ओम भारती : बेचैन रूह और अनंत प्यास का सफर
सेवाराम त्रिपाठी

"क्या गिर गया इस अच्छे विशेषण का /सूचकांक इतना /इस संशय के समय में/ क्या अच्छाई खो चुकी तमाम आकर्षण /क्या कोई वजह /या इच्छा भी नहीं रही इस युग में/ अच्छा होने के लिए /या नहीं रहा इतना भी अच्छापन प्रकृति में/कि आ जाता किसी तरह /" (ओम भारती)
मुझे स्वयं याद नहींं आ रहा ओम भारती से मैं पहली बार कब मिला था। मुझमें और उसमें लगाव और जुड़ाव कब पनपा। ठीक-ठीक नहीं कह सकता शायद 1978 -1979 से। यह शायद बहुत मानीखेज मामला है। वह भीतर जितना चुप था बाहर उतना ही मुखर, वाचाल और खिलंदड़ापन। अपने में चुप रहना बाहर उतना ही मुखर रहना। अपनों के साथ दिलकश अंदाज में बतियाना। उसकी हँसी उसका अंदाजेबया मैं बराबर याद करता हूँ। उसके कई संग्रह मेरे पास हैं। कितने मनुहार से वह देता। लेकिन, कभी लिखने का कोई आग्रह नहीं करता था। यह उसका प्यार था। उसमें स्नेह का समुद्र लहराता था और सारा खारापन दूर होता था और छलक जाती थी उसकी मिठास। कई बार उसकी कविताओं पर लिखने की कोशिश की कुछ वाक्य लिखे कुछ शब्द गूंजे, फिर सोचा अभी क्या जल्दी है लिखेंगे? मेरा वह समूचा इत्मीनान अचानक कल बिखर गया। यही हाल मेरे साथ मेरे अजीज मित्र हरिशंकर अग्रवाल के साथ भी घटा। अभी जो मेरे साथी हैं कब से उनपर लिखने का मन है, बल्कि प्रतिज्ञा है कि अब तो लिखना ही लिखना है। वे मेरे अत्यंत प्रिय हैं। उसमें मलय, सुबोध श्रीवास्तव और पूर्णचंद रथ आदि शामिल हैं।
ओम के साथ कितने सम्मेलन कितने दिन कितने संदेश और कितना संग साथ हम लोगों का रहा है। 1915 की लंबी बीमारी के बाद भोपाल के तीन चार कार्यक्रमों में जाना हुआ। खाली समय में होटल से जब भी फोन किया वह जरूर बिना नागा आए। लगातार ठहाके लगाता रहा। उसका मिलना, हंसना गले लगाना। दिलखोल कर बतियाना उस सूरत को मैं कभी जीवन भर नहीं भूल पाऊंगा। और न उसकी आँखों को न हँसी को और न आत्मीयता को। वह अपनी अंदरूनी बातें प्रायः दूसरों से शेयर नहीं करता था। दुख उसके भीतर थे प्राय: जिसे वह बाहर नहीं निकालता था, उसके तहखाने में वे हर हाल में सुरक्षित रहते। जितना वह अंदर टूटा था उससे ज्यादा वह बाहर हँसता था। कभी-कभी टूटे हुए आदमी अपनी उस टूटन को हँसी से ढक लेते हैं। यह उसका स्वभाव था। वह अपनी टूटन को अंदर ही अंदर जज्ब कर लेता था। उसका पारिवारिक जीवन और उसकी अंदरूनी कड़ियाँ हम किसी तरह खोज नहीं पाए। मेरे भोपाल में नौकरी के दौरान अक्सर वह मेरे ऑफिस हिंदी ग्रंथ अकादमी में आता और घंटों बैठता। देश दुनिया की और साहित्य संस्कृति के तमाम रंगतों की ढेर सारी बातें करता। कभी-कभी जहाँ मैं रहता था, यानी पीएनटी चौराहा के द्वारिकापुरी वाले घर में वह आता कविता पर बतियाता था और अन्य मुद्दों पर तफसील से बातें होती। उसकी एक कविता स्मरण कर रहा हूँ - 'शीर्षक है जिंदगी के आसपास।'
एक दूसरे में/ गड्ड मड्ड हो रहा /समय है /अखबार पढ़िए तो दोस्तों की दस्तकें/ फाइलें देखिए तो बीवी की बीमारी/ बच्चों का एडमिशन सब्जियाँ खरीदते/ कपड़े धोते-धोते बड़े हाकिम का दौरा /कविताएँ लिखने बस बैठने का इरादा /कि फिरकनी सी /घूमती/ आसपास जिंदगी!/"
