शनिक और निबंधकार वाल्टर बेंजामिन के अनुसारअनुवादनीयता कुछ पाठों का एक विशिष्ट गुण है, जिसका अर्थ यह नहीं है कि उनका अनुवाद किया जाना आवश्यक है; इसका तात्पर्य यह है कि किसी भी भाषा के मूल पाठ में निहित कुछ ऐसे तत्व होते हैंजो दूसरी भाषा में अनूदित होने की अनुद्यता रखते हैं, अनुवादक को प्रेरित करते हैं।तभी कुछ अनुवाद हज़ारों जतन के बावजूद सीसिफस का श्रम बन कर रह जाते हैं, तो वहीं कुछ अनुवाद मूल से भी अधिक चमक लिए दूसरी भाषा में सहजता से चले आते हैं।

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