भीड़तंत्र में तब्दील होता लोकतंत्र : एक चेतावनी

भारतीय समाज, जो कभी विविधता, विचार-विमर्श और सहअस्तित्व का प्रतीक रहा, आज एक खतरनाक दिशा भीड़तंत्र की ओर बढ़ता दिखाई दे रहा है। महाभारत के द्रौपदी चीरहरण से लेकर सुकरात की विषपान तक की घटनाएँ हमें सिखाती हैं कि बहुमत का समर्थन हमेशा न्यायसंगत नहीं होता। फिर भी, आज का भारत उसी भीड़तंत्र की चपेट में आता दिख रहा है, जहाँ संख्या और शक्ति नैतिकता और विवेक पर हावी हो रही है।
महाभारत में द्रौपदी का चीरहरण एक जीवंत उदाहरण है। कौरवों की सभा में, जहाँ भीष्म, द्रोण जैसे विद्वान और दुर्योधन जैसे शक्तिशाली विजेता मौजूद थे, एक पराजित स्त्री के अपमान को चुपचाप सहा गया। केवल भीम, विदुर और विकर्ण जैसे अल्पमत की आवाजें उठीं, पर उन्हें दबा दिया गया। क्या कौरवों की जीत और बहुमत ने उनके कर्म को उचित ठहराया? नहीं। यह घटना हमें सिखाती है कि विजेता की जीत और भीड़ का समर्थन स्वतः सत्य को परिभाषित नहीं करता।
आज के भारत में भी यही प्रवृत्ति दिखाई देती है। चाहे वह पहलू खान, कल्बर्गी जैसे व्यक्तियों की हत्या हो या अभिमन्यु की तरह अल्पमत की आवाजों का दमन, भीड़ का शोर अक्सर विवेक को कुचल देता है। सोशल मीडिया और सार्वजनिक मंचों पर असहमति को दबाने, अल्पसंख्यक विचारों को अपराधी ठहराने और बहुसंख्यक भावनाओं को सर्वोपरि मानने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। यह भीड़तंत्र न केवल व्यक्तिगत स्वतंत्रता को खतरे में डालता है, बल्कि समाज के नैतिक और बौद्धिक आधार को भी कमजोर करता है।
रावण का उदाहरण भी प्रासंगिक है। लंका में बहुमत और शक्ति रावण के पक्ष में थी, फिर भी सीता का हरण अनैतिक था। मंदोदरी और विभीषण जैसे अल्पमत की आवाजें सत्य का प्रतिनिधित्व करती थीं, पर उन्हें नजरअंदाज किया गया। क्या रावण की शक्ति और जनसमर्थन ने उसके कर्म को उचित बनाया? नहीं। उसी तरह, आज भीड़ का समर्थन प्राप्त कृत्य चाहे वह हिंसा हो, दमन हो या असहमति का अपमान स्वतः सही नहीं ठहराए जा सकते।
सुकरात का विषपान और गैलीलियो का मौन इस बात की गवाही देते हैं कि भीड़तंत्र इतिहास में बार-बार सत्य और विचार को कुचलता रहा है। सुकरात ने मृत्यु से पूर्व कहा था, “भीड़ इंसान का भला नहीं कर सकती है।” यह कथन आज भी उतना ही प्रासंगिक है। जब भीड़ विचार की जगह भावनाओं, और विवेक की जगह शक्ति को प्राथमिकता देती है, समाज का पतन निश्चित है।
भारतीय समाज को इस भीड़तंत्र से बचने की आवश्यकता है। हमें बुद्ध की तरह अल्पमत की आवाज को सुनना होगा, जो शाक्यों और कोलियों के बीच जल-विवाद में भीड़ के खिलाफ खड़े हुए। अध्यापक को कक्षा इसलिए नहीं स्थगित कर देना चाहिए कि कक्षा में 32 की जगह सिर्फ 2 छात्र हैं, बल्कि अध्यापक को उन दो विद्यार्थियों के साहस का सम्मान करना चाहिए, जो तीस विद्यार्थियों के कक्षा बंक कर सिनेमा देखने जाने के निर्णय के खिलाफ कक्षा में रुके। हमें यह समझना होगा कि सत्य संख्या में नहीं, विवेक में निहित है।
आज का भारत एक निर्णायक मोड़ पर खड़ा है। यदि हम असहमति को अपराध, अल्पमत को शत्रु और बहुमत को सत्य मानने की राह पर चलते रहे, तो हमारा लोकतंत्र भीड़तंत्र में बदल जाएगा। यह न केवल हमारी सांस्कृतिक विरासत, बल्कि हमारे संवैधानिक मूल्यों स्वतंत्रता, समानता और न्याय के लिए भी खतरा है।
इसलिए, हमें प्रश्न उठाने, असहमति जताने और विवेक को जीवित रखने का साहस दिखाना होगा। अल्पमत की आवाज को सुनना, कमजोर के अधिकारों की रक्षा करना और भीड़ की भावनाओं के आगे न झुकना हमारा नागरिक कर्तव्य है। भारत को भीड़तंत्र का आहार बनने से बचाना होगा, ताकि यह देश विविधता और विचारों का गढ़ बना रहे, न कि शक्ति और संख्या का गुलाम।
आवाज उठाएँ , विवेक बचाएँ , भारत बचाएँ।
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