एक सोच था उसका। ओम कविता में जीता था, हँसता, मुस्कुराता था। खेलत-कूदता फाँदता था और अपने जमाने का सच बखान करता था। उसकी जिंदगी के महासंग्राम से निकला करती थी अनेक चीजें। 1986 में लिखी एक कविता अचानक याद आ रही है। शीर्षक है 'भूल जाएगा। "ज्यादा दिन तक/ नहीं चलेगा/ देखो इसमें/झोल आएगा /झूठ नहीं टिकता/बस्ती में/करके बिस्तर/गोल जाएगा"लेकिन दुर्भाग्य है कि उसका यह सोच अभी तक सही नहीं हो पाया। अब झूठ का साम्राज्य दिन-ब-दिन फैल रहा है। भोपाल की अकादमी से वापस आने के बाद ओम रीवा आए था। वह यहाँ लगभग सात दिन रहा। विजय अग्रवाल उसका बहुत ख्याल रखते। रहता मेरे यहाँ और सभी स्थानों में हम लोग घूमते। उसकी इंसानियत के अनेक रंग मैंने उस दौर में देखे और अनुभव किए। एक दिन मेरे यहाँ हरिशंकर परसाई पर एक संगोष्ठी आयोेजित हुई थी। उसने परसाई जी की कविताएँ सुनाई और उनकी जिंदगी के कई अनछुए पहलुओं की जानकारी दी थी। सब को ज्ञात है कि ओम भारती बहुपठ, बहुश्रुत और जन जीवन से बहुत गहराई से जुड़ा आदमी है। वह जितना बड़ा लेखक है उतना ही बड़ा मनुष्य भी। वह अपने व्यक्तित्व की नई ऊष्मा से हमें सराबोर कर गया। वह जितना साधारण आदमी लगता था उतना ही असाधारण था उसका मेल मिलाप।
काफी लंबे समय तक उसे एक कृत्रिम किस्म का आदमी समझा जाता था। उसकी कविताएँ चमकदार कविताएँ नहीं थीं और न बहुत ज्यादा उद्धरणीय। वे सादगी से जीवन का यथार्थ बखानती। उसमें आकर्षण करने के लिए कभी कोई जगह नहीं थी।"जो सोचा नहीं जाता, सोचता हूँ/कहता हूँ/जो कहाँ नहीं जा रहा/पढ़ता हूँ जो पढ़ा नहीं गया/कोशिश कर गढ़ता हूँ/जो गढ़ा नहीं गया/(नहीं नामक कविता) ओम भारती में साधारणता बहुत थी। वह हर जगह और हर हाल में जी सकता था और रह भी लेता था। कोई ताम-झाम नहीं और न अलग तरह की बनावटी मुद्राएँ। वह कविताएँ लिखता रहा जीवन भर। गद्य भी लिखा कहानियाँ और आलोचनाएं। उसने संपादन भी किया। उसकी कविताओं को कोई खास तवज्जो नहीं मिली। जो भी लिखा गया वह छुटपुट ही था। वह छुटपुट में ही निवास करता रहा।
उसके संपादन में वरिष्ठ कवि मलय जी की रचनात्मकता का मूल्याँकन करती एक क़िताब आई थी जीता हूँ 'सूरज की तरह।' उसकी भूमिका में वह लिखता है -"उनकी लंबी सृजन सक्रियता और कृतित्व, विचार का विषय है। मेरा और यहाँ प्रस्तुत अनेक लेखकों का संबंध उनसे रहा है। वर्षों से लिखने-पढ़ने के संसार में होना हमें उन पर सोचने का हक भी देता है। और रही प्रयोजन की बात तो स्पष्ट है कि हम चाहते हैं कि मलय जी के लिखे पर ध्यान दिया जाए, क्योंकि उसमें सबके लिए सीखने को कुछ अवश्य है।''
मैं सोचता हूँ ये बातें ओम भारती के लिए भी उतनी ही सही और मौजू है। मूल्याँकन विश्लेषण होना न होना भी एक परिधि है। आगे पीछे यह सिलसिला बदस्तूर जारी रहेगा। ओम भारती की एक कविता है 'सनसनाता' आता है झूठ। एक अंश पढ़ें। "कहाँ हो कवि मित्रों निकल आओ घरों से/सामना करना होगा समय का साहस से/पूँजीवादी झूठ के विराट अत्याचार के बीच/अपने ही शिविर में मार डाला जाएगा/वंचितों का स्वप्न, जरा सी भी चूक से/"
कोरोना के पूर्व भोपाल में उससे जमकर मुलाकात हुई थी। मैं उससे कह रहा था कि आठ-दस दिनों के लिए रीवा आ जाओ। वह भी वादा करता रहा कि जल्दी ही आता हूँ। उसका वादा अभी भी वादा ही है जो अब कभी पूरा नहीं हो सकता। ओम भारती की दोस्ती और यादों को सलाम।
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