मुहर्रम: बलिदान, न्याय और इंसानियत की अमर गाथा
यह संपादकीय मुहर्रम और आशूरा के ऐतिहासिक, धार्मिक और सामाजिक महत्व को रेखांकित करता है। इसमें इमाम हुसैन की शहादत को केवल धार्मिक घटना नहीं, बल्कि इंसानियत, न्याय और नैतिक मूल्यों की रक्षा का प्रतीक बताया गया है। मुहर्रम के धार्मिक अनुष्ठानों और सांस्कृतिक परंपराओं के माध्यम से सामाजिक एकता और सौहार्द का संदेश भी उभर कर आता है। भारत जैसे बहुलवादी देश में यह पर्व विभिन्न समुदायों को जोड़ने का माध्यम बनता है। आज की दुनिया में जब अन्याय और असहिष्णुता बढ़ रही है, मुहर्रम का संदेश और अधिक प्रासंगिक हो गया है।

इस्लामी कैलेंडर का पहला महीना मुहर्रम न केवल एक नववर्ष की शुरुआत करता है, बल्कि यह मानव इतिहास की एक ऐसी करुण गाथा से भी जुड़ा है जो न्याय, सत्य और आत्मबलिदान की मिसाल बन गई। यह महीना हमें याद दिलाता है कि सत्य की राह चाहे कितनी भी कठिन क्यों न हो, अंततः वही स्थायी और सार्थक होती है। मुहर्रम, विशेषकर इसकी दसवीं तारीख ‘आशूरा’, हमें कर्बला के उस ऐतिहासिक युद्ध की ओर ले जाती है, जिसमें पैग़म्बर मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन ने अत्याचार, अन्याय और अधर्म के विरुद्ध खड़े होकर अपने प्राणों की आहुति दी।
ऐतिहासिक और धार्मिक परिप्रेक्ष्य
सन 680 ई. में करबला के मैदान में यज़ीद की सत्ता के विरोध में इमाम हुसैन अपने 72 परिजनों और अनुयायियों के साथ डटे रहे। भूख, प्यास, पीड़ा और मृत्यु का भय उनके संकल्प को डिगा न सका। उन्होंने सिर झुकाना स्वीकार नहीं किया, क्योंकि उनके लिए धर्म और नैतिक मूल्यों की रक्षा, सत्ता और जीवन से कहीं ऊपर थी। आशूरा केवल एक शोक दिवस नहीं, बल्कि यह उस चेतना का प्रतीक है जो अन्याय के सामने सिर न झुकाने की प्रेरणा देती है।
बलिदान की सामाजिक और नैतिक शिक्षा
इमाम हुसैन का बलिदान धर्म की रक्षा भर नहीं था, बल्कि यह एक सार्वभौमिक नैतिक संदेश था कि अन्याय के विरुद्ध खामोशी भी अन्याय है। करबला का संदेश सीमित धार्मिक दायरे से ऊपर उठकर हर उस व्यक्ति के लिए मार्गदर्शक बनता है जो मानवाधिकार, स्वतंत्रता और सच्चाई की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहा है। उनके जीवन से हमें साहस, प्रतिबद्धता, सत्यनिष्ठा और करुणा की सीख मिलती है।
धार्मिक अनुष्ठान और सांस्कृतिक परंपराएँ
मुहर्रम के दौरान शिया समुदाय विशेष रूप से मजलीस, मातम, जुलूस और ताज़िये के माध्यम से इमाम हुसैन और उनके साथियों के बलिदान को स्मरण करता है। वहीं, सुन्नी समुदाय भी इमाम हुसैन की स्मृति में उपवास रखते हैं। कई स्थानों पर हिन्दू समुदाय भी ताज़ियों में भागीदारी कर अपनी सांस्कृतिक साझेदारी और सह-अस्तित्व की भावना को दर्शाते हैं। ये परंपराएँ इतिहास को जीवंत बनाए रखने के साथ-साथ सामाजिक समरसता का संदेश भी देती हैं।
भारत में मुहर्रम: एकता का प्रतीक
भारत जैसे बहुलवादी समाज में मुहर्रम का आयोजन महज धार्मिक गतिविधि नहीं, बल्कि एक साझा सांस्कृतिक स्मृति है। यह पर्व विभिन्न धर्मों, जातियों और समुदायों के बीच सहिष्णुता, संवेदनशीलता और सौहार्द को बढ़ावा देता है। ताज़ियों में हिन्दू-मुस्लिम युवाओं की भागीदारी, एक-दूसरे के आयोजनों में सहयोग, और इमाम हुसैन को 'इंसानियत का नेता' मानना, इस बात का प्रमाण है कि भारत में विविधता और एकता एक-दूसरे के पूरक हैं।
आज की दुनिया में मुहर्रम का संदेश
आज जब विश्व अन्याय, युद्ध, धार्मिक असहिष्णुता और स्वार्थ की आग में जल रहा है, मुहर्रम का संदेश पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हो गया है। यह हमें याद दिलाता है कि आदर्शों की रक्षा में उठाया गया प्रत्येक क़दम, इतिहास को नया मोड़ दे सकता है। यह समय है जब हम करबला की कथा को केवल एक धार्मिक कथा नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना के रूप में आत्मसात करें; जहाँ अन्याय के खिलाफ खड़े होना हर इंसान का कर्तव्य है।
अंततः, मुहर्रम हमें रोने के लिए नहीं, जागने के लिए प्रेरित करता है। यह केवल एक शहादत की याद नहीं, बल्कि हर दौर में सत्य, न्याय और इंसानियत की पुनर्स्थापना का संकल्प है। इमाम हुसैन की क़ुर्बानी हर युग के लिए संदेश है कि जब अन्याय के सामने झुकना मना हो, तब कर्बला फिर से ज़िंदा हो जाती है।
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