ब्राह्मण वेश की आड़: विश्वास, सत्य और धर्म की प्रतीकता या छल का माध्यम?

यह संपादकीय भारतीय पौराणिक कथाओं और समकालीन समाज में ब्राह्मण वेश के दुरुपयोग की प्रवृत्ति का विश्लेषण करता है। लेख में बताया गया है कि कैसे रावण, कालनेमी, कर्ण, पांडव जैसे पात्रों ने ब्राह्मण वेश को विश्वास प्राप्त करने और छल करने के लिए अपनाया। यह प्रवृत्ति आज भी देखी जाती है जब समाज पद, वेश या प्रतिष्ठा के आधार पर लोगों पर विश्वास करता है। संपादकीय इस बात पर बल देता है कि व्यक्ति की पहचान उसके आचरण और सत्यनिष्ठा से होनी चाहिए, न कि उसकी वेशभूषा या पद से।

Jul 3, 2025 - 06:39
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ब्राह्मण वेश की आड़: विश्वास, सत्य और धर्म की प्रतीकता या छल का माध्यम?
ब्राह्मण वेश की आड़

भारतीय सभ्यता में ब्राह्मण वेश को सदा से श्रद्धा, ज्ञान, त्याग और धर्म का प्रतीक माना गया है। ब्राह्मण वेश का दर्शन होते ही लोगों के मन में स्वाभाविक सम्मान और विश्वास का भाव उत्पन्न होता रहा है। लेकिन यही प्रतीक जब छल और प्रवंचना का माध्यम बन जाए, तो वह समाज के नैतिक ढांचे को चुनौती देता है। पौराणिक आख्यानों से लेकर आज के समकालीन समाज तक, यह प्रश्न बार-बार उठता है: क्या वेशभूषा और पद ही व्यक्ति की पहचान का मापदंड होना चाहिए?

पौराणिक प्रसंगों में वेश और विश्वास का खेल

रामायण, महाभारत और अन्य पुराणों में अनेक प्रसंग मिलते हैं, जहाँ ब्राह्मण वेश को छल के साधन के रूप में प्रयुक्त किया गया।

रावण, जो स्वयं एक ब्राह्मण कुल में जन्मा राक्षस था, सीता हरण से पूर्व ब्राह्मण वेश धारण करता है ताकि सीता का विश्वास जीत सके।

कालनेमी, ब्राह्मण रूप में आकर हनुमान को भ्रमित करने का प्रयास करता है।

कर्ण, अपने निम्न कुल की पहचान छिपाकर ब्राह्मण बन परशुराम से ब्रह्मास्त्र विद्या प्राप्त करता है।

विश्वामित्र, राजा हरिश्चंद्र की परीक्षा के दौरान ब्राह्मण वेश में आकर उनकी सत्यनिष्ठा को परखता है।

अश्विनी कुमार, सत्यवती की परीक्षा लेते हैं तो पवित्र वेश को माध्यम बनाते हैं।

पांडव, अज्ञातवास के दौरान ब्राह्मणों के रूप में जीवनयापन करते हैं ताकि पहचाने न जाएँ।

इन प्रसंगों से स्पष्ट होता है कि ब्राह्मण वेश एक सामाजिक 'पासपोर्ट' था, जिससे बिना संदेह, बिना प्रतिरोध, बिना जाँच के प्रवेश मिल जाता था-घर में, मन में, और विश्वास में।

धर्म की आड़ में छल: विश्वास का संकट

इन पौराणिक कथाओं की अंतर्निहित सच्चाई यह है कि जब समाज किसी वेश या पहचान पर आँख मूँदकर भरोसा करता है, तो वही उसकी सबसे बड़ी कमजोरी बन जाती है। धर्म, सत्य और ज्ञान के प्रतीक ब्राह्मण वेश को जब छल और स्वार्थ के लिए इस्तेमाल किया जाता है, तो समाज का नैतिक ढांचा डगमगाने लगता है। इन कथाओं में जहां एक ओर सत्य की विजय होती है, वहीं यह संकेत भी मिलता है कि सत्य की राह में सबसे बड़ा खतरा उसी के नाम पर खड़े किए गए छलावे से हो सकता है।

 समकालीन संदर्भ: वेश, पद और प्रतिष्ठा का अंधविश्वास

आज का समाज भी कमोबेश उसी भ्रम में जी रहा है।

धार्मिक वेशधारी बाबाओं के नाम पर ठगी और यौन शोषण

शिक्षा और सेवा के क्षेत्र में पदों का दुरुपयोग

नेताओं और अधिकारियों की कथित प्रतिष्ठा के पीछे छिपा भ्रष्टाचार

फर्जी डिग्री, जाति प्रमाणपत्र या पदों की आड़ में आम जन को ठगना - ये सभी घटनाएँ आज के 'ब्राह्मण वेश' के समकालीन रूप हैं।

आज भी समाज वेशभूषा, पद, प्रतिष्ठा और जाति के आधार पर निर्णय करता है। व्यक्ति के आचरण, विचार और सत्यनिष्ठा को जाँचने की प्रवृत्ति कम होती जा रही है। यही कारण है कि अनेक बार समाज उन लोगों पर भरोसा कर लेता है जो अंततः उसका शोषण करते हैं।

सांस्कृतिक चेतना और सामाजिक आत्मनिरीक्षण

भारत की सांस्कृतिक परंपरा में वेश से अधिक विचारों और कर्मों की महत्ता रही है। 'साधु' शब्द केवल वस्त्रों से नहीं, बल्कि साधना से जुड़ा था। जब वेश साधना से कटकर केवल दिखावा बन जाए, तो उसका दुरुपयोग अपरिहार्य हो जाता है।

हमें यह समझने की आवश्यकता है कि संस्कार वेश से नहीं, चरित्र से झलकते हैं। समाज को यह विवेक विकसित करना होगा कि श्रद्धा आँखें मूंदकर न हो, बल्कि विवेक और मूल्य पर आधारित हो।

सजगता ही विश्वास की रक्षा है

ब्राह्मण वेश की पवित्रता इतिहास और परंपरा की धरोहर है, लेकिन इसका अंधानुकरण या अंधश्रद्धा घातक सिद्ध हो सकती है। आज आवश्यकता है कि हम वेश, जाति, पद या प्रसिद्धि के बजाय व्यक्ति के

आचरण, नैतिकता और सत्यनिष्ठा को प्राथमिकता दें। जब तक समाज बाह्य प्रतीकों पर भरोसा करता रहेगा और अंतःकरण को अनदेखा करता रहेगा, तब तक धोखा, भ्रम और पतन की आशंका बनी रहेगी।

सत्य, धर्म और विश्वास को बचाने का मार्ग केवल सजगता, विवेक और आत्मचिंतन से होकर जाता है, न कि वस्त्रों की छवि से।

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सुशील कुमार पाण्डेय मैं, अपने देश का एक जिम्मेदार नागरिक बनने की यात्रा पर हूँ, यही मेरी पहचान है I