मंदिरों को हिन्दू चेतना के सशक्त केंद्र के रूप में पुनर्स्थापना का समय
यह संपादकीय भारत में मंदिरों की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और सामाजिक भूमिका को रेखांकित करता है और आज के संदर्भ में मंदिरों को केवल पूजा-स्थलों के बजाय हिन्दू चेतना के सशक्त केंद्र के रूप में पुनर्परिभाषित करने की आवश्यकता पर बल देता है। इसमें मंदिरों के माध्यम से शिक्षा, सेवा, संस्कार, संस्कृति और सामाजिक समरसता को पुनर्जीवित करने के उपायों के साथ-साथ आधुनिक चुनौतियों और उनके समाधान प्रस्तुत किए गए हैं। संपादकीय समाज, सरकार और धार्मिक संस्थाओं को मिलकर मंदिरों के बहुआयामी पुनरुत्थान का आह्वान करता है।

भारतवर्ष की सांस्कृतिक आत्मा में यदि किसी संस्था का सर्वाधिक गहन और बहुआयामी प्रभाव रहा है, तो वह है - मंदिर। ये मंदिर केवल ईश्वर-आराधना के केंद्र नहीं रहे, बल्कि युगों से हिन्दू समाज की धार्मिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक, सामाजिक और आध्यात्मिक चेतना के प्राणवंत केंद्र बने रहे हैं। आज जब हम आधुनिकता की दौड़ में परंपरा और मूल्यों से विचलित होते दिखते हैं, तब मंदिरों को केवल पूजा-स्थलों तक सीमित रखना उनके ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और सामाजिक स्वरूप को संकुचित करने जैसा होगा। आवश्यकता है कि हम मंदिरों की भूमिका का पुनर्परिभाषण करें और उन्हें हिन्दू चेतना के नवोन्मेषी केंद्र के रूप में पुनर्स्थापित करें।
मंदिरों का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व
भारत के प्राचीन मंदिर केवल ईश्वर की मूर्तियों तक सीमित नहीं थे; वे ज्ञान, कला, संगीत, नृत्य, शिल्प, खगोलशास्त्र और चिकित्सा जैसे विविध क्षेत्रों के केंद्र रहे हैं। नालंदा, तक्षशिला, कांचीपुरम, उज्जयिनी जैसे तीर्थस्थल न केवल धार्मिक गतिविधियों के लिए प्रसिद्ध थे, बल्कि वहां शैक्षिक और सांस्कृतिक समागम भी हुआ करता था। मंदिरों के प्रांगण में वेदों का उच्चारण, संस्कृत के पठन-पाठन, शिल्प और नाट्यशास्त्र का प्रदर्शन, तथा समाज के नीति-संस्कारों की शिक्षा दी जाती थी। यही कारण है कि मंदिर भारतीय समाज की सांस्कृतिक निरंतरता और मूल्य-परंपरा के रक्षक बने।
मंदिर: हिन्दू चेतना का केंद्र
मंदिर केवल एक ईश्वर का घर नहीं, बल्कि हिन्दू चेतना का साक्षात् प्रतीक हैं। इनके गर्भगृह में स्थित मूर्तियाँ केवल आराध्य नहीं, जीवन के आदर्श, आचार और आत्मानुशासन के प्रतीक हैं। मंदिर की घंटी, दीप, धूप, आरती और मंत्रों की ध्वनि व्यक्ति की आंतरिक चेतना को जाग्रत करने का माध्यम है। यही कारण है कि मंदिरों के माध्यम से समाज में धर्म, संस्कृति, संस्कार और स्वत्व-बोध (Identity Consciousness) का प्रसार होता है। वे समाज को उसकी जड़ों से जोड़ते हैं और अतीत से वर्तमान का सेतु बनाते हैं।
समाज में मंदिरों की भूमिका का पुनर्परिभाषण
आज आवश्यकता है कि मंदिरों की भूमिका को केवल पूजा-अर्चना तक सीमित न रखकर, उन्हें शिक्षा, सामाजिक सेवा और सामुदायिक एकता के केंद्र के रूप में स्थापित किया जाए। मंदिर परिसर में वेद-उपनिषद अध्ययन केंद्र, संस्कृति शिविर, मoral education classes, महिलाओं और युवाओं के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम, गौशालाएँ, आयुर्वेदिक औषधालय, तथा सामुदायिक रसोई (अन्न क्षेत्र) स्थापित किए जा सकते हैं। इससे मंदिर समाज के विभिन्न वर्गों के बीच समरसता, सेवा और सहयोग की भावना को सुदृढ़ करेंगे।
आधुनिक चुनौतियाँ और समाधान
मंदिरों के समक्ष आज कई चुनौतियाँ हैं-
1. धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मंदिरों का राजनीतिक हस्तक्षेप और नियंत्रण
2. शहरीकरण और पश्चिमीकरण के कारण युवाओं की मंदिरों से दूरी
3. मंदिर परिसरों का व्यावसायीकरण या प्रशासनिक उपेक्षा
4. अशिक्षा, जातीय विद्वेष और सामाजिक भेदभाव की समस्याएँ
इन चुनौतियों के समाधान हेतु निम्न कदम उठाए जा सकते हैं-
मंदिर प्रशासन में पारदर्शिता लाना और उसे धर्माचार्यों तथा समाज के प्रतिनिधियों के हाथों सौंपना
युवा-केन्द्रित कार्यक्रमों का संचालन जैसे सांस्कृतिक प्रतियोगिताएँ, योग शिविर, कथा-श्रवण
मंदिरों को डिजिटल माध्यमों से जोड़ना (ई-सेवा, वेबिनार, संस्कृति चैनल आदि)
मंदिर परिसरों को पर्यावरण-मैत्री और आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में प्रयास
मंदिरों के माध्यम से हिन्दू समाज में चेतना का संचार
मंदिरों को यदि योजनाबद्ध रूप से समाज के सांस्कृतिक और नैतिक जागरण का माध्यम बनाया जाए, तो वे युवाओं, महिलाओं और समाज के उपेक्षित वर्गों में गौरवबोध, कर्तव्यनिष्ठा और आत्मबल का संचार कर सकते हैं। मंदिरों से जुड़ी गतिविधियाँ, जैसे धार्मिक उत्सवों में सामूहिक भागीदारी, सांस्कृतिक नाट्य मंचन, सेवाकार्य, लोगों को जोड़ने और उन्हें प्रेरित करने के शक्तिशाली माध्यम हो सकते हैं।
आह्वान
आज जब हमारी संस्कृति बाह्य प्रभावों और आत्मविस्मृति के संकट से जूझ रही है, तब मंदिरों को केवल धार्मिक गतिविधियों तक सीमित रखना उचित नहीं। हमें मंदिरों को हिन्दू चेतना के सशक्त केंद्र के रूप में पुनः प्रतिष्ठित करना होगा। इसके लिए समाज, सरकार और धार्मिक संस्थाओं को मिलकर प्रयास करना होगा -
सरकार को मंदिरों की स्वायत्तता और संरक्षण सुनिश्चित करना चाहिए।
धार्मिक संस्थाओं को मंदिरों को शिक्षा, संस्कृति और सेवा का केंद्र बनाने की रणनीति बनानी चाहिए।
समाज को मंदिरों से भावनात्मक जुड़ाव बढ़ाकर उसे दैनंदिन जीवन का केंद्र बनाना चाहिए।
यह समय है जब हम मंदिरों की भूमिका को यथार्थ रूप में पहचानें और उन्हें हिन्दू संस्कृति के पुनर्जागरण का वाहक बनाएँ।
मंदिर, केवल ईश्वर का घर नहीं, वह समाज की आत्मा है। उसे पुनः जीवंत करने का दायित्व हम सभी का है।
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